लेफ्ट गैंग से प्रभावित जस्टिस चन्द्रचूड़ के फैसले
अजय सेतिया
लेफ्ट गैंग से प्रभावित जस्टिस चन्द्रचूड़ के फैसले
10 नवंबर को रिटायर हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का अंतिम निर्णय सबसे अधिक विवादास्पद रहा है। डी. वाई. चन्द्रचूड़ के जस्टिस के नाते किसी बेंच का सदस्य रहते हुए या चीफ जस्टिस के नाते बेंच का सदस्य रहते हुए कई निर्णय जनभावनाओं के अनुरूप रहे, जिनमें रामजन्मभूमि मन्दिर, निजता का अधिकार और सांसदों, विधायकों के विशेषाधिकार को खारिज करते हुए उनकी ओर से संसद के भीतर या बाहर किए गए भ्रष्टाचार को अपराध मानने वाले निर्णय प्रमुख हैं। पीवी नरसिम्हा राव की सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों ने रिश्वत ली थी, लेकिन पी.वी. नरसिम्हा राव और चारों सांसद इसलिए बरी हो गए थे, क्योंकि सांसदों को अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के अंतर्गत विशेषाधिकार थे। डी. वाई. चन्द्रचूड़ की रहनुमाई वाली बेंच ने मार्च 2024 में अपने निर्णय में कहा कि इन अनुच्छेदों में रिश्वतखोरी के लिए संसदीय छूट प्राप्त नहीं है। एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मिले आरक्षण में राज्य सरकारों को क्रीमी लेयर बनाने का अधिकार देने का निर्णय भी काफी सराहनीय रहा, लेकिन 2024 का चुनावी बांड और 2018 का समलैंगिकता के अधिकार पर उनके निर्णय विवादास्पद रहे। चुनावी बांड को पारदर्शी बनाने के लिए संशोधन करने को कहा जा सकता था, लेकिन चुनावी बांड को रद्द करके सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में काले धन का रास्ता फिर से खोल दिया। गणेश उत्सव के समय अपने घर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न्योतने के बाद चीफ जस्टिस मोदी विरोधी लेफ्ट लिबरल गैंग के निशाने पर आ गए थे। उन्होंने अभियान चला दिया कि न्यायपालिका की निष्पक्षता खतरे में है। विरोधियों के निशाने पर आए चीफ जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड अपनी छवि को लेकर इतने चिंतित हो गए कि उनके आखिरी तीन निर्णय भय और मानसिक दबाव से प्रभावित लगते हैं। तीनों निर्णय उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति को प्रभावित करने वाले एकतरफा निर्णय हैं, जिससे समाज में चिंता व्याप्त हुई और चीफ जस्टिस की जमकर आलोचना भी हुई। पहला निर्णय उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट के मदरसों के एक्ट को खारिज करने के निर्णय को पलटना है, दूसरा अवैध निर्माणों पर बुलडोजर चलाने पर रोक लगाना है और तीसरा निर्णय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को लेकर दिया गया है। इन तीनों ही निर्णयों पर इंडी एलायंस के घटक दलों ने खुशी दर्शायी है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को लेकर आए निर्णय ने समाज को सबसे अधिक प्रभावित किया है, क्योंकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी केंद्र सरकार के अनुदान से चलती है, केंद्र सरकार ने 2019 से 2023 के बीच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को 5467 करोड़ रुपए का अनुदान दिया है। यानि केंद्र सरकार हर वर्ष 1100 करोड़ रुपए देती है। लेकिन वह मुस्लिम संस्थान है, जहां मुस्लिमों को आरक्षण हासिल है, लेकिन एससी एसटी, ओबीसी को नहीं। डी.वाई. चन्द्रचूड उस सात जजों की बेंच के प्रमुख थे, जिसने संविधान के अनुच्छेद 30 का हवाला देकर कहा कि अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान चलाने का अधिकार है। अनुच्छेद 30 कहता है कि सभी अल्पसंख्यक चाहे वे भाषाई अल्पसंख्यक हों या मजहबी, उन्हें अपनी पसंद का शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है। लेकिन उसमें कुछ शर्तें भी हैं, जिनमें से कुछ शर्तें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी पूरी नहीं करती, अब इसका निर्णय तीन सदस्यीय बेंच करेगी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वे शर्तें पूरी करती है या नहीं। प्रश्न यह है कि जब किसी संस्थान का सारा खर्चा केंद्र सरकार वहन करती हो, तो कोई संस्थान अल्पसंख्यक कैसे हो सकता है। अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को संस्थान खोलने का अधिकार देता है, लेकिन उसका खर्चा भी उस अल्पसंख्यक समाज को ही उठाना चाहिए। केंद्र या राज्य सरकारों के अनुदान से चलने वाले संस्थान अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? वे अपने समाज के लिए सीटें आरक्षित करने और संविधान में वर्णित आरक्षण के हकदार जातियों को आरक्षण देने से मना कैसे कर सकते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर आया सुप्रीमकोर्ट का निर्णय चिंताजनक है। यह निर्णय ही तीन की बेंच के निर्णय का आधार बनेगा।
जजों की सात सदस्यीय बेंच के तीन जज निर्णय के पक्ष में थे और तीन विरुद्ध थे। चीफ जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड ने निर्णय किया कि अलीगढ़ मुस्लिम विवि अल्पसंख्यक संस्थान है। सर सैयद ने उसी समय यह कहा था कि वह कोई मदरसा नहीं बनाने जा रहे, उन्होंने मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार में नौकरियां दिलाने के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, ताकि वे अंग्रेजी की आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर सकें। ब्रिटिश सरकार ने कानून बना कर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को मान्यता दी। इसलिए यूनिवर्सिटी बनाने के लिए पटियाला के महाराजा महेंद्र सिंह साहब बहादुर ने 58,000 रुपये का योगदान दिया। बनारस के राजा शंभू नारायण ने 60,000 रुपये का दान दिया। फिर भी यदि सिर्फ मुसलमानों के लिए बनाया गया संस्थान होता, तो संस्थान के भीतर मुस्लिम सिद्धांतों के विरुद्ध महावीर जैन का स्तूप और स्तूप के चारों ओर आदिनाथ की 23 प्रतिमाएं क्यों होतीं? सुनहरे पत्थर से बने स्तम्भ में कंकरीट की सात देव प्रतिमाएं क्यों होतीं? शेष शैया पर लेटे भगवान विष्णु और कंकरीट के सूर्यदेव क्यों होते?
पर अगर ब्रिटिश क़ानून के अनुसार, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थान थी, तो 1920 के अधिनियम की धारा 13 के अनुसार गवर्नर जनरल को लॉर्ड रेक्टर नियुक्त क्यों किया गया था? स्वाधीनता के बाद जब 1951 में नया संविधान अपनाया गया तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम, 1951 में संशोधन किया गया। 1920 के अधिनियम की धारा 8 में संशोधन करके अनिवार्य मजहबी शिक्षा को हटा दिया गया। यह बदलाव नए संविधान के अनुच्छेद 28 और 29 के अनुरूप था। इसके अलावा धारा 13 में संशोधन करके लॉर्ड रेक्टर को विजिटर कर दिया गया। 1965 में फिर से संशोधन करके 1920 के एक्ट की धारा 23 के सब सेक्शन 2 और 3 को हटा दिया गया, जिससे यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त हो गया। अनुच्छेद 28, 29, 34 और 38 में भी संशोधन करके एग्जीक्यूटिव काउंसिल की शक्तियां बढ़ा दी गईं। इन संशोधनों को 1967 में अजीज बाशा केस में पहले हाईकोर्ट में और बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में तर्क दिया कि यूनिवर्सिटी की स्थापना मुसलमानों ने की है और अनुच्छेद 30 के अंतर्गत उन्हें इसके प्रबंधन का अधिकार है। जबकि 1951 और 1965 के संशोधन इन अधिकारों को छीनते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के तर्कों से असहमति जतायी और कहा कि यूनिवर्सिटी का निर्माण सेंट्रल एक्ट के अंतर्गत हुआ है। यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
1965 में लाल बहादुर शास्त्री के समय तार्किक आधार पर यूनिवर्सिटी से अल्पसंख्यक होने का दर्जा समाप्त किया गया था, लेकिन इंदिरा गांधी ने मुसलमानों के पक्ष में संसद का दुरुपयोग करते हुए 1981 में एएमयू एक्ट में संशोधन करके यूनिवर्सिटी को फिर से अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया था। 2005 में यूनिवर्सिटी ने मुस्लिम छात्रों के लिए आरक्षण नीति बनाई, तो मामला फिर हाईकोर्ट में गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में 1981 के संशोधन को रद्द कर दिया और फिर कहा कि यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। 2005 में सोनिया गांधी की यूपीए सरकार थी, जिसने इंदिरा गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए हाईकोर्ट के निर्णय का विरोध किया और सुप्रीमकोर्ट में याचिका दाखिल की। इस निर्णय के विरुद्ध कई अन्य रिव्यू पेटीशन भी फाइल की गई थीं, लेकिन 2016 में मोदी सरकार ने केंद्र की याचिका वापस ले ली। कई अन्य याचिकाएं भी थीं, इसलिए 12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने हाईकोर्ट के निर्णय के विरुद्ध दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह मामला सात सदस्यीय बेंच को विचार के लिए भेज दिया था। 2019 से सात जजों की बेंच इस पर कुंडली मार कर बैठी थी, लेकिन अपने रिटायरमेंट से दो दिन पहले चीफ जस्टिस डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने जल्दबाजी में मोदी सरकार की राय के विरुद्ध निर्णय दिया। जबकि सात सदसीय बेंच के एक जज जस्टिस दत्ता ने जल्दबाजी में लिए गए इस निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकती। अब एक बात तो समझ नहीं आती कि जब सात सदस्यीय बेंच ने बहुमत के आधार पर निर्णय दे ही दिया है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान है, तो उसे तीन सदस्यीय बेंच को क्यों भेजा गया है। सुप्रीम कोर्ट जानबूझकर हिन्दुओं और मुसलमानों में तनाव पैदा करने का प्रयास करती रहती है। इससे पहले सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू मान्यताओं के विरुद्ध निर्णय दिया था। उस बेंच में भी डी. वाई. चन्द्रचूड़ सदस्य थे।