अजमेर दरगाह मामला : हिन्दुओं की आस्था का हो सम्मान
डॉ. अभिमन्यु
अजमेर दरगाह मामला : हिन्दुओं की आस्था का हो सम्मान
हाल ही में अजमेर सिविल कोर्ट ने ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में संकट मोचन महादेव मंदिर होने का दावा करने वाली याचिका स्वीकार की है। इसके बाद प्रतिक्रियाओं का दौर प्रारम्भ हो चुका है, लेकिन दुःख की बात यह है कि अधिकतर नेताओं के बयानों में हिन्दू आस्था के सम्मान के भाव का अभाव नजर आता है।
सिविल कोर्ट में दायर याचिका में भारत में सूफीवाद का इतिहास एवं 1911 में लिखी पूर्व जज हरबिलास शारदा की अजमेर: हिस्टोरिकल एवं डिस्क्रिप्टिव (Ajmer : Historical & Descriptive) पुस्तकों को आधार बनाकर यहाँ मंदिर होने का दावा किया गया है। हरबिलास शारदा ने अपनी पुस्तक में वर्तमान इमारत में 75 फीट ऊंचे बुलंद दरवाजे के निर्माण में मंदिर के मलबे के अंश बताए थे। इसमें एक तहखाना या गर्भगृह है, जिसमें शिवलिंग होना बताया गया है। यहाँ ब्राह्मण परिवार पूजा किया करता था। साथ ही याचिका में यह भी बताया गया है कि बुलंद दरवाजे पर हिन्दू परंपरा की नक्काशी की गयी है। वहीं दूसरी ओर, जहाँ शिव मंदिर होता है वहां पेड़, झरना अवश्य होता है, ऐसा ही दरगाह परिसर में भी है। इनके आधार पर पुरातत्व विभाग से सर्वे करने की अपील की गयी है।
अजमेर दरगाह में मंदिर होने का दावा करने वाली याचिका अभी न्यायालय में विचाराधीन है। लेकिन स्वतंत्र रूप से तार्किक विश्लेषण करें तो हिन्दू पक्ष का दावा कहीं से भी गलत नजर नहीं आता है। यदि संवैधानिक दृष्टि से देखें तो संविधान में सभी को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, तो हिन्दुओं को भी अपने उपासना स्थलों पर पूजा अर्चना करने का अधिकार है। यदि अजमेर में दरगाह स्थल पर शिव मंदिर के प्रमाण हैं, तो वहां हिन्दुओं को पूजा अर्चना करने का अधिकार मिलना चाहिए।
इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि जब मोहम्मद गौरी ने यहां पर अपना शासन स्थापित किया तो उसकी पहली आवश्यकताओं में से एक रहने के लिए भवन एवं अपने समर्थकों हेतु नमाज स्थलों के निर्माण की थी। नमाज स्थलों के लिए पहले तो उन्होंने मंदिरों एवं अन्य विद्यमान भवनों को ही मस्जिदों में रूपांतरित कर दिया था। इसमें कुछ प्रमुख उदाहरण हैं, जिनका उल्लेख तो हर इतिहास क़ी पुस्तक में मिलता है। पहला है, अजमेर में अढ़ाई दिन के झोपड़े का निर्माण, जो पहले एक मठ या विहार था। दूसरा, दिल्ली में विष्णु मंदिर को तोड़कर उसके स्थान पर कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाना। इसलिए ख़्वाजा क़ी दरगाह का निर्माण भी शिव मंदिर के स्थान पर किया गया हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
1841 में आरएच इरविन क़ी पुस्तक सम अकाउंट ऑफ़ द जनरल एंड मेडिकल टोपोग्राफी ऑफ़ अजमेर में भी ख़्वाजा के समय पर यहाँ शिव मंदिर होना बताया गया है। इस पुस्तक में यह भी लिखा है कि ख़्वाजा ने चालीस दिनों तक यहाँ शिवलिंग पर पानी चढ़ाया था। वहीं 1989 में ब्रिटिश इतिहासकार पीएम करी ने अपनी पुस्तक द श्राइन एंड कल्चर ऑफ़ मुईन अल दिन चिश्ती ऑफ़ अजमेर (The Shrine & Culture of Muin al Din Chishti) में भी दरगाह के नीचे शिव मंदिर होना बताया है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन पुस्तकों को किसी हिन्दू ने नहीं लिखा, जिसके लिए कहा जाए कि उसने पूर्वाग्रहवश ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के स्थान पर मंदिर होने की बात लिखी होगी। इन पुस्तकों के लेखक विदेशी ब्रिटिश हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह बिना किसी पूर्वाग्रह के ही लिखा होगा।
आधुनिक शोधों से पता चलता है कि मोइनुद्दीन चिश्ती का भारत में पदार्पण पृथ्वीराज चौहान पर मोहम्मद गौरी की विजय के बाद हुआ, ना कि उससे पहले। मोइनुद्दीन चिश्ती 1206 ईसवी के आसपास अजमेर आया। इस समय तक यहां तुर्क शासन मजबूती से स्थापित हो चुका था एवं तुर्क गाजियों की बड़ी मुस्लिम जनसंख्या तथा युद्ध कैदियों को बलात कन्वर्ट करने के कारण बनी एक बड़ी मुस्लिम आबादी अस्तित्व में आ चुकी थी। यह भी सर्व विदित है कि तुर्कों ने मंदिरों को तोड़ा था। इससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि मोइनुद्दीन चिश्ती के आने से पहले यहां मंदिर रहा होगा, जिसे तुर्कों ने तोड़ा होगा, बाद में मोइनुद्दीन चिश्ती यहॉं रहकर इस्लाम का प्रचार प्रसार करने लगे हों।
कुछ लोग प्लेसेस ऑफ़ वरशिप एक्ट 1991 (Places of Worship Act 1991) की दुहाई देकर इस याचिका का विरोध कर रहे हैं। लेकिन जनसमान्य के मन में एक प्रश्न उठता है कि एक कानून बनाकर हजार वर्षों तक हिन्दुओं की आस्था पर किये गए अन्याय से आंखें मूंद लेना कितना उचित है? क्या एक हिन्दू बहुल राष्ट्र में हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा बनाये गए मंदिरों में उपासना करने का अधिकार भी नहीं है? हिन्दू दुनिया का सबसे उदार मानव है, वह इन याचिकाओं के माध्यम से अपने पर हुए अत्याचार का बदला नहीं ले रहा है, बल्कि वह अपना नैतिक एवं वैधानिक अधिकार मांग रहा है। यदि हिन्दू बदला लेता तो तुर्कों व मुगलों जैसा व्यवहार करता न कि कोर्ट में याचिका लगाता।
कुछ लोग कह रहे हैं कि इस तरह की याचिका से देश में आग लग जाएगी। यदि कानूनी रूप से अपना अधिकार माँगने पर ही दूसरा पक्ष आग लग जाएगी जैसी बात करता है, तो इसका सीधा सा अर्थ निकलता है कि वह भारतीय संविधान एवं कानूनी व्यवस्था पर विश्वास नहीं करता है।
इस तरह के मामलो में मुस्लिम पक्ष को भी हिन्दुओं क़ी भावना का ध्यान रखना चाहिए एवं न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास करते हुए इसमें सहयोग करना चाहिए, तब ही सही मायने में सौहार्द स्थापित होगा। अंत में सभी को यह ज्ञात रहे कि इस तरह की याचिका के माध्यम से हिन्दू भीख नहीं मांग रहा है, बल्कि वह अपने हजारों वर्ष पुराने मंदिरों जिन्हें तुर्कों एवं मुगलों ने तोड़ा था, उन पर उपासना का नैतिक एवं संवैधानिक अधिकार चाहता है।