राजस्थानी संस्कृति, परंपराओं और समरसता की छटा बिखेरता पुष्कर मेला आज से शुरू

राजस्थानी संस्कृति, परंपराओं और समरसता की छटा बिखेरता पुष्कर मेला आज से शुरू

राजस्थानी संस्कृति, परंपराओं और समरसता की छटा बिखेरता पुष्कर मेला आज से शुरूराजस्थानी संस्कृति, परंपराओं और समरसता की छटा बिखेरता पुष्कर मेला आज से शुरू

राजस्थानी संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक समरसता की छटा बिखेरता पुष्कर मेला आज से शुरू हो गया। पुष्कर का नाम आते ही मन मस्तिष्क में सबसे पहले सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा के मंदिर का ध्यान आता है। यहां भगवान ब्रह्मा का संसार में इकलौता मंदिर है। मंदिर के पास ही पुष्कर सरोवर है। किंवदंती है कि जब भगवान ब्रह्मा के दिव्य हाथों (कर) से कमल (पुष्प) की पंखुड़ी अरावली पहाड़ियों के बीच में गिरी, तो रेगिस्तानी भूमि में एक सरोवर बन गया। तब से ही पुष्कर हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र है। हिन्दू पुष्कर को पवित्र और प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक मानते हैं। पद्म पुराण में इस शहर का उल्लेख मिलता है। यहॉं सैकड़ों मंदिर हैं। पुष्कर सरोवर के चारों ओर कुल 52 घाट हैं, जिन्हें अलग-अलग राजपरिवारों, पंडितों और समाजों ने बनवाया था। अजमेर से पुष्कर की दूरी लगभग 11 किलोमीटर है।

पुष्कर मेले की शुरुआत प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन होती है, इस वर्ष पूर्णिमा आज यानि 9 नवंबर को है। यह मेला 100 वर्षों से भी अधिक पुराना है। प्रारंभ में कार्तिक पूर्णिमा के दिन आसपास के ग्रामीण इकट्ठे होते थे और धार्मिक अनुष्ठान, लोक संगीत और नृत्य आदि करके कार्तिक उत्सव मनाते थे। तब रेगिस्तान में आवागमन का मुख्य साधन ऊंट और ऊंटगाड़े थे। धीरे धीरे मेले में ऊंटों के सौदे होने लगे और लोग अन्य मवेशियों को भी यहॉं लाने लगे। इस प्रकार कार्तिक पूर्णिमा मनाने के लिए शुरू हुआ मेला पुष्कर महोत्सव बन गया और ऊंटों के मेले के रूप में जाना जाने लगा। इसे दुनिया का सबसे बड़ा ऊंट मेला माना जाता है। मेले में 50 हजार से अधिक ऊंट आते हैं, जो धूल का एक विशाल बादल बनाते हैं। इन ऊंटों को पालने वालों को रीका या राईका कहा जाता है। यह मेला राईका जनजाति के लिए एक वरदान है, जो पुष्कर में ऊंटों के लगभग एकमात्र विक्रेता हैं। इनका जीवन ऊंट पालन पर निर्भर रहता है। ऐसा माना जाता है कि राईका जनजाति को ऊंटों की देखभाल का काम भगवान शिव ने स्वयं सौंपा था। राईका अपने ऊंटों को अलग-अलग रंगों से रंगते हैं। उन्हें कपड़ों और अन्य सामानों से सजाते हैं। गले में घंटियां लटकाते हैं। पुष्कर महोत्सव में ऊंटों की कई तरह की प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं। ऊंटों की परेड, दौड़ और सौंदर्य प्रतियोगिताएं होती हैं। इस दौरान मवेशियों का व्यापार भी किया जाता है। मेले में जनजाति समाज की सजी-धजी महिलाएं और रंग-बिरंगी पगड़ी पहने व मूंछों पर ताव देते पुरुष भी किसी आकर्षण से कम नहीं होते। मेले में पहलवानों की कुश्ती देखने लायक होती है। इसके अलावा भारतीय और विदेशी महिलाओं की रस्सा खींच प्रतियोगिता भी कम मजेदार नहीं होती।

पुष्कर मेला मैदान में जगह-जगह अस्थायी तंबू लगाए जाते हैं, जिनमें देशी-विदेशी पयर्टक ठहरते हैं और रेतीले धोरों पर चांदनी रात का आनंद लेते हैं। यहां आने वाले पर्यटक ऊंटों की सवारी भी करते हैं। हल्की सर्दी के चलते जगह-जगह धोरों पर आग जलाकर नर्तकियों का नृत्य मन लुभावन होता है। यह सुंदरता और विविधता का बेजोड़ संगम है। इसके अलावा सपेरों और कालबेलियों के करतब देखकर पर्यटक आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यहां राख में लिपटे सैकड़ों साधु भी मिल जाएंगे, जो दिव्य समाधि में लीन रहते हैं।

मेले में किसान, पशुपालक और डेयरी उद्योग से जुड़े लोग मवेशियों और ऊंटों को बेचने और खरीदने के लिए आते हैं। बिक्री और खरीद के अलावा, लोगों को ऊंटों की एक प्रदर्शनी भी देखने को मिलती है। इस दौरान भारत के कई फ्यूजन बैंड प्रदर्शन करते हैं और मेले का आकर्षण होते हैं। कुछ मजेदार और बेहद मनोरंजक प्रतियोगिताएं और कार्यक्रम भी इस आयोजन का हिस्सा होते हैं, जिनमें लोग भाग लेते हैं और पुरस्कार जीतते हैं। मेले में कैंपिंग या हॉट एयर बलून राडड भी होती है, जिससे मेले का विहंगम दृश्य नजर आता है। इसके अलावा डेजर्ट सफारी भी विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद रहती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि पुष्कर मेले के रूप में यहां सदियों पुरानी संस्कृति व परंपराओं की झलक मिलती है और देश विदेश से आए लाखों लोगों की उपस्थिति सामाजिक समरसता की अनुपम छटा बिखेरती दिखती है।

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