सनातन राज-व्यवस्था की संरक्षिका
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प्रणय कुमार
सनातन राज-व्यवस्था की संरक्षिका
यह भारत-भू वीर प्रसूता है। यहां हर युग हर काल में ऐसे-ऐसे वीर-वीरांगनाओं ने जन्म लिया, जिनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के आगे सारा संसार सिर झुकाता है। इन वीर-वीरांगनाओं में से किसी ने युद्ध के मैदान में अपनी तेजस्विता की चमक बिखेरी तो किसी ने मानव मात्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ऐसी ही एक तेजस्विनी-महिमामयी नारी थी लोकमाता – अहिल्याबाई होलकर। उन्होंने भारतीय संस्कृति के कीर्ति-ध्वज को दसों दिशाओं में फहराने के साथ ही हिन्दू परंपराओं एवं मान्यताओं के अनुकूल आदर्श शासन एवं राज-व्यवस्था की स्थापना की। उनका जीवन और शासन लोक-कल्याण को समर्पित था। समाज, राष्ट्र और धर्म का कीर्ति-ध्वज फहराए रखने के लिए उन्होंने खड्ग धारण करने के साथ ही अनेकानेक अभिनव, असाधारण एवं ऐतिहासिक पहल व प्रयत्न भी किए।
लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी नामक गांव में हुआ था। वर्तमान में यह अहमदनगर जिले के जामखेड में है। उनका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। अहिल्या में बचपन से ही धार्मिक एवं राष्ट्रीय संस्कारों का भाव था। कहते हैं कि पुणे जाते समय मालवा राज्य के पेशवा मल्हारराव होलकर की दृष्टि 8 वर्षीय अहिल्याबाई पर पड़ी। उतनी छोटी अवस्था में भी वह गरीबों और भूखों की सहायता कर रही थीं। उनकी निष्ठा एवं परोपकारिता से प्रभावित होकर मल्हारराव ने उनके पिता मानकोजी से उनका हाथ अपने बेटे खांडेराव के लिए मांगा। बाद में परिपक्वता की अवस्था में उनका विवाह इंदौर राज्य के संस्थापक एवं पेशवा मल्हारराव होलकर के पुत्र खांडेराव के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ। महारानी अहिल्याबाई ने एक पुत्र एवं एक कन्या को जन्म दिया। पुत्र का नाम मालेराव और कन्या का नाम मुक्ताराव रखा गया। कहा जाता है कि खांडेराव में भी जिम्मेदारी और बोध का स्फुरण-जागरण महारानी अहिल्याबाई की प्रेरणा से ही हुआ। वे उन्हें राज-काज एवं शासन-व्यवस्था में सहयोग प्रदान करती थीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति के स्वाभिमान एवं गौरव-बोध को जागृत किया। मल्हारराव होलकर अपनी पुत्रवधू अहिल्याबाई को भी राज-काज की शिक्षा देते रहते थे। अपनी पुत्रवधू की बुद्धि, कार्य-कुशलता, नीतिनिपुणता से ये बहुत प्रसन्न थे। परंतु दुर्भाग्य से 1754 ई. में खांडेराव का निधन हो गया। 1766 ई. में मल्हारराव भी इस संसार को छोड़कर देवलोक गमन कर गए। श्वसुर के देहावसान के पश्चात् अहिल्याबाई के नेतृत्व में उनके बेटे मालेराव होलकर ने शासन की बागडोर संभाली। पर उस समय अहिल्याबाई और मालवा पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा, जब 5 अप्रैल 1767 को शासन की बागडोर संभालने के कुछ ही महीनों बाद उनके जवान बेटे की मृत्यु हो गई। कोई भी स्त्री जिससे थोड़े-थोड़े अंतराल पर उसके पति, श्वसुर, पुत्र का साथ छूट जाए, उसके दुःख एवं मनःस्थिति की सहज ही कल्पना की जा सकती है। परंतु अहिल्याबाई ने नियति एवं परिस्थिति के आगे घुटने नहीं टेके। उन्होंने मालवा राज्य की प्रजा को अपनी संतान मानते हुए 11 दिसंबर 1767 ई. को शासन की बागडोर अपने हाथों में ली और थोड़े ही दिनों में परिस्थितियों का लाभ उठाने के उद्देश्य से मालवा पर कुदृष्टि रखने वाले लोगों को मुंह की खानी पड़ी। अपने राज्य एवं प्रजा की रक्षा के लिए उन्होंने न केवल अस्त्र-शस्त्र उठाया, बल्कि अनेक युद्ध-मोर्चों पर स्वयं आगे आकर अपनी सेना का कुशल नेतृत्व भी किया। इतना ही नहीं, जब आवश्यकता पड़ी उन्होंने कूटनीति से भी काम लिया। राज्य हड़पने के उद्देश्य से जब राघोवा पेशवा ने मालवा पर आक्रमण के लिए अपनी सेना भेजी तो लोकमाता अहिल्याबाई के केवल एक पत्र से यह युद्ध टल गया और पेशवा ने उन्हें उनके राज्य की सुरक्षा का वचन दिया। उस पत्र ने पेशवा राघोवा की सुप्त चेतना को जागृत किया। उस पत्र के एक-एक शब्द ने उन पर नुकीले तीर-सा असर किया और उन्होंने युद्ध का इरादा बदल दिया। अहिल्याबाई इतनी कुशल एवं दूरदर्शी थीं कि व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों और ईस्ट इंडिया कंपनी की फूट डालो और शासन करो की नीति को उन्होंने सबसे पहले भांप लिया था। उन्होंने तत्कालीन पेशवा प्रमुख को इस संदर्भ में पत्र लिखकर उन्हें सतर्क भी किया था। इस कम में उन्होंने अपने विश्वसनीय सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर (मल्हारराव के दत्तक पुत्र) को सेना प्रमुख बनाया था। वे उन पर भरोसा करती थी और तुकोजीराव भी उनके प्रति अखंड निष्ठा एवं श्रद्धा रखते थे।
लोकमाता अहिल्याबाई का शासन-काल भले ही अल्प रहा, पर उन्होंने भावी भारत पर बहुत गहरा एवं व्यापक प्रभाव छोड़ा। अपने शासन काल में उन्होंने राज्य की सीमाओं के भीतर ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत वर्ष के प्रमुख तीर्थों और धर्म स्थानों पर उन्होंने मंदिर बनवाए, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। कुओं, तालाबों, बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, सड़कों की मरम्मत करवाई, भूखों के लिए अन्न क्षेत्र खुलवाए, प्यासों के लिए स्थान-स्थान पर प्याऊ लगवाए। तीर्थ स्थलों पर धर्मशालाओं का निर्माण कराने के साथ ही शास्त्रों के अध्ययन-चिंतन हेतु मंदिरों में विद्वान आचार्यों की नियुक्ति की।
आत्म-प्रतिष्ठा एवं प्रवंचना का मोह त्यागकर उन्होंने सदैव न्याय करने का प्रयत्न किया। कहते हैं कि वे इतनी न्यायप्रिय थीं कि
एक बार अपने इकलौते एवं दत्तक पुत्र तक को मृत्युदंड देने को उद्धत हो गई थीं। प्रजाजनों की विनती के बावजूद वह न्याय से टस से मस नहीं हुई। उनके पुत्र के रथ से कुचलकर एक नवजात बछड़ा घायल हो गया और वहीं उसकी मौत हो गई। मृत बछड़े के पास उसकी माँ यानी गाय आकर बैठ गई। थोड़ी देर बाद अहिल्याबाई वहां से गुजरी। संवेदनशील एवं न्यायप्रिय रानी से गौमाता का शोक कैसे छिप पाता! सारा घटनाक्रम जानने के बाद अहिल्याबाई ने दरबार में मालेजी की पत्नी मेनाबाई से पूछा “यदि कोई व्यक्ति किसी माँ के सामने उसके बेटे की हत्या कर दे, तो उसे क्या दंड मिलना चाहिए?” मेनाबाई ने उत्तर दिया “उसे प्राण दंड मिलना चाहिए।” इसके बाद महारानी अहिल्याबाई ने मालेराव को हाथ-पैर बांधकर सड़क पर डालने को कहा और फिर उन्होंने आदेश दिया कि उन्हें रथ से कुचलकर मृत्युदंड दिया जाय। इस कार्य के लिए जब कोई सारथी आगे नहीं आया तो वह स्वयं इस कार्य के लिए रथ पर सवार हो गईं। पर विधाता को यह स्वीकार नहीं था। कहते हैं कि जब वे रथ को लेकर मालेराव की ओर आगे बढ़ीं तो वही गाय रथ के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। यह दृश्य देखकर मंत्री एवं प्रजाजनों ने उनसे गुहार लगाई कि शायद यह बेजुबान गाय भी नहीं चाहती कि किसी और माँ के बेटे के साथ ऐसा हो। वह माले जी के लिए आपसे दया की भीख मांग रही है। कहा यह भी जाता है कि स्वयं एकलिंग भगवान शिव गाय का रूप धारण कर न्याय के प्रति उनकी निष्ठा की परीक्षा ले रहे थे। जिसमें वे सौ प्रतिशत खरी उतरीं।
वे न्याय के संदर्भ में अपने समकालीन पुणे के न्यायाधीश राम शास्त्री जी की परंपरा का अनुसरण करती थीं। उनके जीवन-काल में ही जनता ने उन्हें ‘देवी’ समझना और कहना प्रारंभ कर दिया था। तत्कालीन समय में शासन और व्यवस्था के नाम पर जब देश में विधर्मियों और विदेशियों के अनाचार- अत्याचार का बोलबाला था। प्रजाजन- साधारण गृहस्थ, किसान-मजदूर-व्यापारी अत्यंत दीन-हीन अवस्था में जीने को अभिशप्त थे। ऐसे घोर अंधेरे कालखंड में लोकमाता अहिल्याबाई का शासन वहां की प्रजा के लिए प्रकाश पुंज की तरह था। इस तरह शासन करते हुऐ 13 अगस्त सन 1795 को उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। पर उससे पूर्व उन्होंने जो-जो काम किए, वे इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। चाहे महेश्वर को राजधानी बनाने का अभिनव प्रयोग हो या संपूर्ण हिन्दू समाज के गौरव और सनातन संस्कृति के केंद्र काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण व जीर्णोद्धार या लोक-मंगल की भावना से संचालित अन्यान्य निःस्वार्थ सेवा-कार्य उन सबके पीछे महारानी अहिल्याबाई की सनातन जीवन-दृष्टि, प्रजावत्सलता एवं कर्त्तव्य परायणता थी। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लोकमाता अहिल्याबाई ने न केवल अपने समय एवं समाज पर गहरा व व्यापक प्रभाव डाला, बल्कि सनातन संस्कृति एवं सरोकारों को जीने, समझने और अक्षुण्ण रखने के कारण उनका योगदान सदियों तक अमर एवं अविस्मरणीय रहेगा।
(अहिल्याबाई जन्म त्रिशताब्दी वर्ष लेखमाला -2)