क्या होंगी ट्रम्प की नीतियां?

क्या होंगी ट्रम्प की नीतियां?

बलबीर पुंज

क्या होंगी ट्रम्प की नीतियां?क्या होंगी ट्रम्प की नीतियां?

अमेरिका में रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया। वे अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति होंगे। सामरिक-आर्थिक रूप से विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक होने के कारण शेष दुनिया में इस चुनाव को लेकर स्वाभाविक चर्चा रही। भारत में भी इसे लेकर दो कारणों से उत्साह दिखा। पहला— ट्रंप की प्रतिद्वंदी और अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस का भारत से तथाकथित ‘जुड़ाव’ होना। यह अलग बात है कि हैरिस कमोबेश भारत-हिंदू विरोधी ही रही हैं। दूसरा— डोनाल्ड ट्रंप, जोकि पहले भी राष्ट्रपति (2016-20) रह चुके हैं— उनका खुलकर हिंदू हितों की बात करना और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे मजहबी हमलों का संज्ञान लेना। परंतु इस सच का एक अलग पहलू भी है। 

यह ठीक है कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में तुलनात्मक रूप से भारत के आंतरिक मामलों में अमेरिका ने बहुत कम हस्तक्षेप किया है। ट्रंप प्रशासन ने वर्ष 2019 में धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण और पुलवामा आतंकवादी हमले के प्रतिकार स्वरूप पाकिस्तान के भीतर भारतीय सर्जिकल स्ट्राइक का समर्थन किया था। इस बार भी ट्रंप ने भारत-अमेरिका के संबंधों को और मजबूत करने की प्रतिबद्धता जताई है। दीपावली के अवसर पर ट्रंप ने सोशल मीडिया साइट एक्स पर एक पोस्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना दोस्त बताया था। साथ ही अपनी सरकार आने पर दोनों देशों के बीच की साझेदारी को और आगे बढ़ाने का वादा किया था। ट्रंप बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद से हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हो रही हिंसा की कड़ी निंदा भी कर चुके हैं। अब तक सामने आई कई रिपोर्ट दर्शाती हैं कि बांग्लादेश में असंख्य हिंदुओं को मजहब के नाम पर जानलेवा हमलों का सामना करना पड़ रहा है। 

क्या ट्रंप की अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में जीत, वैश्वीकरण के ताबूत में अंतिम कील होगी? ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में जो निर्णय लिए थे, जिसमें सात इस्लामी देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय तक शामिल था— उसमें उनकी सबसे प्रमुख नीति ‘अमेरिका फर्स्ट’ थी, जिसे ट्रंप ने इस बार भी दोहराया है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने शुल्कों के माध्यम से भारत-चीन सहित अन्य एशियाई देशों के साथ यूरोपीय सहयोगियों पर भी निशाना साधा था। मई 2019 में ट्रंप ने भारत को न केवल ‘टैरिफ किंग’ बताया था, साथ ही अमेरिकी बाजार में भारत को मिले विशेष व्यापार सुविधा (अमेरिकी व्यापारिक वरीयता कार्यक्रम) को भी समाप्त कर दिया था। तब ट्रंप ने कहा था, “भारत एक उच्च शुल्क वाला देश है… जब हम भारत को मोटरसाइकिल भेजते हैं, तो उस पर 100 प्रतिशत शुल्क होता है। जब भारत हमारे पास मोटरसाइकिल भेजता है, तो हम उनसे कोई शुल्क नहीं लेते। वो हमसे 100 प्रतिशत वसूल रहे हैं। ठीक उसी उत्पाद के लिए, मैं उनसे 25 प्रतिशत वसूलना चाहता हूं।” इस बार ट्रंप ने अमेरिका में सभी आयातों पर 10 प्रतिशत, तो चीन से आयात पर 60 प्रतिशत तक का शुल्क लगाने की बात की है। वास्तव में, ट्रंप की यह नीति संरक्षणवाद से प्रेरित है, जो वैश्वीकरण के लिए खतरा है। यह घटनाक्रम इसलिए भी रोचक है, क्योंकि दशकों से अमेरिका और वैश्वीकरण एक-दूसरे का पर्याय रहे हैं। 

यह ठीक है कि साम्राज्यवादी चीन के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध दशकों तक अस्पष्ट स्थिति अपनाने के बाद अमेरिका ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। वर्ष 2016 के बाद ट्रंप प्रशासन ने पहली बार चीन को एक ‘खतरे’ और ‘रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी’ के रूप में प्रस्तुत किया था। उनसे पहले किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को इस तरह नहीं देखा था। भारत, जो चीन के साथ लगभग 3,488 किमी लंबी विवादित सीमा साझा करता है— पिछले छह दशकों से चीन की आक्रामक नीति का सामना कर रहा है, जिसमें 1962 का युद्ध और हालिया वर्षों में डोकलाम-गलवान-तवांग सहित अन्य सैन्य टकराव शामिल हैं। इस परिप्रेक्ष्य में ट्रंप से आशा की जा सकती है कि वह अपने पहले कार्यकाल की नीतियों का ही विस्तार करेंगे, जिसमें चीन के साम्राज्यवादी रवैये के विरुद्ध मुखर होकर क्वाड समूह (भारत सहित) को मूर्त रूप दिया गया था। 

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अप्रवासन एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा रहा। ट्रंप अपने पहले कार्यकाल से इस पर आक्रमक रहे हैं और उनका दूसरा कार्यकाल अपेक्षित रूप से अवैध अप्रवासन को रोकने के अपने वादे को और सख्ती से लागू करने का प्रयास करेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक वर्ष में बाइडन प्रशासन के नेतृत्व में अमेरिका ने लगभग 1100 अवैध भारतीय प्रवासियों को वापस भेजा है। भारत भी स्पष्ट कर चुका है कि वह अवैध प्रवास का समर्थन नहीं करता। परंतु यदि ट्रंप अप्रवासन के मामले में और सख्ती दिखाते हैं, तो यह निसंदेह भारत के लिए चुनौती खड़ी कर सकता है। 

ट्रंप और हैरिस ने अपने चुनावी भाषणों में भारतीय-अमेरिकी मतदाताओं को लुभाने (दीपावली पर बधाई सहित) का भरसक प्रयास किया। जहां कमला अपनी भारतीय पहचान स्थापित करने हेतु प्रसिद्ध भारतीय व्यंजन ‘इडली-सांभर’ का उपयोग करती दिखीं, तो ट्रंप ने अपने प्रतिनिधि विवेक रामास्वामी और उप-राष्ट्रपति प्रत्याशी जेडी वैंस की पत्नी उषा वैंस को चुनाव-प्रचार में शामिल किया। सच तो यह है कि ट्रंप-हैरिस की कवायद विशुद्ध रूप से राजनीतिक थी। भारतीय संस्कृति, पारिवारिक मान्यताओं और मूल्यों से जुड़े होने के कारण अधिकांश हिंदू और सिख अमेरिका के सबसे संपन्न, समृद्ध और शिक्षित वर्ग में गिने जाते हैं। अमेरिका की कुल जनसंख्या में अमेरिकी-भारतीयों की हिस्सेदारी दो प्रतिशत से भी कम है, लेकिन उनकी औसत वार्षिक घरेलू आय लगभग 1,53,000 डॉलर (लगभग 1.3 करोड़ रुपये) है, जो अमेरिका के राष्ट्रीय औसत के दोगुने से भी अधिक है। यही नहीं, अमेरिका में 34 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत की तुलना में 79 प्रतिशत भारतीय ग्रेजुएट हैं।

विश्व के समक्ष आतंकवाद एक बड़ी समस्या है और भारत सदियों से इसका शिकार है। मजहबी आतंकवाद विरोधी अभियान में अमेरिका का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। ‘गुड तालिबान, बैड तालिबान’ इसका एक हालिया प्रमाण है। क्या ट्रंप के दूसरे कार्यकाल से इस संबंध में सुधार की अपेक्षा की जा सकती है? 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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