भारत के स्व का प्रतीक ‘मत्स्य उत्सव’

भारत के स्व का प्रतीक 'मत्स्य उत्सव'

डॉ. अभिमन्यु

भारत के स्व का प्रतीक 'मत्स्य उत्सव'भारत के स्व का प्रतीक ‘मत्स्य उत्सव’

हाल ही में अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे अलवर के भानगढ़ में 25 से 27 नवंबर तक तीन दिवसीय भव्य मत्स्य उत्सव का आयोजन हुआ। यह उत्सव अलवर के स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित किया जाता है। यह अलवर का 250वां स्थापना दिवस था। आधुनिक अलवर की स्थापना 1775 में प्रतापसिंह द्वारा की गयी थी।

मत्स्य उत्सव की शुरुआत वर्ष 1995 में तत्कालीन जिला कलेक्टर मनोहर कांत के नेतृत्व में की गई थी। उस समय सात दिवस तक इसका आयोजन किया गया था। इसके पश्चात सन् 2003 में इस उत्सव को और भव्य रूप दिया गया, जिसमें 25 देशों के राजदूत शामिल हुए थे।

अब प्रश्न उठता है कि इस उत्सव में ‘मत्स्य’ शब्द का क्या सम्बन्ध है? इसका उत्तर हमें अपने इतिहास में मिल जाता है। उस समय इस प्रदेश का नाम मत्स्य देश था। यह नामकरण भगवान विष्णु के मत्स्यावतार से सम्बंधित है। एक मान्यता के अनुसार, एक बार राक्षस वेदों को चुराकर पाताल लोक ले गए, तब भगवान विष्णु मत्स्य का अवतार लेकर समुद्र मार्ग से पाताल लोक पहुंचे तथा वेदों को लाकर सबसे पहले पृथ्वी के इस स्थान पर रखा, तभी से इस क्षेत्र को मत्स्य क्षेत्र कहा जाता है। इस क्षेत्र के राजा सैकड़ों हजारों वर्षों तक अपने राज्य चिन्ह में मत्स्य को दर्शाते थे। महाभारत काल में भी मत्स्य नरेश की पताका को मत्स्य के चिन्ह से युक्त बताया गया है। पुरातत्वविदों ने भी इस क्षेत्र से मछली पकड़ने के आंकड़े तथा पत्थर और तांबे के कई उपकरण बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त किए हैं, जिनसे अनुमान होता है कि उस काल में यहॉं बड़ी संख्या में मछलियां उपलब्ध थीं, इस कारण भी इस क्षेत्र को मत्स्य क्षेत्र कहा जाता था। किसी समय मत्स्य प्रदेश में आज के हरियाणा और पंजाब राज्यों का कुछ भाग, ढूंढार, शेखावाटी, तोरावटी, अलवर, भरतपुर, धौलपुर तथा करौली आदि का क्षेत्र शामिल था। कभी यह मत्स्य जनपद का भी हिस्सा रहा था, जिसकी राजधानी विराटनगर थी।

मत्स्य उत्सव पर्यटन विभाग, राजस्थान सरकार के द्वारा आयोजित किया जाता है। इस उत्सव की रचना इस प्रकार से की गई है कि यह एक समग्र सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करता है। इस उत्सव के दौरान भानगढ़ में पारंपरिक प्रदर्शन जैसे कच्ची घोड़ी, चकरी, सहरिया तथा गैर जैसे स्थानीय लोकनृत्यों ने, जीवंत संगीत के साथ उपस्थित लोगों को राजस्थानी संस्कृति से रूबरू करवाया। इसी क्रम में सिलीसेढ़ झील पर पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और कश्मीर से आए कलाकारों ने भांगड़ा, लावणी, सिद्धि धमाल और हरियाणवी नृत्यों की प्रस्तुति दी। साथ ही भगवान जगन्नाथ मंदिर में संध्या आरती का आयोजन किया गया, जिसमें सैकड़ों भक्तों ने दीप जलाकर भगवान जगन्नाथ की पूजा अर्चना की।

इस उत्सव में स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए अलवर के पुरजन विहार और कंपनी गार्डन में सबके लिए योग (योगा फॉर ऑल ) सत्र का आयोजन किया गया। इसके अलावा इकोटूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए साइकिल रैली आयोजित की गई, जिसके माध्यम से अलवर की प्राकृतिक सुंदरता को दिखाया गया।

‘अतुल्य अलवर’ की थीम के अंतर्गत मेहंदी, रंगोली और पेंटिंग की कार्यशाला आयोजित की गई, जिसके माध्यम से पारंपरिक कला और शिल्प का प्रदर्शन किया गया। अशोक सर्किल पर फोटोग्राफी प्रदर्शनी आयोजित की गई, जिसमें अलवर के परिदृश्य और वास्तुकला की सुंदरता के दर्शन हुए। पूजन विहार में ‘फ्लोरल शो ‘ के अंतर्गत फूलों का भव्य प्रदर्शन किया गया।

मत्स्य उत्सव का उद्देश्य अलवर की अद्वितीय सुंदरता का लोगों को दर्शन कराना, अलवर की सांस्कृतिक विरासत एवं वन्य जीव पर्यटन से उन्हें जोड़ना तथा लोक संस्कृति एवं लोक परंपराओं के बारे में लोगों के मध्य सजगता पैदा करना है।

यदि हम मत्स्य उत्सव जैसे आयोजनों से होने वाले सकारात्मक परिणामों की बात करें तो इनसे स्थानीय पर्यटन के साथ इको टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है, स्थानीय उद्यमियों एवं कारीगरों को समर्थन मिलता है, सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण होता है तथा भविष्य की पीढ़ी अपनी गौरवशाली संस्कृति एवं परंपरा से साक्षात्कार कर पाती है।

लेकिन इस प्रकार के आयोजनों से जो सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक परिणाम आ सकता है, वह है भारत के ‘स्व’ का जागरण। राजस्थान सरकार एवं स्थानीय समुदाय को इन उत्सवों को मनाने में इस तरह का प्रयास करना चाहिए, जिससे भारत एवं राजस्थान की अनूठी एवं वैशिष्टय पूर्ण संस्कृति से सम्पूर्ण विश्व का साक्षात्कार हो तथा हर भारतीय के अंदर ‘स्व’के भाव को जागृत कर दे। इस प्रकार इन उत्सवों के द्वारा हम हर भारतीय के अंदर अपनी अतुलनीय एवं गुरुतापूर्ण संस्कृति के लिए अनंत ‘स्व -अभिमान’ तथा गर्व के भाव का अक्षय संचार कर सकते हैं।

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