बौद्धिक आतंकवाद अधिक खतरनाक है

बौद्धिक आतंकवाद अधिक खतरनाक है

अमित त्यागी 

बौद्धिक आतंकवाद अधिक खतरनाक हैबौद्धिक आतंकवाद अधिक खतरनाक है

आज दुनिया में स्वयं को बेहतर दिखाने और स्वयं के वर्चस्व की जंग मची है। रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-फिलस्तीन युद्ध इसी का परिणाम हैं। धन बल के द्वारा एक देश, दूसरे देश पर विजय पाने के लिए लालायित है। मानवाधिकार की बात करने वाले विकसित देश हर स्तर पर मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप को राष्ट्रीय विचारधारा का माना जाता है, इसलिए उनका और प्रधानमंत्री मोदी का सामंजस्य बेहतर दिखता है। ट्रंप दोबारा वापसी करके तत्पर और उत्साहित हैं। हालांकि, राष्ट्रपति के रूप में अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिक दोनों ही किसी अन्य विषय से ऊपर व्यापार को प्राथमिकता देते हैं और प्रधानमंत्री मोदी अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की व्यापारिक डीलिंग में निपुण हैं। पर एक बात लोगों को स्पष्ट समझनी होगी कि ट्रंप के राष्ट्रपति बन जाने से भारत या किसी भी अन्य देश में डीप स्टेट की गतिविधियां कम नहीं होंगी। देशों को अस्थिर करने की अमेरिकी नीति पूर्ववत ही रहेगी। इसका कारण विचारधारा है।

सनातन विचारधारा ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के आधार पर सम्पूर्ण धरा को अपना मानकर चलती है तो कुछ विचारधाराएं सम्पूर्ण विश्व को अपने उपभोग की वस्तु मानती हैं। जैसे दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के आने को लेकर कहा जाता है कि वे जब आए तब उनके पास बाइबल थी और अफ्रीकियों के पास जमीनें। 100 वर्षों के बाद अफ्रीकियों के पास बाइबल थी और अंग्रेजों के पास उनकी जमीनें। सेवा का भाव दिखाकर, कन्वर्जन और उपभोग का प्रयोग करके, देशों की संस्कृति को नष्ट करने का यह अनुपम उदाहरण है। पश्चिम और वहां से उपजे पंथों की विचारधारा रेखीय है। जन्म, जीवन, मरण और उसके बाद कयामत/जजमेंट डे। यह विचारधारा मृत्यु के बाद कयामत/जजमेंट डे को महत्वपूर्ण मानती है। सनातनी जीवन दर्शन रेखीय है, जिसमें जन्म, जीवन, मरण एवं फिर पुनर्जन्म की अवधारणा है। यह जीवन दर्शन प्रकृति और सृष्टि को उपभोग की वस्तु न मानकर आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोने का कार्य करता है। यही कारण है कि भारतीय भूभाग में पुरातन शिल्प बेजोड़ है। यहां के त्यौहार प्रकृति केन्द्रित हैं। यहां के लोग जहां भी गये, उन्होंने वहां की संस्कृति को नष्ट नहीं किया बल्कि अपनी ज्ञान परंपरा को वहॉं प्रकाशमान किया। 1976 में संविधान में सेकुलर और सोशलिस्ट दो शब्दों को जोड़ा गया था। इन शब्दों के अंग्रेजी मायने यूरोपीय सभ्यता के अधिक निकट हैं। किन्तु भारतीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इसके मायने बिना विचारे ही ग्रहण कर लिए गए हैं। पश्चिम के जिन देशों में सेकुलरिज्म रहा है, वहां जीवन का एक सिरा राजा के और दूसरा चर्च के नियंत्रण में रहा है। भारत के संदर्भ में ऐसा कभी नहीं रहा। सेकुलर शब्द पश्चिम की देन है और यह पारलौकिक एवं इहलौकिक जीवन को अलग-अलग रखता है। यूरोप में कई फिरकों में आपसी मतभेद रहे हैं, इसलिए यह शब्द सहिष्णुता नहीं दिखाता। सेंट पीटर की व्याख्या के अनुसार ‘मनुष्य के इहलोक जीवन पर राज्य का अधिकार है और परलोक पर चर्च का। इस व्याख्या के कारण ही यूरोपीय शैली में स्वेच्छाचार, यौनाचार, स्वच्छंदता एवं भोगवाद की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। इसके द्वारा एक बड़ा बाजार पैदा हुआ। नैतिक अनुशासन का भाव विलुप्त हो गया। भोगवाद का समर्थन हो गया। यहीं से बाजार का निर्माण हुआ। आज हम जो भी समस्याएं, विचारधाराओं से भटकाव एवं सत्ताधीशों के द्वारा बाजार अनुकूल नीतियां देख रहे हैं, वे इसी व्याख्या से उपजी हैं। समस्या किसी विचारधारा के साथ नहीं है। असली समस्या सत्ता में आने पर बाजार की विचारधारा हावी हो जाने को लेकर है। भारत के राष्ट्रवाद की भावना को इतना खतरा बाहरी शक्तियों से नहीं है, जितना कि आंतरिक असंतोष को भुनाने वाले बौद्धिक आतंकियों से है। बाहरी शक्तियों को सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रित कर लिया जाता है। लेकिन बौद्धिक आतंकवाद को नियंत्रित कर पाना अधिक दुष्कर है। सीमा पर सुरक्षा बलों का आत्मबलिदान एवं जागरूकता हमेशा हमारा मस्तक ऊँचा रखती है। किन्तु जब बाहरी शक्तियों के द्वारा हमारे अपने स्थानीय बौद्धिक बुद्धिजीवियों के सहयोग से बेरोजगार युवकों के आंतरिक असंतोष को भुनाया जाता है, तब देश की अखंडता एवं व्यवस्था को एक साथ बनाए रखना थोड़ा कठिन हो जाता है। बौद्धिकता एवं असंतोष का मेल सदैव वीभत्स कार्यों को अंजाम देता है। एक बात समझने लायक है कि आतंकवाद कभी शारीरिक या मानसिक नहीं होता, बल्कि बौद्धिक होता है। एक तरफ जहां राष्ट्रवाद सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करता है वहीं दूसरी तरफ उग्रवाद, अलगावाद, नक्सलवाद और अन्य बहुत से क्षेत्रीय वादों को हवा देता है। अपनी मेधा का गलत उपयोग करना बौद्धिक आतंकवाद की श्रेणी में आता है। अब तो ऐसे लोग प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान हैं। शिक्षा, राजनीति, मीडिया, चिकित्सा, अदालत, व्यवसाय आदि-आदि में ऐसे लोगों की भरमार है और हां! अब तो शायद समाज सेवा में भी, जिन्हें एनजीओ के नाम से जाना जाता है। सब के सब अपने ज्ञान के माध्यम से अपने ही आस-पास के लोगों को लूटने में निपुण हो गए हैं।

स्थानीय समस्याओं के साथ, जब-जब बौद्धिकता का मेल हुआ है। परिणाम घातक हुए हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी आवश्कयताओं और परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठा कर ऐसा जाल बुनता है कि उसका अनुसरण करने वाले उसके सारे कार्यक्रमों को सही मानने लगते हैं और उसके अपराध में अनजाने में ही शामिल हो जाते हैं। ऐसे लोग अपने ज्ञान के माध्यम से लोगों में डर पैदा कर देते हैं। एक अनजाना डर। लोगों को डर से बाहर आकर महत्वपूर्ण विषयों के विमर्श को आगे बढ़ाना चाहिए। भारत में प्राचीन काल से ही चर्चा और विमर्श का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। बड़े-बड़े मुद्दों पर बुद्धिजीवी शास्त्रार्थ किया करते थे। किसी चर्चा में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्ष सामने आते हैं। संपूर्णता में कुछ भी आत्मसात करने के लिये स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है। ईमानदारी का आवरण नहीं। उच्च एवं अति उच्च शिक्षित होना व्यक्ति का चारित्रिक विश्लेषण नहीं करता। उच्च शिक्षित, उच्च पद पर प्रतिष्ठित एक धनवान भी संवेदना शून्य हो सकता है एवं इन सबसे रहित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में देश को आगे ले जाने के लिये सामाजिक विषयों के प्रति राजनेताओं सहित प्रत्येक नागरिक में संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है।

(विधि एवं प्रबंधन में परास्नातक लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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