हां मैं....

डॉ. कैलाश कौशल

हां मैं....हां मैं….

आंधियों के बीच भले ही कांपती हूँ

फिर भी, प्रभंजन की आँख में,

अंजन आंकती हूँ 

हाँ, मैं खुद अपना भाग्य बांचती हूँ।

 

धार – विरुद्ध डट कर रहती हूँ खड़ी

समय शिलाएँ औ प्रस्तर,

 सब भांजती हूँ

हाँ, मैं अहं नद को बांधती हूँ।

 

भले ही मार्ग सब अवरुद्ध हों

काल स्वयं भी क्रुद्ध हो,

हस्त आमलक सदृश लक्ष्य 

सब साधती हूँ

हाँ, मैं जिद को ठानती हूँ।

 

सागर – मंथन की क्रीड़ा मैं

खेल रही सदियों से,

हलाहलों में से अंजुरी भर

अमृत छानती हूँ

हाँ, मैं जीवन जीना जानती हूँ।

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