विश्वबंधुत्व, लोककल्याण व विश्वशांति का संदेश देता महाकुम्भ
हृदयनारायण दीक्षित
विश्वबंधुत्व, लोककल्याण व विश्वशांति का संदेश देता महाकुम्भ
कुम्भ अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय है। प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। लाखों श्रद्धालु कड़ाके की ठंड के बावजूद कुम्भ का आनंद ले रहे हैं। सारे रास्ते कुम्भ की ओर मुड़ गए हैं। करोड़ों श्रद्धालु समागम में आ चुके हैं। लाखों जन आने की तत्परता में हैं। कुम्भ देश विदेश के लाखों श्रद्धालुओं की जिज्ञासा है। भारत का चित्त और विवेक सनातन धर्म से प्रेरित है। विश्व कल्याण राष्ट्रजीवन का ध्येय है। वैज्ञानिक विवेक से विकसित यह सनातन चेतना विश्ववारा है। भारतीय संस्कृति हजारों वर्ष के अनुभवों का परिणाम है। संस्कृति और परम्परा अंधविश्वास नहीं है। ये विशेष प्रकार के इतिहास हैं। इतिहास में शुभ और अशुभ साथ-साथ चलते हैं। शुभ को राष्ट्रजीवन से जोड़ना और लगातार संस्कारित करना संस्कृति है। राष्ट्रजीवन में बहुत कुछ करणीय है और बहुत कुछ अकरणीय। इसका सत्य, शिव और सुंदर अनुकरणीय होता है। यहां धर्म, दर्शन, संस्कृति, परम्परा और आस्था राष्ट्रजीवन के नियामक तत्व हैं। यह पांच तत्व राष्ट्रजीवन को ध्येय और शक्ति देते हैं। कुम्भ मेला इन्हीं पांचों तत्वों की अभिव्यक्ति है। लाखों श्रद्धालुओं का बिना किसी निमंत्रण प्रयाग पहुंचना आश्चर्य पैदा करता है। करोड़ों लोग आस्थावश आए हैं। अनेक जिज्ञासावश आए हैं और लाखों आश्चर्यवश। क्या यह आश्चर्य नहीं है कि करोड़ों लोग हाड़तोड़ ठंड में भी कुम्भ संगमन में हैं।
कुम्भ समागम संस्कृति प्रेमियों का महाउल्लास है। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी कुम्भ पर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया‘ में लिखा, “वास्तव में यह समग्र भारत था। कैसा आश्चर्यजनक विश्वास जो हजारों वर्ष से इनके पूर्वजों को देश के कोने-कोने से खींच लाता है।“ संगम का शब्दार्थ है मिलना। प्रयाग तीन नदियों का संगम है। यह यज्ञ, साधना, योग और आत्मदर्शन का पुण्य क्षेत्र रहा है। यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियां गले मिलती हैं। ऋग्वेद के ऋषि “इमे गंगे यमुने सरस्वती…“ गाकर स्तुति करते हैं। कुछ लिबरल छद्म सेकुलर सरस्वती को स्वीकार नहीं करते। सरस्वती का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा कहा गया है। तीनों संगम में मिलती हैं। तब तप, यज्ञ और योग की तपोभूमि प्रयाग हो जाती है और प्रयाग हो जाता है तीर्थराज।
प्रयाग सामान्य नगर क्षेत्र नहीं है। सरकारें खूबसूरत नगर बना सकती हैं, लेकिन प्रयाग जैसा तीर्थ कोई भी सत्ता नहीं बना सकती। प्रयाग जैसे तीर्थ हजारों वर्ष की तप साधना में विकसित होते हैं। गजब की है यह पुण्य भूमि। पाणिनि ने यहीं पर अष्टाध्यायी लिखी थी। इंडोनेशिया के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ककविन‘ में भी प्रयाग कुम्भ की महिमा है। तुलसीदास इसे, “क्षेत्र अगम गढ़, गाढ़ सुहावा“ कह कर काल का वर्णन करते हैं, “माघ मकर गत रवि जब होई/तीरथ पतिहिं आव सब कोई।“ मार्क ट्वेन ने 1895 का कुम्भ देखा था। लिखा था, “आश्चर्यजनक श्रद्धा की शक्ति ने वृद्धों, कमजोरों, युवकों को असुविधाजनक यात्रा में खींचा, इसका कारण क्या है? क्या प्रेम है या कोई भय? मैं नहीं जानता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह अकल्पनीय है। सुंदरतम है।“ अंग्रेजीराज के समय वायसराय लिनलिथगो ने 1942 का विशाल कुम्भ समागम देखते हुए पंडित मदनमोहन मालवीय से पूछा कि इतने लोगों को निमंत्रित करने में बड़ा धन और श्रम लगा होगा। मालवीय जी ने उन्हें बताया कि सिर्फ दो पैसे का पंचांग देखकर ही यहां लाखों लोग आए हैं।
कुम्भ आस्था है। यह सांस्कृतिक प्रतीक है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में भी इसका उल्लेख है। सूर्य की 12 राशियों में एक राशि का नाम कुम्भ है। मांगलिक कार्यों व तप साधना के दौरान सर्वप्रथम कुम्भ कलश की स्थापना होती है। पुराणों के अनुसार कलश के मुख में विष्णु हैं। ग्रीवा में रुद्र और मूल में ब्रह्मा हैं। सप्तसिंधु, सप्तद्वीप ग्रह, नक्षत्र और सम्पूर्ण ज्ञान भी कुम्भ कलश में है। पौराणिक आख्यान के अनुसार एक समय सागर मंथन हुआ था। मंथन से प्राप्त विष महादेव शंकर पी गए। लेकिन मंथन से निकले अमृत कुम्भ पर युद्ध हो गया। एक मत के अनुसार जयंत और दूसरे के अनुसार गरुण कुम्भ लेकर भाग निकले। स्कंद पुराण के अनुसार अमृत घट चार जगह हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गोदावरी के तट पर गिरा था। इन्हीं चार स्थानों पर कुम्भ के आयोजन होते हैं।
पूर्वज ऋषि कम से कम 100 बरस के जीवन की कामना करते थे। अमृत मिले तो अनंतकाल का जीवन। क्या अमृत वास्तव में कोई द्रव्य था? यह कल्पना भले ही रहा हो, लेकिन दुनिया के किसी भी विद्वान ने अमृत की चर्चा नहीं की थी। केवल भारतीय दृष्टि में ही अमृत की प्यास है। अमृत की प्रीति भी अमृत है। सूर्य अमर हैं। उगते हैं। अस्त होते हैं। मास, वर्ष, युग बीतते हैं। नदियां प्रवाहमान रहती हैं। कुम्भ मेले में सहस्त्रों साधु, योगी और मंत्रवेत्ता आए हैं। उनके चित्त में घर गृहस्थी की चिंता नहीं है। लेकिन लाखों गृहस्थ भी समागम में हैं। सबका विश्वास है कि कुम्भ में स्नान और पुष्पार्चन जीवन को सुंदर और समृद्ध बनाएगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सारी व्यवस्थाओं का बार-बार जायजा लिया है। उनकी सक्रियता आम जनों के बीच चर्चा का विषय है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कुम्भ समागम क¨ महत्वपूर्ण बताया।
संस्कृति ही प्रत्येक देश की साधना, उपासना और कर्म को गति देती है। वैदिक काल के पहले से भी यहां एक आनंदमगन संस्कृति थी। यहां सांस्कृतिक निरंतरता है। यही संस्कृति उत्तर वैदिक काल में भी है और यही उत्तरवैदिक काल में भी प्रवाहित है। संस्कृतियों की भिन्नता प्रत्येक राष्ट्र की पहचान होती है। डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि, “भारत में अध्यात्म को, यूनान में सौंदर्य तत्व को, रोम में न्याय और दण्ड व्यवस्था को, चीन में विराट जीवन के आधारभूत नियमों को, ईरान ने सत् और असत् के द्वंद को, मिस्र में भौतिक जीवन की व्यवस्था और संस्कार को और सुमेर जातियों ने दैवीय दण्ड विधान को अपनी दृष्टि से आदर्श रूप में स्वीकार किया है और उनकी प्रेरणा से संस्कृति का विकास किया है।“ भारतीय संस्कृति और परम्परा में प्रतीक गढ़ने और प्रतीकों को लोकप्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। संस्कृति, परम्परा, धर्म और दर्शन का प्रतीक है कुम्भ। ऐसे प्रतीक अल्प समय में नहीं बनते। ओम सम्पूर्णता का प्रतीक है। स्वास्तिक प्रतीक भी लोकप्रिय है। मूर्तियां और मंदिर भी ऐसे ही प्रतीक हैं।
कुम्भ का इतिहास पुराना है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि कुम्भ मेला सिन्धु घाटी सभ्यता से भी पुराना है। सिन्धु सभ्यता के पहले वैदिक सभ्यता है। कुम्भ वैदिक सभ्यता में भी दिखाई पड़ता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, इस मेले का आयोजन गुप्त काल में व्यवस्थित हुआ। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने सम्राट हर्षवर्धन के शासन में सम्पन्न कुम्भ मेले का वर्णन किया है। कुम्भ मेलों में शास्त्रार्थ होते थे। आध्यात्मिक दार्शनिक विषयों पर चर्चा होती थी। शंकराचार्य ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया था। कुम्भ सारी दुनिया को विश्वबंधुत्व, लोककल्याण व विश्वशांति का संदेश दे रहा है। मेले का संदेश सुस्पष्ट है। धर्म, परम्परा, संस्कृति, दर्शन और आस्था के संरक्षण संवर्धन के लिए हम भारत के लोगों को अतिरिक्त श्रम करना चाहिए।