राष्ट्र चेतना का हुंकार : जनजातीय गौरव दिवस
प्रशांत पोळ
राष्ट्र चेतना का हुंकार : जनजातीय गौरव दिवस
आज बडा सुखद संयोग बन रहा है कि गुरु नानक देव जी की 555वीं जयंती, प्रकाश पर्व के दिन ही, राष्ट्रीय जनचेतना के प्रतीक, बिरसा मुंडा जी की 149वीं जयंती है। हम इसे ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मना रहे हैं। आज से उनका ‘सार्ध शती वर्ष’ प्रारंभ हो रहा है।
बिरसा मुंडा अद्भुत व्यक्तित्व हैं। वर्ष 1875 में जन्मे बिरसा जी को कुल जमा पच्चीस वर्ष का ही छोटा सा जीवन मिला। किन्तु इस अल्पकालीन जीवन में उन्होंने जो कर दिखाया, वह अतुलनीय हैं। अंग्रेज़ उनके नाम से कांपते थे। थर्राते थे। वनवासी समुदाय, बिरसा मुंडा जी को प्रति ईश्वर मानने लगा था।
बिरसा मुंडा जी के पिताजी जागरूक और समझदार थे। बिरसा जी की होशियारी देखकर उन्होंने उनका प्रवेश, अंग्रेजी पढ़ाने वाली, रांची की, ‘जर्मन मिशनरी स्कूल’ में करवा दिया। इस स्कूल में प्रवेश पाने के लिए ईसाई बनना आवश्यक होता था। इसलिए बिरसा जी को ईसाई बनना पड़ा। उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया।
किन्तु स्कूल में पढ़ने के साथ ही, बिरसा जी को समाज में चल रहे, अंग्रेजों के दमनकारी काम भी दिख रहे थे। अभी सारा देश 1857 के क्रांति युद्ध से उबर ही रहा था। अंग्रेजों का पाशविक दमनचक्र सारे देश में चल रहा था। यह सब देखकर बिरसा जी ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वे पुनः हिन्दू बने और अपने वनवासी भाइयों को, इन ईसाई मिशनरियों की कन्वर्जन की कुटिल चालों के विरोध में जागृत करने लगे।
1894 में, छोटा नागपूर क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय बिरसा मुंडा जी की आयु थी मात्र 19 वर्ष। लेकिन उन्होंने अपने वनवासी भाइयों की अत्यंत समर्पित भाव से सेवा की। इस दौरान वे अंग्रेजों के शोषण के विरोध में जनमत जागृत करने लगे।
उन्हें, अंग्रेजों द्वारा चलाया हुआ कन्वर्जन का कुचक्र दिख रहा था। इसलिए, वनवासियों को हिन्दू बने रहने के लिए, उन्होंने एक जबरदस्त अभियान छेड़ा। इसी बीच पुराने, अर्थात वर्ष 1882 में पारित कानून के अंतर्गत, अंग्रेजों ने झारखंड के वनवासियों की जमीन और उनके जंगल में रहने का अधिकार छीनना प्रारंभ किया। इसके विरोध में बिरसा मुंडा जी ने एक अत्यंत प्रभावी आंदोलन चलाया, ‘अबुवा दिशुम – अबुवा राज’ (हमारा देश – हमारा राज)। यह अंग्रेजों के विरोध में खुली लड़ाई थी, उलगुलान थी। अंग्रेज़ पराभूत होते रहे, हारते रहे। वर्ष 1897 से 1900 के बीच, रांची और आसपास के वनांचल क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन उखड़ चुका था। यह सभी अर्थों में एक ऐतिहासिक और अद्भुत घटना थी। 1757 के प्लासी युद्ध के बाद से, (और सौ वर्षों के पश्चात, 1857 के क्रांति युद्ध के बाद), यह माना जा रहा था, कि अंग्रेज अजेय हैं। उन्हें कोई नहीं हरा सकता। उनका विरोध करने का कोई साहस भी नहीं कर सकता। किन्तु ‘धरती आबा बिरसा जी’ के नेतृत्व में, भोले भाले जनजातीय समुदाय ने यह झुठला दिया। अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता को सीधे ललकारा और कुछ दिन नहीं, तो लगभग ३ वर्ष, रांची और आसपास के क्षेत्र से अंग्रेजी शासन – प्रशासन को उखाड़ फेंका। वहां जनजातीय समुदाय का शासन प्रस्थापित किया।
किन्तु जैसा होता आया है, गद्दारी के कारण, 500 रुपयों के धनराशि के लालच में, उनके अपने ही व्यक्ति ने, उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी. जनवरी 1900 में रांची जिले के उलीहातु के पास, डोमबाड़ी पहाड़ी पर, बिरसा मुंडा जब वनवासी साथियों को संबोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेजी फौज ने उन्हें घेर लिया। बिरसा मुंडा के साथियों और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई। अनेक वनवासी भाई – बहन उसमे मारे गए। अंततः ३ फरवरी १९०० को, चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा जी गिरफ्तार हुए।
अंग्रेजों ने जेल के अंदर बंद बिरसा मुंडा पर विष प्रयोग किया, जिसके कारण, 9 जून 1900 को रांची के जेल में, वनवासियों के प्यारे, ‘धरती आबा’, बिरसा मुंडा जी ने अंतिम सांस ली।
आज मात्र जनजातीय समुदाय ही नहीं, तो सारा देश, उनके धरती आबा, बिरसा मुंडा जी का जन्मदिवस, उनके सार्ध शताब्दी वर्ष के प्रारंभ के रूप में मना रहा है।
जनजातीय समुदाय की, हिन्दू अस्मिता की आवाज को बुलंद करने वाले, उनको कन्वर्जन के दुष्चक्र से सावधान करने वाले और राष्ट्र के लिए अपने प्राण देने वाले बिरसा मुंडा जी का स्मरण करना, यानि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को बुलंद करना है।