संसद में राहुल क्यों कर रहे दादी इंदिरा का अपमान?
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
संसद में राहुल क्यों कर रहे दादी इंदिरा का अपमान?
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अपने बयानों को लेकर हमेशा चर्चा में रहते हैं। यह अलग बात है कि वे अपने किसी भी बयान में लंबे समय तक टिके नहीं रहते। उनके बयानों के एक सिरे का दूसरे से कोई संदर्भ देखने को नहीं मिलता। हिटलर के प्रचार मंत्री रहे जोसेफ़ गोयबल्स ने एक थ्योरी दी थी कि, “किसी झूठ को इतनी बार कहो कि वो सच बन जाए और सब उस पर विश्वास करने लगें।”
शायद, राहुल गांधी इसी पर चलते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन समस्या की जड़ यह है कि झूठ आखिर! कब तक बोला जाएगा? क्या ‘झूठ को सच’ साबित करने के लिए – ‘सच को झूठ’ साबित करना चाहिए? किंतु राहुल गांधी यही करते दिखाई दे रहे हैं। 14 दिसंबर 2024 को संसद में संविधान पर बहस थी। इसी दौरान भाजपा पर हमला करते हुए राहुल गांधी ने स्वातंत्र्य वीर सावरकर को अपमानित करने के लिए अपनी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक को झूठा साबित करने का प्रयास किया। राहुल गांधी की वीर सावरकर के प्रति अल्पज्ञता, कम्युनिस्ट स्क्रिप्ट पढ़ने की शैली जगजाहिर ही है। वीर सावरकर के प्रति दुराग्रह रखना। स्वतंत्रता आंदोलन के महान पूर्वजों को अपमानित करना। संभवतः यह उनके विचारों में गहरे धंसा हुआ है। उन्होंने संसद में कहा — “इंदिरा गांधी जी ने मुझे बताया कि सावरकर ने अंग्रेजों से समझौता कर लिया। सावरकर ने अंग्रेजों को चिट्ठी लिखकर माफी मांगी। गांधी जी जेल गए। नेहरू जी जेल गए।सावरकर ने माफी मांग ली।”
यद्यपि राहुल गांधी की स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी का अपमान करने वाली इन निराधार बातों का उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है। किंतु हम यहां तथ्यों के सहारे राहुल गांधी की एक-एक बात का नीर-क्षीर विश्लेषण और विवेचन करेंगे। उनके बयान के हर पहलू को तथ्यों और तर्कों की कसौटी पर रखेंगे।
वीर सावरकर और क्रांति
लोकमान्य तिलक के आदर्शों को जीने वाले वीर सावरकर का संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित रहा। उन्होंने वैचारिक क्रांति के साथ सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अपने जीवन के 28 वर्षों तक क्रूर ब्रिटिश सरकार की जेल और कालापानी की क़ैद में स्वतंत्रता की आहुति बनने वाले वीर सावरकर का स्वातंत्र्य समर में योगदान ज्ञात ही है। लंदन में इंडिया हाउस से क्रांति की हुंकार जगाने वाले सावरकर —नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाला हरदयाल, सेनापति बापट, भाई परमानंद और भगत सिंह और उनके गुरु – मार्गदर्शक करतार सिंह सराभा समेत अनगिनत क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम में वो सन् 1900 से सक्रिय थे।
उन्होंने सन् 1904 में लन्दन में अपनी पढ़ाई के दौरान ही अभिनव भारत जैसा क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया। सन् 1905 में सर्वप्रथम बंगाल विभाजन का विरोध करते हुए विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर प्रखर प्रतिशोध दर्ज करवाया। इतना ही नहीं 10 मई 1907 को उन्होंने लंदन के इण्डिया हाउस में अपने सहयोगी साथियों के साथ अँग्रेजों से आँखें तरेरते हुए — भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाने का साहसिक कार्य किया। 1857 का स्वातंत्र्य समर जैसी पुस्तक लिखी। भारत के स्वातंत्र्य समर का गौरवपूर्ण इतिहास रचा। वीर सावरकर उस कालखंड से सक्रिय थे, जब महात्मा गांधी आदि का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। गांधी जी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद आंदोलनों से जुड़े। नेहरू तो इसके कहीं बाद में आए।
वीर सावरकर और महात्मा गांधी
अब, बात राहुल गांधी की। उन्होंने जैसा कहा कि – सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी। इस संबंध में विनायक दामोदर सावरकर पर दो खंडों में शोधपूर्ण, तथ्यात्मक पुस्तक लिखने वाले विक्रम संपत के इन तथ्यों का राहुल गांधी को अवश्य ही अवलोकन करना चाहिए। वे कहते हैं कि —“सावरकर ने अपनी याचिकाओं के सम्बन्ध में स्वयं ‘मेरा आजन्म कारावास’ में लिखा है। उनकी सभी याचिकाएँ उसी फॉर्मेट में हैं जिस फॉर्मेट में उस समय राजनीतिक बन्दी याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे। छठवीं याचिका के लिए महात्मा गाँधी ने उन्हें स्वयं सलाह दी थी। इतना ही नहीं महात्मा गाँधी स्वयं सावरकर बन्धुओं की मुक्ति के लिए अपने स्तर पर प्रयासरत थे। महात्मा गाँधी ने स्वयं 26 मई 1920 और 1921 इक्कीस में अपने पत्र ‘यंग इण्डिया’ में लेख लिखा था। अपने लेख में गांधी जी सावरकर बन्धुओं के विषय में विस्तृत विवेचन के साथ अँग्रेज सरकार से उन्हें छोड़ने के लिए कहते हैं।”
यानी राहुल गांधी के आरोप औंधे मुंह गिर रहे हैं। क्या राहुल गांधी — महात्मा गांधी से श्रेष्ठ हैं? स्पष्ट है, वीर सावरकर के प्रति आदर और सम्मान महात्मा गांधी के ह्रदय में था। वो उनकी क्रांति की धार से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने न सिर्फ़ वीर सावरकर को याचिका दाखिल करने के लिए कहा, बल्कि यंग इंडिया में लेख लिखकर सावरकर बंधुओं यानी विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई बाबा राव सावरकर की रिहाई की मांग उठाई थी। क्या राहुल गांधी ऐसे बयान देकर महात्मा गांधी का अपमान नहीं कर रहे? वहीं राहुल गांधी को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले क्रान्तिकारियों के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने जो व्यवस्था दी थी। उसी के अनुसार कोई भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी – अपनी याचिका दाखिल करता था। यह ठीक वैसा ही है—जैसे आज के पुलिस प्रशासन या न्यायालयीन व्यवस्था के लिए एक तय फॉर्मेट है। उसी अनुरूप सभी पत्राचार करते हैं।
नेहरू को जेल की सजा और तथ्य
अब बात करें पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की तो उन्हें अंग्रेजों ने कई हिस्सों में 9 बार ही जेल की सजा सुनाई थी। सबसे पहले 6 दिसंबर 1921 से 3 मार्च 1922 तक उन्हें मात्र 88 दिनों की सजा सुनाई गई। इस दौरान वो लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल से छूटे। दूसरी बार उन्हें इलाहाबाद सेंट्रल जेल और लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल में 266 दिनों के लिए 11 मई 1922 से 31 जनवरी 1923 तक) रखा गया। तीसरी बार 22 सितंबर 1923 में उन्हें नाभा जेल में रखा गया। जहाँ से वो मात्र 12 दिनों में ही छूट गए। जबकि नेहरू जी की यह सज़ा 2 वर्ष की थी।
इस संदर्भ में इलाहाबाद की नाभा जेल में बंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के सन्तानम की पुस्तक ‘Handcuffed with Jawaharlal’ से कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। इसी पुस्तक के आधार पर वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव लिखते हैं कि — मोतीलाल नेहरू ने वायसराय से जुगाड़ लगाई और नाभा जेल में जवाहरलाल को वीआईपी सुविधा मिली… के. संतानम के शब्दों में – “पंडित मोतीलाल नेहरू बहुत चिंतित थे। उन्होंने हमारे ठिकाने के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए पंजाब के बड़े अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों से संपर्क किया। जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होने सीधे वायसरॉय से संपर्क किया। इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन दिन लग गए। लेकिन इसके बाद नाभा जेल के अधिकारियों का व्यवहार पूरी तरह से बदल गया। हमारे नहाने का इंतज़ाम हो गया और हमारे कपड़े भी दे दिये गये। यहां तक कि जेल के बाहर से हमारे लिए खाने और फलों का प्रबन्ध भी हो गया।”
बेटे जवाहर के लिए मोतीलाल नेहरू ने स्वीकार की अंग्रेजों की शर्तें
प्रखर श्रीवास्तव आगे लिखते हैं, मोतीलाल नेहरू अपने बेटे को लेकर इतने परेशान हुए कि उन्होंने वायसराय को यह भरोसा तक दे दिया कि वो नाभा में किसी राजनैतिक आंदोलन में हिस्सा नहीं लेंगे, जबकि वो कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे, लेकिन उन्हें किसी आंदोलन से नहीं बल्कि सिर्फ अपने बेटे से मतलब था। कितने आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोतीलाल नेहरू अपने बेटे जवाहर से मिलने के लिए अंग्रेज सरकार की हर शर्त मान रहे थे। मोतीलाल नेहरू 25 सितंबर को अंबाला कैंट पहुंचे और यहां से उन्होंने सीधे वायसराय को तार भेजा। इसमें उन्होंने लिखा कि — “मैंने नाभा के प्रशासक को यह भरोसा दिया था कि मैं वहां किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लूंगा। मेरा नाभा आने का इकलौता उद्देश्य है कि मैं अपने बेटे जवाहरलाल से मुलाकात करना चाहता हूं और उसकी अदालत में पैरवी करना चाहता हूं। लेकिन मेरे गारंटी देने के बाद भी मुझे धारा 144 के अंतर्गत नाभा छोड़ने का आदेश सुना दिया गया। इन हालात में मुझे संदेह है कि मेरे बेटे को न्याय मिलेगा और जेल में उसके साथ अच्छा व्यवहार होगा। मैं अंबाला कैंट स्टेशन पर आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।”
इसी सन्दर्भ में प्रखर श्रीवास्तव तथ्यों की पड़ताल करते हुए बतलाते हैं कि — “मोतीलाल नेहरू के एक जिगरी दोस्त हरिकिशनलाल पंजाब सरकार में मंत्री थे और अंग्रेज़ों के खास थे। उनके माध्यम से मोतीलाल नेहरू पहले ही नाभा में ब्रिटिश प्रशासक जे. विल्सन जॉनसन पर दवाब बना रहे थे। इसका उल्लेख मिलता है बी.आर. नंदा की पुस्तक – द नेहरुज़ में। पद्मभूषण से सम्मानित बी आर नंदा नेहरू-गांधी परिवार के बेहद निकट थे। बी. आर. नंदा के अनुसार, जॉनसन ने मोतीलाल को लिखा था कि -“पंजाब सरकार के सम्मानित मंत्री श्री हरिकिशनलाल ने मुझे आपका वो तार भेजा है, जो आपने उन्हें 22 सितंबर 1923 को इलाहबाद से किया था। मैं निम्नलिखित शर्तों पर आपको आपके पुत्र से मिलने की अनुमति दे सकता हूं, इसके लिए आपको लिखित आश्वासन देना होगा।”
1. आप जब तक नाभा रियासत में हैं, तब तक आप यहां कोई भी राजनैतिक गतिविधि नहीं करेंगे।
2. जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात के बाद आप तत्काल नाभा रियासत से चले जाएंगे।
(जे. विल्सन जॉनसन (I.C.S.) प्रशासक, नाभा रियासत)
नेहरू की 2 वर्ष की सज़ा, 3 घंटे में कैसे हुई समाप्त?
नेहरू की रिहाई के संबंध में प्रखर श्रीवास्तव एक और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ध्यान खींचते हैं। वो लिखते हैं कि — दो वर्ष की सज़ा, तीन घंटे में कैसे समाप्त हो गई? नाभा की अदालत ने जवाहरलाल नेहरू, आचार्य गिडवानी और के. संतानम को दो वर्ष की कैद सुनाई थी। लेकिन इसके बाद वो हुआ जो आज तक भारत के अदालती इतिहास में कभी नहीं हुआ। शाम को लगभग चार बजे अदालत ने नेहरू को दो वर्ष की सज़ा सुनाई और शाम 7 बजे नाभा के अंग्रेज़ प्रशासक ने यह सज़ा रद्द कर दी। इस रहस्यमयी घटना का वर्णन नेहरू ने भी रहस्यमयी तरीके से किया है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है उसको पढ़कर लगता है कि वो शायद कुछ छुपा रहे हैं। नेहरू लिखते हैं कि – “उसी शाम को जेल सुप्रीटेंडेंट ने हमें बुलाया और हमें प्रशासक का आदेश दिखाया, जिसमें हमारी सजा स्थगित कर दी गई थी। उसने हमें एक और एक्जक्यूटिव ऑर्डर दिखाया, जिसमें लिखा था, हमे तत्काल नाभा रियासत छोड़कर चले जाएं और अगली बार बिना अनुमति के प्रवेश न करें। मैंने दोनों आदेशों की कॉपी मांगी लेकिन वो हमें नहीं दी गई। इसके बाद हमें रेलवे स्टेशन भेज दिया गया। रात में शहर के दरवाज़े बंद हो गये। हम अंबाला जाने वाली गाड़ी में बैठ गए।”
फिर नाभा नहीं गए नेहरू
आगे आचार्य गिडवानी और नेहरू के आंदोलन के संबंध में इस तथ्य की ओर भी प्रखर श्रीवास्तव ध्यानाकर्षित करते हैं। वे लिखते हैं कि— “दरअसल नाभा के इस जेल और रिहाई कांड के लगभग 6 महीने बाद 1924 में एक बार फिर वहां सिखों का विद्रोह भड़क उठा। चूंकि नेहरू ने पिछली बार इस विद्रोह का नेतृत्व किया था लिहाज़ा इस बार भी उन्हें अपना फर्ज निभाते हुए नाभा जाना चाहिए था। फिर भी नेहरू वहां नहीं गये। लेकिन महान स्वतंत्रता सेनानी आचार्य गिडवानी सीना तान कर नाभा पहुंच गए। पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें कई आंदोलनकारी मारे गये और गिडवानी गिरफ्तार कर लिए गए। अब गिडवानी किसी मोतीलाल नेहरू के बेटे तो थे नहीं, लिहाज़ा उन्हे पूरे एक वर्ष तक नाभा की उसी जेल में जमकर कष्ट दिए गए, जिसमें पिछले वर्ष वो नेहरू के साथ आराम से बंद थे। जेल में बीमार पड़ने के बाद जब गिडवानी लगभग मौत के मुंह में पहुंच गये तो उन्हें रिहा कर दिया गया।”
वीर सावरकर के प्रति इंदिरा गांधी की कृतज्ञता
अब, बात उस तथ्य की, जो राहुल गांधी ने अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सहारे सदन में कहा। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वीर सावरकर के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव रखती थीं। इसलिए वीर सावरकर के अप्रतिम योगदान को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी ने 1970 में महान क्रान्तिकारी, राष्ट्रवादी, कवि के रूप में याद करते हुए ‘डाक टिकट’ जारी किया। साथ ही उन्होंने ‘सावरकर ट्रस्ट’ को निजी कोष से ग्यारह हजार रुपए भी दिए। इसी संदर्भ में वीर सावरकर की जन्म शताब्दी के समय का यह तथ्य महत्वपूर्ण है। इंदिरा गांधी का 20 मई 1980 को लिखा पत्र उल्लेखनीय है। अपने इस पत्र के माध्यम से वो सावरकर स्मारक के सचिव बाखले को वीर सावरकर की 100वीं जयन्ती पर शुभकामना सन्देश भेजकर कहतीं कि –
“मुझे आपका 8 मई 1980 को भेजा हुआ पत्र प्राप्त हुआ है। वीर सावरकर का अँग्रेजी सरकार के विरुद्ध बहादुरी पूर्ण प्रतिकार करना भारत के स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना एक महत्वपूर्ण और अहम स्थान रखता है। मैं भारत के इस असाधारण सपूत की जन्म शताब्दी मनाने की योजना की सफलता की कामना करती हूँ।”
“Dear Shri Bakhle,
I have received your letter of the
8th May 1980.
Veer Savarkar’s daring defiance of the British Government has its own important place in the annals of our freedom movement. I wish success to the plans to celebrate the birth centenary of this remarkable son of India”
Your sincerely
Indira Gandhi
( NO.838 -PMO/80, 20 MAY 1980)
इसके अतिरिक्त इंदिरा गांधी ने सन् 1983 में भारतीय फिल्म डिवीजन को वीर सावरकर पर एक वृत्तचित्र बनाने का आदेश देते हुए कहा था कि -“आने वाली पीढ़ियों को ‘इस महान क्रांतिकारी’ के बारे में न सिर्फ पता चल सके बल्कि पीढ़ियाँ जान सकें कि वीर सावरकर ने देश की आजादी में क्या और किस तरह से योगदान दिया।”
दादी इंदिरा का अपमान कर रहे राहुल?
स्पष्ट है कि इंदिरा गांधी वीर सावरकर के प्रति अगाध श्रद्धा रखती थीं। लेकिन कांग्रेस के विचार शून्य युवराज जिन इंदिरा गांधी का नाम लेकर संसद के अंदर और बाहर वीर सावरकर को लेकर मिथ्या प्रलाप कर रहे हैं। भारत विभाजनकारी कम्युनिस्टों की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हैं। स्पष्ट है कि वो तथ्यात्मक घोटाला ही नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने पूर्वजों का अपमान भी कर रहे हैं।
सोचिए! वो इंदिरा गांधी जो 1970 , 1979- 1980 और 1983 में वीर सावरकर के महान योगदान को समाज के बीच ले जाने की बात कर रही थीं। स्मारक डाक टिकट जारी कर रही थीं। निजी कोष से 11 हजार रुपए दे रही थीं। भारतीय फिल्म विभाग को वृत्तचित्र बनाने का आदेश दे रही थीं। सावरकर ट्रस्ट के सचिव बाखले को जन्म शताब्दी मनाने के लिए पत्राचार कर रही थीं। उन सावरकर के बारे में इंदिरा गांधी को झूठा सिद्ध करके, क्या राहुल गांधी इंदिरा का ही अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या राहुल इंदिरा गाँधी से अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली हैं? क्या इंदिरा गाँधी को सत्य और असत्य का ज्ञान नहीं था, जो वे स्वातंत्र्य वीर सावरकर का सम्मान करती रहीं। उन्हें प्रेरणा स्रोत बतलाया।
राहुल या इंदिरा गांधी कौन सच्चा?
राहुल गांधी ने संसद में अपने बयान में कहा कि- सावरकर जी के बारे में उन्होंने इंदिरा जी से तब पूछा था जब वो छोटे थे। अब राहुल उस समय कितने छोटे थे, यह भी विश्लेषण किए जाने योग्य है। राहुल का जन्म 19 जून 1970 को हुआ था। इस समय वो 54 साल के हैं। इंदिरा गांधी की जब हत्या हुई तब राहुल गांधी 14 वर्ष के थे।
उस समय वो देहरादून के दून स्कूल में पढ़ रहे थे। ऐसे में क्या कोई 10 से 14 वर्ष का बालक अपनी दादी से जटिल समझे जाने वाले प्रश्न पूछेगा? याकि बचपन और उस समय की मनोदशा से संबंधित बातें करेगा। ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से राहुल ने ऐसा कब पूछा होगा, यह सोचने वाली बात है?
2014 से पहले राहुल ने सावरकर पर क्या बयान दिए?
अब हम भारतीय राजनीति में 2014 के पहले चलते हैं। इस समय तक राहुल गांधी के वीर सावरकर पर कभी बयान देखने को नहीं मिले। सावरकर और भारतीय परंपरा, संस्कृति पर राहुल गांधी के हमले 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही बढ़े हैं। जब उन्हें लगातार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी से पराजय मिली। देश भर के विभिन्न राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो गया। इससे राहुल गांधी हार की हताशा और खीझ की झुंझलाहट से भरते चले गए। यदि यह मान भी लिया जाए कि राहुल सच बोल रहे हैं तो क्या इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर के प्रति जो लिखा, बोला, सम्मान में काम किया। वो सब झूठ है? ऐसे में यही सिद्ध होता है कि राहुल गांधी- अपनी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का भी अपमान करने से नहीं चूक रहे हैं। भला, राहुल गांधी ऐसा करके क्या प्राप्त करना चाह रहे हैं?
झूठ को सच साबित करने की ज़िद
वीर सावरकर के प्रति अपने झूठ को सही सिद्ध करने के लिए राहुल गांधी कितनी सीमाएं लांघेंगे? इसके लिए अपने पुरखों तक का अपमान क्यों कर रहे हैं? यह किसी की भी समझ से परे है। इंदिरा जी के काम और तथ्य सबके सामने हैं। अगर, वो वीर सावरकर के प्रति ऐसी धारणा रखतीं जैसा राहुल बता रहे हैं तो क्या इंदिरा गांधी, वीर सावरकर के सम्मान में इतने काम करतीं? जो उन्होंने सार्वजनिक रूप से किए। राहुल अपने झूठ को बारंबार सही साबित करने की ज़िद क्यों पाले बैठे हैं? अब इसमें अपनी दादी को भी बीच में क्यों ले आए? यह कितना हास्यास्पद और दु:खद है न?
यानी स्पष्ट रूप से यही सिद्ध होता है कि राहुल गांधी को कम्युनिस्टों ने हाईजैक कर लिया है। वीर सावरकर के प्रति इस ढंग की बयानबाज़ी भारत विभाजन के लिए पाकिस्तान का ड्राफ्ट तैयार करने वाले कम्युनिस्टों के मस्तिष्क की उपज है। जो कि राहुल गांधी के माध्यम से अपनी घ्रणा को परोस रहे हैं। राहुल गांधी पर वीर सावरकर मानहानि के लखनऊ और पुणे में केस भी चल रहे हैं। इनमें मानहानि सहित कई गंभीर धाराओं में केस दर्ज हैं। राहुल को सुनवाई में प्रस्तुत होने के लिए पुणे और लखनऊ की अदालतें आदेश जारी करती रही हैं। अब, ऐसे में कई प्रश्न खड़े होते हैं। आखिर! राहुल गांधी के निशाने पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, महापुरुष और भारतीय संस्कृति ही क्यों रहती है? क्या राहुल गांधी जानबूझकर भारत की महान परंपरा , संवैधानिक संस्थाओं का अपमान करते हैं? महापुरुषों के बारे में झूठ बोलकर समाज में भ्रम का वातावरण पैदा करना चाहते हैं? क्या राहुल गांधी देश में विभाजन की रेखा बढ़ाना चाहते हैं? क्या राहुल गांधी भारतीय समाज को भाषा, वेशभूषा, स्थानीयता, जाति के नाम पर लड़ाना चाहते हैं? अगर, हाँ तो राहुल गांधी ऐसा क्यों कर रहे हैं? अगर, नहीं तो राहुल गांधी के बयान प्रायः विभाजनकारी मानसिकता वाले क्यों होते हैं? राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष की जिस भूमिका में हैं उसके दायित्व की गंभीरता को कब समझेंगे? क्या स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों का अपमान कर सत्ता मिलेगी?
(साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)