मोहन भागवत के बयान पर हंगामा क्यों?

मोहन भागवत के बयान पर हंगामा क्यों?

बलबीर पुंज

मोहन भागवत के बयान पर हंगामा क्यों?मोहन भागवत के बयान पर हंगामा क्यों?

बीते दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने जनसंख्या में गिरावट पर अपनी चिंता व्यक्त की। उनका कहना था, “आधुनिक जनसंख्या विज्ञान कहता है कि जब किसी समाज की जनसंख्या (प्रजनन दर) 2.1 से नीचे चली जाती है तो वह समाज पृथ्वी से लुप्त हो जाता है… इस तरह अनेक भाषाएं और समाज नष्ट हो गए …जनसंख्या विज्ञान का कहना है कि हमें दो या तीन से अधिक बच्चे पैदा करने की आवश्यकता है। समाज को जीवित रखने के लिए संख्या महत्वपूर्ण है।” जैसे ही उनका विचार मीडिया की सुर्खियों में आया, वैसे ही स्वयंभू सेकुलरवादी और वामपंथी तिलमिला उठे। संघ प्रमुख ने जिस आशंका को प्रकट किया है, उससे सार्वजनिक जीवन में सक्रिय जनप्रतिनिधियों का एक समूह परिचित तो है, लेकिन अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के कारण उसे जनविमर्श का हिस्सा बनाने से न सिर्फ बचता है, बल्कि उसे नया रंग देने का प्रयास भी करता है। 

आरोप-प्रत्यारोपों को दरकिनार कर क्या हमें सच्चाई को नहीं देखना चाहिए? क्या यह सच नहीं कि भारतीय उपमहाद्वीप (भारत सहित) में हिंदुओं की जनसंख्या, मुस्लिमों के अनुपात में लगातार घट रही है? मजहब का भारत की एकता-अखंडता और इस राष्ट्र के शाश्वत मूल्यों— बहुलतावाद, लोकतंत्र और सेकुलरवाद के साथ सीधा संबंध है या नहीं? देश में जहां-जहां आज हिंदू अल्पसंख्यक है, उनमें से अधिकतर क्षेत्र क्या अलगाववाद से ग्रस्त नहीं? संघ प्रमुख के विचार पर त्वरित कोई राय बनाने से पहले क्या इन प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से खोजने नहीं चाहिए। 

क्या यह सत्य नहीं कि ब्रिटिशकालीन भारत, जनसांख्यिकीय में आए परिवर्तन के कारण ही विभाजित हुआ था? इस त्रासदी में जिन दो मुल्कों— पाकिस्तान और बांग्लादेश का जन्म हुआ, वे घोषित रूप से इस्लामी हैं। अपने वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप इन दोनों ही देशों में हिंदू, बौद्ध और सिख आदि अल्पसंख्यकों के लिए न तो कोई स्थान है और न ही उनके मानबिंदु (मंदिर-गुरुद्वारा सहित) सुरक्षित। विडंबना है कि सिंधु नदी, जिसके तट पर हजारों वर्ष पूर्व ऋषि परंपरा से वेदों की रचना हुई— उस क्षेत्र में आज उनका नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है। 

भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक ‘असुरक्षित’ कौन है? विश्व के इस भूखंड में कुल मिलाकर 180 करोड़ लोग बसते है, जिसमें भारत 140 करोड़, पाकिस्तान 23 करोड़ और बांग्लादेश की जनसंख्या 17 करोड़ है। 180 करोड़ में 112 करोड़ हिंदू हैं, जबकि 62 करोड़ से अधिक मुस्लिम। विभाजन से पूर्व, इस भू-भाग की कुल जनसंख्या में हिंदू-सिख-बौद्ध-जैन अनुयायियों का अनुपात 75 प्रतिशत, तो मुस्लिम अनुपात 24 प्रतिशत था। स्वाधीनता से लेकर आज तीनों देशों में हिंदू-सिख-बौद्ध-जैन घटकर 62 प्रतिशत रह गए हैं, जबकि मुस्लिम बढ़कर 34 प्रतिशत हो गए। आज हिंदुओं-सिखों-बौद्ध-जैन की जो वास्तविक संख्या 135 करोड़ या उससे अधिक होनी चाहिए थी, वह घटकर 112 करोड़ रह गई है। यक्ष प्रश्न है कि इस भूखंड से पिछले सात दशकों में 23 करोड़ हिंदू-सिख-बौद्ध-जैन कहां गायब हो गए? 

बात यदि खंडित भारत की करें, तो अरुणाचल प्रदेश में 2001 से 2011 के बीच हिंदुओं की जनसंख्या 5.56% तक घट गई है। वर्ष 1971 में इस प्रदेश की कुल जनसंख्या में ईसाई एक प्रतिशत भी नहीं थे, लेकिन वर्ष 2011 में वे 30% हो गए। इस दौरान बौद्ध अनुयायियों की संख्या भी घट गई है। असम में 2001 की जनगणनीय तुलना में हिंदू जनसंख्या 2011 में लगभग तीन प्रतिशत घटी है। इस दौरान असम में हिंदू वृद्धि दर लगभग 11%, तो मुस्लिम जनसंख्या 29% रही। प. बंगाल में भी हिंदुओं की वृद्धि दर तेजी से घट रही है। केरल में हिंदू जनसंख्या गत 100 वर्षों में 14 प्रतिशत घट चुकी है। 

स्वतंत्रता से पहले नागालैंड और मिजोरम— दोनों जनजाति बहुल क्षेत्र थे। दिलचस्प तथ्य है कि वर्ष 1941 में नागालैंड की कुल जनसंख्या में जहां ईसाई लगभग शून्य थे, तो मिजोरम में ईसाई जनसंख्या आधा प्रतिशत भी नहीं थी। परंतु वह एकाएक 1951 में बढ़कर क्रमश: 46 और 90 प्रतिशत हो गए। 2011 की जनगणना के अनुसार, दोनों राज्यों की कुल जनसंख्या में ईसाई क्रमश: 88 और 87 प्रतिशत हैं। मेघालय की भी यही स्थिति है। इसी जनसांख्यिकीय स्थिति के कारण इन राज्यों में चर्च का अत्याधिक प्रभाव है। इसी वर्ष अगस्त-सितंबर में मिजोरम के मुख्यमंत्री लालदुहोमा ने अमेरिका में भाषण देते हुए तीन देशों के ईसाई-बहुल क्षेत्रों को शामिल करते हुए ‘ईसाई राज्य’ के दृष्टिकोण को साझा किया था। यहां अनुमान लगाना आसान है कि लालदुहोमा— भारत, बांग्लादेश और म्यांमार की बात कर रहे थे। इस षड्यंत्र का संकेत बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना भी दे चुकी थीं। 

यदि हिंदू बहुल भारत का एक तिहाई हिस्सा अगस्त 1947 में इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बन गया, तो 21वीं सदी से पहले ईसाई बहुल सर्बिया का हिस्सा रहे मुस्लिम बहुल कोसोवो ने 2008 में स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर लिया। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्यों में से 104 देशों ने कोसोवो को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता भी दी है। इसी तरह मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया का अंग रहे ईस्ट तिमोर (तिमोर लेस्ते) ने मई 2002 में स्वयं को अपनी ईसाई बाहुल्यता के कारण स्वाधीन मुल्क घोषित कर दिया। यही स्थिति ईसाई बहुल दक्षिणी सूडान की भी है, जिसने इस्लामी राष्ट्र सूडान से कटकर स्वयं के स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी है। यह उदाहरण है कि कैसे मजहबी-सांस्कृतिक भिन्नता, किसी देश का विखंडन कर सकती है। 

वास्तव में, पिछले 1,400 वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में जहां-जहां उसके मूल सनातन मतावलंबियों का भौतिक-भावनात्मक ह्रास हुआ, वहां-वहां भारत की भौगोलिक सीमा सिकुड़ती गई, तो बहुलतावाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जैसे जीवन मूल्यों का पतन हो गया। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर— इसके हालिया प्रमाण हैं। सच तो यह है कि देश के हिंदू चरित्र के कारण यहां पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्र और बहुलतावाद अब तक जीवित है। लेकिन यह भी उसी सीमा तक ही जिंदा रह सकती है, जब तक सनातन अनुयायियों की संख्या अधिक है। कोई भी विचार और संस्कृति केवल अपनी गुणवत्ता के बल पर ही सांस नहीं ले सकती, संख्याबल भी उतना ही आवश्यक है। 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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