सामाजिक समरसता का महापर्व कुंभ 

सामाजिक समरसता का महापर्व कुंभ 

मृत्युंजय दीक्षित 

सामाजिक समरसता का महापर्व कुंभ सामाजिक समरसता का महापर्व कुंभ 

सनातन हिंदू संस्कृति का महापर्व है –महाकुंभ, विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव। सनातन संस्कृति की आस्था का सबसे बड़ा और सर्वोत्तम पर्व महाकुंभ न केवल भारत अपितु संपूर्ण विश्व में सुविख्यात है। यह एकमात्र ऐसा महापर्व है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व से श्रद्धालु कुम्भ स्थल पर आकर भारत की समन्वित संस्कृति, विश्व बंधुत्व की सद्भावना और जनसामान्य की अपार आस्था का अनुभव करते हैं। वैभव और वैराग्य के मध्य आस्था और समरसता के इस महाकुम्भ में सनातन समाज नदी के पावन प्रवाह में अपने समस्त विभेदों, विवादों ओैर मतांतरों को विसर्जित कर देता है। इस मेले में मोक्ष व मुक्ति की कामना के साथ ही तन, मन तथा बुद्धि के सभी दोषों की निवृत्ति के लिए करोड़ों श्रद्धालु अमृत धारा में डुबकी लगाते हैं। महाकुंभ में योग, ध्यान और मंत्रोच्चार से वातावरण आध्यात्मिक ऊर्जा से भर जाता है। महाकुंभ में समस्त अखाड़े प्रतिभाग करते हैं। उनमें से प्रत्येक की महिमा, इतिहास व परम्पराएं अद्भुत हैं। 

महाकुंभ का इतिहास प्राचीन पौराणिक कथाओं में रचा बसा है। इसकी कथा समुद्र मंथन और देव-दानव संघर्ष से जुड़ी है, जिसमें अमृत कलश की प्राप्ति हुई थी। समुद मंथन की कथा के अनुसार, राजा बलि के राज्य में शुक्राचार्य के आशीर्वाद एवं सहयोग से असुरों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। देवतागण उनसे भयभीत रहने लगे थे। भगवान विष्णु के सुझाव पर देवताओं ने असुरों से मित्रता कर ली और समुद्र मंथन किया। क्षीर सागर के मन्थन के लिये मन्दराचल पर्वत की मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया। समुद्र मंथन से सर्वपथम हलाहल विष निकला, जिसका पान करके शिवजी ने समस्त सृष्टि की रक्षा की और नीलकंठ कहलाए। तत्पश्चात क्रमशः चन्द्र, कामधेनु गौ, कल्पवृक्ष, पारिजात, आम्रवृक्ष तथा सन्तान ये चार दिव्य वृक्ष, कौस्तुभ मणि, उच्चैश्रवा, अश्व और ऐरावत हाथी निकले। इसके पश्चात माता लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ, जिन्होंने भगवान विष्णु का वरण किया। वारुणी और शंख निकले। अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत घट लेकर निकले। दैत्यों ने उस अमृत घट को छीन लिया और पीने के लिये आपस में ही लड़ने लगे, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारणकर दैत्यों को रूप सौन्दर्य से आसक्त कर लिया। दैत्यों ने अमृतघट विष्णु रूपी मोहिनी को बांटने के लिये दे दिया। मोहिनी रूपी विष्णु ने देवताओें को अमृत बांटना प्रारम्भ किया, एक असुर को मोहिनी की यह चालाकी समझ आ गयी और उसने देवताओं की पंक्ति में बैठकर अमृत प्राप्त कर लिया। जब देवताओं का ध्यान उसकी ओर गया तो उन्होंने भगवान विष्णु को बताया। भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस दैत्य की गर्दन धड़ से अलग कर दी। दैत्य के शरीर के यही दो भाग राहु और केतु हैं। देवों को अमृत पान कराकर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये। इसके पश्चात देवासुर संग्राम छिड़ गया। देवराज इन्द्र की आज्ञा से उनके पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर पलायन कर गए, दैत्य उनका पीछा कर रहे थे। इस भागने के क्रम में जिन स्थानों पर अमृत छलककर गिरा, उन्हीं स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता है। वे स्थान हैं हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज। अमृतकलश लेकर भागने के दौरान सूर्य, चन्द्र, वृहस्पति तथा शनि ने असुरों से जयन्त की रक्षा की थी, यही कारण है कि इन चारों ग्रहों की विशेष स्थिति होने पर ही कुम्भ का आयोजन होता है। देवासुर संग्राम 12 वर्ष चला था, जब देवता बालि पर विजय प्राप्त कर सके थे। अतः प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का मेला लगता है।

महाकुम्भ की महिमा का वर्णन स्कंद पुराण में स्पष्ट किया गया है। विष्णु पुराण में भी कुम्भ स्नान की प्रशंसा की गई है। कुंभ की अनेक व्याख्याएं की गई हैं। वेदों में भी कुम्भ की महिमा बताई गई है। ज्योतिष तथा योग में भी कुम्भ है। ऋग्वेद में कुम्भ शब्द पांच से अधिक बार, अथर्ववेद में दस बार और यजुर्वेद में अनेक बार आया है। ब्रह्माण्ड की रचना को भी कुम्भ के सदृश ही माना गया है। पृथ्वी भी ऐसी ही आकृति ग्रहण करती है। पृथ्वी का परिक्रमण पथ भी कुम्भाकार ही है। कुम्भ का उपयोग घी, अमृत और सोमरस रखने के लिए भी किया जाता था। कुम्भ में ही ओैषधि संग्रह और निर्माण भी किया जाता था। वेदों में कलश को समुद्रस्थ कहा गया है। वहीं अथर्ववेद में पितरों के लिए कुम्भदान का उल्लेख है। 

‘कुम्भ’ का शाब्दिक अर्थ है ‘घट, कलश, जलपात्र या करवा। भारतीय संस्कृति में ‘कुम्भ’ मंगल का प्रतीक है। यह शोभा, सौन्दर्य एवं पूर्णत्व का वाचक भी है। सनातन संस्कृति में समस्त धार्मिक एवं मांगलिक कार्य स्वास्तिक चिन्ह से अंकित अक्षत, दुर्वा, आम्र पल्लव से युक्त जलपूर्ण कुम्भ के पूजन से प्रारम्भ होते हैं। कुम्भ आदिकाल से हमारी आध्यात्मिक चेतना के रूप में प्रतिष्ठित है।भारतीय संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में कुम्भ का सर्वाधिक महत्व है। मनुष्य जीवन की अन्तिम यात्रा में भी अस्थि कलश अर्थात् कुम्भ और गंगा का ही योग है।

ग्रह- नक्षत्रों की स्थिति तथा अन्य परम्पराओं के अनुसार कुम्भ के तीन प्रकार होते हैं, अर्ध कुम्भ, कुम्भ तथा महाकुम्भ, इस वर्ष प्रयागराज में हो रहा कुम्भ महाकुम्भ है, जिसमें 12 -12 वर्षों की 12 आवृत्तियां पूर्ण हो रही हैं। यह अवसर प्रत्येक 144 वर्ष के उपरांत आता है इसीलिए इसे महाकुम्भ कहा जाता है।

महाकुम्भ और प्रयागराज, यह दुर्लभ संयोग है क्योंकि कुम्भ महाकुम्भ है और प्रयागराज तीर्थराज है। प्राचीनकाल में प्रयागराज को बहुयज्ञ स्थल के नाम से जाना जाता था। ऐसा इसलिये क्योंकि सृष्टि कार्य पूर्ण होने पर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ यहीं किया था। उसके बाद यहां पर अनेक पौराणिक यज्ञ हुए। प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती का त्रिवेणी संगम है। महाकुम्भ के अवसर पर यहां पर स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। 

प्रयागराज महाकुंभ -2025 में सम्पूर्ण भारत वर्ष के सनातन धर्मियों, अखाड़े –आश्रमों तथा महान संतों का आगमन हो रहा है, ऐसे ऐसे संत पधार रहे हैं, जो सामान्य रूप से दर्शन नहीं देते। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में सनातन धर्म को मानने वाले विदेशी संतों-महंतों तथा उनके शिष्यों का आगमन भी हो रहा है। यह दृश्य अद्भुत होता है, जब आम भारतीय जनमानस को उनके भी दर्शन प्राप्त होते हैं। 

प्रयागराज महाकुम्भ – 2025 में 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं का आगमन संभावित है। मेले की तैयारियां स्वयं प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में की गई हैं। मेले के पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व के अनुरूप महाकुम्भ आयोजन की तैयारियां दो वर्ष पूर्व से आरम्भ कर दी गई थीं। लगभग पचास करोड़ लोगों के आतिथ्य को संभाल सकने योग्य अवस्थापना का निर्माण किया गया है। उड्डयन, रेल, सड़क परिवहन ने मिलकर यात्रा सुगम बनाने के लिए अपनी सेवाओं को विस्तार दिया है। प्रयागराज नगर को पौराणिक नगरी की तरह सजाया गया है। महाकुम्भ में इस बार केवल सनानत संस्कृति के अलौकिक आध्यात्मिक पहलुओं का दर्शन ही नहीं होगा अपितु विकसित होते भारत का दर्शन भी होगा। महाकुम्भ मेले के प्रबंधन में प्रत्येक स्थान आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। अन्य प्रान्तों से आ रहे श्रद्धालुओं को कोई कठिनाई न हो इसके लिए सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में जानकारी उपलब्ध कराई जा रही है। डेढ़ लाख टेंटों वाली टेंट सिटी बनाई गयी है। स्वच्छता के विशेष प्रबंध किये जा रहे हैं। मेला परिसर में एक 100 शैय्या वाला चिकित्सालय भी स्थापित किया गया है। 

महाकुम्भ -2025 में गुलामी की मानसिकता के प्रतीक शब्दों और चिह्नों को हटाने का महाअभियान प्रारम्भ हो रहा है, जिसके अंतर्गत शाही स्नान का नाम बदलकर अमृत स्नान कर दिया गया है। अखाड़ों के मेला प्रवेश को अब पेशवाई के स्थान पर अखाड़ा छावनी प्रवेश कहा जाएगा। एक घाट का नाम बदलकर महान क्रांतिकारी बलिदानी चंद्रशेखर आजाद घाट किया गया है। 

महाकुम्भ -2025 में डिजिटल क्रांति भी देखने को मिलेगी। महाकुम्भ -2025 पर्यावरण संरक्षण व समाजिक समरसता के व्यापक अभियान के लिए भी स्मरणीय बनाया जायेगा। महाकुम्भ में ज्योतिष कुम्भ से लेकर स्वास्थ्य के विभिन्न क्षेत्रों के महाकुम्भ का भी आयोजन होने जा रहा है। मेले की समाप्ति तक निर्धारित मेला क्षेत्र उत्तर प्रदेश के 76 वें जनपद के रूप में मान्य होगा। यह घोषणा मेले के विस्तार और महत्त्व का प्रमाण है।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *