आतंकवाद की परछाईं
बलबीर पुंज
आतंकवाद की परछाईं
गत दिनों अमृतसर स्थित श्रीहरमंदिर साहिब में शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल पर जानलेवा हमला हुआ। इसमें वे पुलिस सतर्कता से बाल-बल बच गए। उन पर गोली तब चलाई गई, जब वे 2007-17 के बीच अपनी सरकार के दौरान हुई ‘गलतियों’ के लिए ‘तनखैया’ घोषित किए जाने के बाद अकाल तख्त की ‘सजा’ पर स्वर्ण मंदिर में सेवादार की भूमिका निभा रहे थे। 68 वर्षीय हमलावर नारायण सिंह चौड़ा घोषित खालिस्तान समर्थक है और उस पर 20 से अधिक आपराधिक मामले हैं। अकाली दल दावा करता है कि वह पांथिक संगठन है और सिखों का प्रतिनिधित्व करता है। वही हमलावर चौड़ा, जो कि पाकिस्तान भी जा चुका है— सुखबीर को पंथ का ‘गद्दार’ मानता है। इस जघन्य कांड के मूल में एक विशेष मानसिकता है। कौन सिख है, कौन नहीं और कौन सच्चा सिख है, कौन ‘गद्दार’— आखिर इसका निर्णय कौन और कैसे करेगा?
बादल पर हमले के केंद्र में 150 वर्ष पुराना ‘खालिस्तानी नैरेटिव’ है। ब्रितानी 1857 विद्रोह की पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने ‘बांटो-राज करो’ की विभाजनकारी नीति अपनाई। इसके अंतर्गत उन्होंने भारतीय समाज की कमजोर कड़ियों को ढूंढकर उस पर बौद्धिक-शैक्षणिक काम किया। इसमें हिंदू-मुस्लिम विवाद सबसे सरल रहा, क्योंकि तब दोनों समुदायों में शताब्दियों का शत्रु भाव था। यही कारण है कि मुस्लिमों में अलगाव पैदा हेतु अंग्रेजों को सैयद अहमद खां आसानी से मिल भी गए, जिनके ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ ने इस्लाम के नाम पर भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान को जन्म दे दिया।
अंग्रेजों के लिए सबसे कठिन हिंदू-सिख संबंधों में कड़वाहट घोलना था— क्योंकि 15वीं शताब्दी में सिख पंथ के जन्म से ही देश का प्रत्येक हिंदू, सिख गुरुओं के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और प्रत्येक सिख अपनी गुरु परपंरा के अनुरूप स्वयं को धर्मरक्षक मानता था। तब अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे अपने एक अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ को चुना, जिसने स्वयं के सिख पंथ अपनाने का दावा किया। मैकॉलीफ का एजेंडा, सिखों में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह को भी रोकना था। इसलिए उसने भाई काहन सिंह नाभा की सहायता से ‘श्रीगुरुग्रंथ साहिब’ का अंग्रेजी में विकृत अनुवाद किया और छह खंडों में ‘द सिख रिलीजन— इट्स गुरु, स्केयर्ड राइटिंग्स और ऑथर’ पुस्तक की रचना की। फिर नाभा ने मैकॉलीफ से प्रेरणा लेकर 1897-98 में ‘हम हिंदू नहीं’ नाम से प्रकाशन निकाला। ‘खालिस्तान’ ब्रितानी षड्यंत्र का सह-उत्पाद है, जिसे सिख पंथ का एक वर्ग आत्मसात करके अपनी मूल जड़ों से कट गया है।
स्वतंत्रता के बाद मृत ‘खालिस्तान’ विचार को कांग्रेस ने 1977-78 में अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता हथियाने की लालसा में पुनर्जीवित किया। इसका उल्लेख गैर-राजनीतिक, पूर्व आईपीएस अधिकारी और भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) में वर्षों जुड़े रहने के बाद सेवानिवृत हुए गुरबख्श सिंह सिधू ने अपनी पुस्तक ‘द खालिस्तान कांस्पिरेसी’ में किया है। उनका खुलासा इसलिए भी महत्व रखता है, क्योंकि वे कांग्रेस के दिग्गज नेता दिवंगत सरदार स्वर्ण सिंह के दामाद भी हैं।
अपनी पुस्तक में गुरबख्श लिखते हैं, “…वर्ष 1977 के पंजाब (विधानसभा) चुनाव में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में अकाली दल-जनता पार्टी गठबंधन से कांग्रेस हार गई थी। इसके तुरंत बाद, मुझे पूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह और संजय गांधी द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले के समर्थन से अकाली दल के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को अस्थिर करने के प्रयासों की जानकारी मिली…।” बकौल सिधू, “…ज्ञानी जैल सिंह ने संजय गांधी को सलाह दी कि पंजाब में अकाली दल-जनता पार्टी गठबंधन सरकार को अस्थिर किया जा सकता है, यदि उनकी उदारवादी नीतियों पर… एक उपयुक्त सिख संत द्वारा लगातार हमला किया जाए।” इसके लिए तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने जरनैल सिंह भिंडरांवाले को चुना और उसे ‘संत’ कहकर संबोधित किया। इसी विभाजनकारी राजनीति का परिणाम रहा कि भिंडरांवाले ने श्रीहरमंदिर साहिब को अपना अड्डा बना लिया। चूंकि खालिस्तान की प्रकल्पना विदेशी है और इसे अधिकांश भारतीय सिखों का समर्थन नहीं मिलता, इसलिए तब भिंडरांवाले के निर्देश पर मासूस हिंदुओं के साथ देशभक्त सिखों को भी चिन्हित करके मौत के घाट उतारा जाने लगा। सैन्य अभियान ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने नृशंस हत्या कर दी। इसके तत्काल बाद दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में कांग्रेस समर्थित असामाजिक तत्वों ने हजारों निरपराध सिखों का नरसंहार किया, जिसे न्यायोचित ठहराते हुए राजीव गांधी ने कहा था, “जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी हिलती है।”
वास्तव में, सुखबीर बादल को ‘पंथ का गद्दार’ मानना उसी विदेशी असहिष्णु चिंतन से प्रेरित है, जिसमें केवल ‘मैं सच्चा, शेष झूठे’ मानने की अवधारणा है। इसी विचारगर्भ से पाकिस्तान जन्मा, जिसकी बुनियाद ही बहुलतावादी, समरस और सह-अस्तित्व आधारित भारतीय जीवनशैली का विरोध है। यही चिंतन उसे भीतर से झुलसा भी रहा है। सदियों से जारी शिया-सुन्नी संघर्ष की लपटें बीते दिनों पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत स्थित कुर्रम जा पहुंची, जहां 22 नवंबर से शुरू हुई हिंसा में अपने सहबंधुओं के हाथों 130 से अधिक मुस्लिमों की मौत हो चुकी है। वर्ष 2001-2018 के बीच मजहबी घटनाओं में 4,847 शियाओं की सुन्नी कट्टरपंथी हत्या कर चुके हैं। पाकिस्तान घोषित इस्लामी राष्ट्र है। फिर भी उसका ‘तहरीक-ए-तालिबान’ नामक आतंकी संगठन सैकड़ों हमले करके हजारों पाकिस्तानी नागरिकों-सैनिकों को इसलिए मौत के घाट उतार रहा है, क्योंकि वे उनके अनुसार खालिस शरीयत प्रेरित व्यवस्था को नहीं अपना रहे हैं। यही स्थिति अफगानिस्तान में तालिबान और आईएस-खुरासन के बीच भी है, जो इस्लाम के प्रति वफादार होते हुए भी एक-दूसरे का विरोध करते है।
पाकिस्तान-कनाडा कथित ‘खालिस्तान’ आंदोलन के सबसे बड़े पोषक बने हुए हैं। भारत और विशेषकर पंजाब की भलाई इसी में है कि वे सिख गुरुओं के तप, त्याग, परिश्रम और आपसी-भाईचारे के मार्ग पर चलें। अकाल तख्त द्वारा एक पूर्व उप-मुख्यमंत्री को ‘सजा’ देने पर प्रश्न उठता है कि जनमत से चुनी हुई सरकार की जवाबदेही किसके प्रति होनी चाहिए— मतदाता और विधायिका के या फिर किसी मजहबी संस्था के?
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)