चार स्तंभों पर टिका है संघ

चार स्तंभों पर टिका है संघ

बजरंग लाल गुप्त

चार स्तंभों पर टिका है संघचार स्तंभों पर टिका है संघ

मैं राजस्थान के एक छोटे से गांव का रहने वाला हूं। पढ़ाई के दौरान जयपुर में राजस्थान प्रांत का गटनायकों का शिविर हुआ। शिविर में पूजनीय गुरुजी के दर्शन से मेरे मन में उनकी एक आध्यात्मिक छवि अंकित हो गयी। उसके बाद मैं संघ से जुड़ गया। गुरुजी उन दिनों लगभग हर वर्ग में आया करते थे। वहां उनके बौद्धिक सुने। बाद में जब रज्जू भैया सरसंघचालक थे, तब नागपुर की एक सार्वजनिक सभा में मेरा भी भाषण हुआ। चूंकि रज्जू भैया एक प्राध्यापक थे, इसलिए मेरी एक प्राध्यापक के नाते उनसे अनेक विषयों पर चर्चा होती रहती थी। उनके बौद्धिक भी बहुत सरल भाषा में हुआ करते थे। रज्जू भैया का स्वास्थ्य ठीक न रहने पर उन्होंने सुदर्शन जी को सरसंघचालक का दायित्व सौंपा। एक बार मैं और सुदर्शन जी आचार्य महाप्रज्ञ के दर्शन हेतु गए थे। तब सुदर्शन जी ने हिंदुत्व पर जो विचार रखे उसे सुनकर आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा कि सुदर्शन जी अब तक हमने आपके बारे में केवल सुना ही था, अब हम मान गए कि आप चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया हैं।

संघ की व्यवस्था में स्वयंसेवक महत्वपूर्ण कड़ी हैं क्योंकि उनकी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं रहती है। वे समाज के लिए समर्पित रहते हैं। संघ ने प्रारम्भ से ही राष्ट्र के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम तैयार की है। वे अपने लिए कुछ न चाहते हुए संघ और समाज के लिए काम करते रहते हैं। पूजनीय गुरुजी बीएचयू में पढ़ाते थे, उस दौरान अनेक कार्यकर्ता संघ की शाखा में उनके बौद्धिक से राष्ट्र सेवा की ओर उन्मुख हुए। गुरुजी मूलतः आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उन्होंने कुछ दिन कलकत्ता रामकृष्ण मठ में जाकर सेवा की। सेवाकाल में भंडारे के बर्तनों को भी मनोयोग से साफ किया। यह देखकर स्वामी अखण्डानन्द जी ने कहा कि जैसे तुमने बर्तनों को चमकाया है, ऐसे किसी समय समाज को भी चमकाओगे। इससे साबित होता है कि अपने गुरु के प्रति लगन और आशीर्वाद से हर काम संभव हो जाता है।

संघ के विस्तार पर बात करें, तो संघ का सम्पूर्ण काम चार आधार स्तंभों पर टिका हुआ है, विचार, आचार, व्यवहार और विस्तार। सबसे पहला है विचार, जिसके प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए। भारत में हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म के प्रति प्रतिबद्धता आवश्यक है, ऐसा गुरुजी कहा करते थे। कोई व्यक्तिगत आकांक्षा न होते हुए व्यवहार में निष्ठा सबसे बड़ी पूंजी है। संघ के लाखों कार्यकर्ता आज भी इस विचार के साथ बंधे हैं। इसी का प्रतिफल है, कि तीन-तीन बार प्रतिबंध के बावजूद स्वयंसेवक कष्ट सहते हुए राष्ट्रसेवा के मार्ग पर बढ़ते रहे। विचार के बाद आचरण ही है जिसके माध्यम से अन्य लोग जीवन पथ के लिए प्रेरणा पाते हैं। इसलिए संघ ने प्रारम्भ से कहा कि संघ कार्यकर्ता का जीवन पारदर्शी होना चाहिए। फिर तीसरा है व्यवहार, आप अपने साथियों से, समाज के लोगों से कैसा व्यवहार करते हैं? यदि आपका व्यवहार कटु है तो आपके साथ कौन आएगा? आपसे कोई नहीं जुड़ना चाहेगा? मृदुल व्यवहार है तो आप किसी भी व्यक्ति को सहयोगी बना सकते हैं। इसी भाव से स्वाभाविक नीति से संघ के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता गया। डॉक्टर साहब के जीवन के प्रसंग भी हम सुनते हैं, जहाँ वह रहते थे वहाँ यदि कोई बीमार हो जाए तो वे उसके घर जाते थे, उसकी सेवा करते थे, संघ में यही क्रम अभी तक चला आ रहा है। यदि हमारा व्यवहार आत्मीयतापूर्ण हो तो पराये भी अपने हो जाते हैं। अंत में है विस्तार- ये तीन बातें होने के बाद भी यदि संघ के स्वयंसेवकों ने कार्य विस्तार के लिए समय और समर्पण न दिया होता तो तब का बीज आज का वटवृक्ष न बनता। यह सब कठिन तो है पर अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि संस्कार एक दिन में नहीं आता, व्यवहार की मधुरता भी एक दिन में नहीं आती। जब संघ की शाखा में जाकर धूल-मिट्टी में खेलेंगे, तब आप अपने साथी स्वयंसेवकों के साथ में घुलेंगे-मिलेंगे। छोटे बड़े का भाव अपने आप समाप्त हो जाता है। संघ की शाखा में नित्य अभ्यास से सामाजिक समरसता का भाव बनता है। संघ ने प्रारम्भ से दैनिक शाखा को बहुत महत्व दिया है। कोई बड़ा व्यक्ति भी है तो उसे भी शाखा में जाना चाहिए, क्योंकि संस्कार तो पता नहीं कब धूमिल हो जाएं, इसलिए नित्य स्मरण होना चाहिए। आज समाज जीवन का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र है जिसमें संघ ने प्रवेश नहीं किया है। जहां ध्यान में आया कि इस क्षेत्र में कमी है, इसमें कुछ-कुछ संघ के स्वयंसेवकों को हाथ लगाना चाहिए। इसी तरह छोटे-छोटे अनेक संगठन अखिल भारतीय बन गए। उदाहरणस्वरूप विद्याथियों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, मजदूरों के लिए भारतीय मजदूर संघ। सेवा, चिकित्सा, कला जैसे समाज जीवन के 35 से अधिक क्षेत्रों में संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र को एक नयी दिशा दी है।

जयपुर में रहने के दौरान मैं संघ के तपस्वी स्वयंसेवक ब्रह्मदेव जी के सानिध्य में रहा। वह प्रान्त प्रचारक और बाद में राजस्थान और उत्तर क्षेत्र दोनों के क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निर्वहन किया। वह एक समर्पित और प्रेरक व्यक्ति थे। ऐसे ही दूसरे स्वयंसेवक सोन सिंह जी थे। कठोर व्रती सोन सिंह जी साथी कार्यकर्ताओं के सुख-दुख की चिंता करते थे। ऐसे अनेक समर्पित और निश्छल कार्यकर्ताओं के कर्तव्यबोध और प्रेरणा से संघ का स्वरूप बना है। एक समय था जब संघ के प्रचारक और कार्यकर्ताओं को लोग अपने घर में नहीं आने देते थे। लेकिन स्वयंसेवकों के समर्पण और निष्ठा के चलते धीरे-धीरे लोगों का मन बदला। ऐसे सहनशील और समर्पित कार्यकर्ताओं के अनेक किस्से हैं। इसी क्रम में इमरजेंसी में, अंडरग्राउंड होने पर संघ के स्वयंसेवकों को अनेक परिवारों ने शरण दी, उन्होंने कोई चिंता नहीं की कि क्या होगा? उन्हें संघ के लोगों पर विश्वास था कि अच्छा काम कर रहे हैं इसलिए मन से सहयोग दिया। इस तरह जैसे-जैसे संघ बढ़ता गया लोगों ने संघ के काम को देखा और स्वीकार किया। यह स्वाभाविक है। संघ का सूत्र है अगर संघ ही सब कुछ करेगा तो समाज क्या करेगा? तो समाज को भी जागृत होना होगा। समाज भी काम करने के लिए आगे आए। संघ के स्वयंसेवक उसमें भरपूर सहयोग और सामंजस्य का कार्य पिछले सौ वर्षों से अनवरत कर रहे हैं। इस देश के विचार में, भूमि में, हिन्दू-हिन्दुत्व है। लेकिन लेफ्ट विचारधारा इसे नहीं मानती। वह तो धर्म को अफीम मानते हैं। एक उदाहरण देता हूं, डॉ. एम.जी. बोकरे नागपुर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे और वह मार्क्सिस्ट पार्टी के ट्रेनिंग कैंप के इंचार्ज थे। धीरे-धीरे वह संपर्क में आये, व्यक्ति ईमानदार थे, मैं भी उनके घर पर गया हूं। बहुत अध्ययनशील थे, अंत में उनके ध्यान में आया था कि मैं भारतीय विचार के आधार पर विचार ही नहीं कर रहा, तब उनका विचार बदला। बाद में वह बॉम्बे स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय संयोजक बने और उनकी पुस्तक आयी हिन्दू इकोनॉमिक्स। यानि संघ कार्यों के घोर विरोधी भी बदले हैं। इससे स्पष्ट है कि यदि हम अपनी बात और व्यवहार को सही रखते हैं तो विरोधी भी बदलते हैं। इसी तरह समाज में जिन-जिन क्षेत्रों में आवश्यकता रही, चाहे वह पर्यावरण हो, कुटुंब प्रबोधन हो या फिर समरसता का विषय हो, सब क्षेत्रों में स्वयंसेवक राष्ट्र के लिए समर्पित रहे हैं। संघ देश भर में संस्कारों और कुटुंब प्रबोधन के माध्यम से बहुत अच्छा काम कर रहा है। वहीं शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने पर संघ पंच परिवर्तन के माध्यम से समाज जीवन में स्व चेतना के प्रवाह के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है। संघ को अहंकार नहीं है कि हम सब कुछ करते हैं, हम कौन होते है करने वाले? समाज है करने वाला यही संघ का विचार है। विवेकानंद जी कहा करते थे, जब लोग कहते हैं कि वे समाज परिवर्तन का काम कर रहे हैं तो वह कहते हैं तुम कौन होते हो परिवर्तन करने वाले? अरे.. समाज तुमको परिवर्तित करेगा। तुम कैसे समाज का परिवर्तन करोगे? संघ के स्वयंसेवकों में यह भाव रहता है कि मन में जरा भी अहंकार न आये। मैंने देशभर में अनेक प्रांतों की यात्रा की, इस तरह अनुभव हुआ कि दिखावा ऊपर-ऊपर का है, अंदर से टटोल कर देखो तो सब एक ही हैं, सभी माता-पिता की सेवा करना चाहते हैं, सब गुरु का आशीर्वाद लेना चाहते हैं और शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों को संस्कारित करना चाहते हैं। अनेक कार्यक्रमों में हमने देखा कि दूसरे प्रांतों के लोग भी बैठे हैं, परन्तु यह कभी अनुभव नहीं हुआ कि कहां अंतर है। अंतर तो है ही नहीं कहीं, अंतर तो हमारा बनाया हुआ है। यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। संघ के सम्पूर्ण चिंतन और व्यवहार में जैसी आवश्यकता है, उसको करते हैं, ढिंढोरा नहीं पीटते। संघ इसी कर्तव्यपथ पर निरंतरता से गतिशील है।

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