भारत के पुनर्जागरण का अरुणोदय बना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
भारत के पुनर्जागरण का अरुणोदय बना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से पहले देश में विकट परिस्थितियां थीं। एक ओर भारत की जनता का अंग्रेजी दासता में दम घुट रहा था, वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं पर मुसलमानों द्वारा अत्याचार किए जा रहे थे। बहुसंख्यक होने के बाद भी हिन्दू समाज जातियों में बंटा हुआ था। यह वह दौर था जब भारतीय संस्कृति को तहत-नहस किया जा रहा था और कांग्रेस के बड़े नेता चुप थे। ऐसे समय में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार के सामने दो मार्ग थे, एक तो क्रान्ति का जिससे तत्काल स्वतन्त्रता मिल सकती थी और दूसरा मार्ग था व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का। राष्ट्र निर्माण यानि एक ऐसे समाज का निर्माण किया, जो स्वतन्त्रता तो प्राप्त करे ही, अपनी उन कमियों का भी निराकरण करे, जिसके चलते देश को बार-बार विदेशी दासता का मुंह देखना पड़ा। स्वतन्त्रता सेनानी डॉ. हेडगेवार ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों व इतिहास का गहन अध्ययन किया और उन्होंने पाया कि जब तक देशवासियों में आत्मगौरव और समर्पण का भाव पैदा नहीं होगा, समाज में संगठन शक्ति का विकास नहीं होगा, तब तक हम स्वतन्त्रता प्राप्त कर भी लें तो वह स्थाई नहीं होगी। राष्ट्रीय गुणों के अभाव में एक शक्ति जाएगी तो कोई दूसरी आकर देश पर फिर से कब्जा कर लेगी, जैसा कि पिछली कई शताब्दियों से होता भी आ रहा था। किसी सफल राष्ट्र के लिए अनिवार्य इन्हीं गुणों के विकास के लिए डॉ. हेडगेवार ने एक संगठन बनाने का निर्णय लिया। संगठन का नाम क्या हो, इस पर चर्चा की गई। किसी ने ‘शिवाजी संघ’ नाम सुझाया तो किसी ने ‘जरीपटका मण्डल’ और किसी ने ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ किन्तु अन्त में नाम निश्चित हुआ ’राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। डॉक्टर हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन मुंबई के मोहिते के बाड़े नामक स्थान पर आरएसएस की नींव रखी। यह संघ की पहली शाखा थी, जो संघ के पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू की गई थी। संघ की स्थापना के बाद उन्होंने उसके विस्तार की योजना बनाई और नागपुर में शाखा लगने लगी। भैय्याजी दाणी, बाबासाहेब आप्टे, बालासाहेब देवरस और मधुकर राव भागवत इसके शुरुआती सदस्य बने। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में प्रचारक की भूमिका सौंपी गई।
1928 में गुरु पूर्णिमा के दिन से गुरु पूजन की परंपरा शुरू हुई। जब सब स्वयंसेवक गुरु पूजन के लिए एकत्र हुए, तब सबको यही अनुमान था कि डॉक्टर साहब की गुरु के रूप में पूजा की जाएगी, लेकिन इन सारी बातों से इतर डॉ. हेडगेवार ने संघ में व्यक्ति पूजा को निषेध करते हुए प्रथम गुरु पूजन कार्यक्रम के अवसर पर कहा, “संघ ने अपने गुरु के स्थान पर किसी व्यक्ति विशेष को मान न देते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को ही सम्मानित किया है।” वे संघ के पहले सरसंघचालक बने। संघ की स्थापना के 15 वर्षों बाद संघ प्रार्थना तैयार की गई। पहले मराठी और हिन्दी में दो श्लोक मिलाकर प्रार्थना की जाती थी। हिन्दी श्लोक में एक पंक्ति इस प्रकार थी, ‘शीघ्र सारे दुर्गुणों से मुक्त हमको कीजिए।’ इसमें जो नकारात्मक, निराशा का भाव है, वह डॉक्टरजी को पसन्द नहीं आया। अतः उसके स्थान पर ‘शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिन्दू कीजिए’ पंक्ति स्वीकार की गई। इससे यही स्पष्ट होता है कि डॉक्टर हेडगेवार का मौलिक चिन्तन कितना सूक्ष्म और मूलग्राही था।
कोई भी कार्य करना हो तो थोड़ा बहुत धन आवश्यक होता है परन्तु इस मामले में भी संघ की स्थिति अलग रही है। प्रारम्भ में चन्दा एकत्रित कर यह खर्च वहन किया जाता, किन्तु आगे चलकर कार्यकर्ताओं ने ही स्वयं विचार किया कि यदि हम इसे अपना ही कार्य मानते हैं तो फिर इसका खर्च स्वयं ही क्यों न वहन करें? फिर, प्रश्न उठा कि हम जो पैसा दें, उसके पीछे दृष्टि और मानसिकता क्या हो? डॉक्टरजी ने कहा, हमें कृतज्ञता और निरपेक्ष बुद्धि से यह देना चाहिए। इस प्रकार संघ में गुरुदक्षिणा की पद्धति प्रारम्भ हुई। पहले वर्ष नागपुर शाखा की गुरुदक्षिणा केवल 84 रुपए हुई। इसके बाद प्रश्न पैदा हुआ कार्य विस्तार का। इस हेतु कार्यकर्ता कहां से मिलें? तब कुछ स्वयंसेवक अन्य प्रान्तों में गये, इन्होंने वहां शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही संघ की शाखाएं भी खोलीं, कार्यकर्ता भी तैयार किए। आगे चलकर यही विद्यार्थी वहां पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य करने लगे। कार्य की सफलता के लिए कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता अनुभव हुई और इस दृष्टि से संघ शिक्षा वर्ग की श्रृंखला चल पड़ी।
प्रतिनिधि सभा, मार्च 2024 के अनुसार- आरएसएस की 922 जिलों, 6597 खंडों और 27,720 मंडलों में 73,117 दैनिक शाखाएं हैं, प्रत्येक मंडल में 12 से 15 गांव शामिल हैं। समाज के हर क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से विभिन्न संगठन चल रहे हैं, जो राष्ट्र निर्माण तथा हिन्दू समाज को संगठित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। संघ के विरोधियों ने तीन बार इस पर प्रतिबंध लगाया – 1948, 1975 एवं 1992 में, लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा।
संघ एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है। आज संघ भारतीय जनमानस के हृदयपटल में पूरी तरह रच-बस गया है। देश के मूल से जुड़ा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चरैवेति-चरैवेति के सनातन सिद्धान्त का अनुसरण करता हुआ आज भी तेजी से उभरती स्थिति में दिखाई दे रहा है, तो इसे देश के पुनर्जागरण का ही अरुणोदय माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।