मेरी महाकुम्भ यात्रा

रुचि श्रीमाली
मेरी महाकुम्भ यात्रा
144 वर्षों बाद लगने वाले महाकुम्भ में पहुंचकर मन रोमांचित था। दोस्तों से बोला था, महाकुम्भ में एक बार गंगा स्नान तो करना ही है। उन्होंने चिढ़ाया, हाँ भाई पाप धुल जायेंगे इसके तो। 1 – 2 मर्डर करती जा, पाप तो धुलने ही वाले हैं। तब मैंने किसी का गंगा स्नान पर व्याख्यान सुना। क्या गंगा स्नान से पाप धुल जाते हैं? इस बात को बड़े अच्छे से उन्होंने समझाया था। सनातन धर्म में कोई भी प्राणी पापी नहीं है। पाप करना मनुष्य का गुणधर्म नहीं है। सभी साक्षात् ब्रह्म का अंश हैं। किन्तु जब हम मनुष्य योनि में होते हैं, तो जाने-अनजाने कई बार कुछ अनुचित कार्य कर बैठते हैं, जिनका फल हमें भोगना ही पड़ता है। किन्तु गंगा स्नान हमें स्मरण कराता है कि यह हमारा मूल स्वभाव नहीं है। यदि मन में कुविचार हैं तो उन्हें त्याग दो। पाप की भावना मन से निकाल दो। आगे सत्कर्म ही करने हैं, यह ठान लो। जैसे माता बच्चे को गलत काम छोड़ कर सही काम करना सिखाती है, वैसे ही गंगा मैया भी हमें सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं। बस यही भाव ले कर मैं महाकुम्भ में गई। अंततः इच्छा पूरी हुई। साध्वी ऋतंबरा जी के आश्रम ‘वात्सल्य ग्राम’ में ठहरने की व्यवस्था हो गई। ट्रेन की टिकट भी मिल गई। मैं, मेरे पति महेश और बिटिया – तीनों चल पड़े प्रयागराज की ओर। रात को लगभग 12 बजे हम प्रयागराज जंक्शन पहुंचे। ट्रेन से उतर कर एग्जिट गेट की ओर जाने लगे। स्टेशन का पूरा वातावरण कुम्भमय था। बड़े बड़े पोस्टर्स लगे थे। कुछ के साथ हमने फोटोज भी लीं। जब स्टेशन से बाहर आ रहे थे, तब ध्यान गया कि स्टेशन कितना साफ़ है। ब्रिज की सीढ़ियाँ चमक रही थीं। आजकल तो बहुत यात्री आते होंगे, फिर भी इतना साफ? देख कर मन प्रसन्न हुआ। ऑटो लेकर हम आश्रम की ओर बढ़े। पूरा शहर जगमगा रहा था। उत्सव जैसा वातावरण था।
नागवासुकी मंदिर से हमें ‘टेंट विलेज’ की ओर जाना था। वहां से जो दृश्य दिखाई दिया, वो आश्चर्यचकित कर देने वाला था। जहाँ तक भी दृष्टि जाती थी, सिर्फ टेंट हाउसेस ही टेंट हाउसेस थे। और इतना प्रकाश जैसे दिन निकला हुआ हो। कदम कदम पर पुलिस की सुरक्षा। हमारे ऑटो वाले को 1 -2 बार शॉर्टकट मारने की इच्छा हुई, किन्तु पुलिस को देख कर बेचारा उल्टी दिशा में ऑटो नहीं चला पाया। देख कर अच्छा लगा कि उनमें पुलिस का डर है।
आखिर हम ‘वात्सल्य ग्राम’ आश्रम पहुँच गए। हमें अपने टेंट की चाबी मिली। हम टैंट में गए। स्वच्छता से जमाया हुआ टेंट था वो। हम तीनों के लिए पलंग थे, 2 कुर्सी और एक मेज भी थे। साथ में अटैच्ड बाथरूम भी था। इस टेम्पोरेरी व्यवस्था में सिर्फ कमरे ही नहीं टॉयलेट की व्यवस्था भी इतनी अच्छी? मैं तो देखती रह गई।
हम सफर से थके हुए थे, फौरन सो गए। सुबह आराम से उठे और प्रयागराज घूमने की योजना बनाई। हमारे एक और दोस्त दोपहर तक बैंगलोर से आने वाले थे। सोचा गंगा स्नान और त्रिवेणी संगम पर उन्हीं के साथ जायेंगे। उनके आने तक हमने चंद्रशेखर आज़ाद पार्क जाने का सोचा। नहा धो कर बाहर अल्पाहार करने पहुंचे। स्वादिष्ट छोले-भटूरे खा कर ऑटो ढूंढने का प्रयास किया, तो पता चला की भीड़ के कारण यहाँ ऑटो मिलना आसान नहीं है। लेकिन हमें एक ई रिक्शा मिल गया। ई रिक्शे से जाना भी काफी रोचक था। थोड़ी चढ़ाई आते ही वह रुक जाता था। हम उतर कर उसे धक्का देते थे। बड़ा मज़ा आ रहा था। ऐसे ही हम पार्क पहुँच गए।
पार्क में चंद्रशेखर आज़ाद की बड़ी सी मूर्ति ठीक उसी स्थान पर लगी है, जहाँ उन्होंने स्वयं को गोली मार ली थी। वो स्थान देख कर मन भावुक होने लगा। वहां सीढ़ियों पर बैठ कर महेश ने बिटिया को चंद्रशेखर आज़ाद की कहानी सुनाई। पास ही इलाहाबाद संग्रहालय भी है। मन में आया कि अभी तक इसका नाम क्यों नहीं बदला? प्रयागराज संग्रहालय होना चाहिए था। किन्तु शायद सभी नाम बदलना इतना आसान नहीं है। खैर, हमने संग्रहालय भी देखा। वहाँ के चौकीदार से महेश ने थोड़ी बातचीत की तो पता चला कि कुछ वर्ष पूर्व तक यह स्थान एकदम वीरान जंगल के समान था। योगी जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस स्थान को इतना सुन्दर बनवा दिया है। वह चौकीदार उनके गुण गाता नहीं थक रहा था।
तब तक बैंगलोर से आने वाली मेरी सहेली का भी फ़ोन आ गया कि वे एयरपोर्ट से निकल चुके हैं। हमने भी वापिस लौटने की सोची।
जब बाहर सड़क पर आये तो सड़क का दृश्य बदल चुका था। सामान्य ट्रैफिक वाली सड़क – हैवी ट्रैफिक वाली बन गई थी। कोई ऑटो आश्रम तक जाने को तैयार नहीं था। हम आश्रम से 3.5 किमी दूर थे। पैदल चलना प्रारम्भ किया। चलते चलते मार्ग में ‘भारद्वाज ऋषि का आश्रम’ पड़ा। यह वह स्थान है, जहाँ प्रभु श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण वनवास जाते समय रुके थे। आश्रम के दर्शन करके हमने फिर अपनी यात्रा पैदल ही जारी रखी। चलते चलते आखिर हम ‘वात्सल्य ग्राम पहुँच गए।
मेरी सहेली भी अपने पति एवं 2 बच्चों के साथ पहुँच चुकी थी। दिन का भोजन करके हमने थोड़ी देर विश्राम किया और फिर त्रिवेणी संगम जाने का निश्चय किया। महेश की तबियत ठीक नहीं थी। उन्हें थोड़ा बुखार था। वह दवाई लेकर सो गए। बाकी के हम 6 लोग त्रिवेणी संगम के लिए निकले। त्रिवेणी संगम आश्रम से लगभग 8 किमी की दूरी पर था। पास पहुंचके पहुंचते कुम्भ मेले का वास्तविक दृश्य सामने आने लगा। हजारों, लाखों भक्त चल रहे थे। कोई धक्का नहीं, कोई अभद्रता नहीं। एक पल को भी ऐसा नहीं लगा की इस भीड़ में मैं या मेरी बेटी असुरक्षित है। कहीं कहीं लाउडस्पीकर पर बोला जा रहा था कि फलां फलां व्यक्ति बिछड़ गए हैं, वे इस खोया-पाया केंद्र पर संपर्क करें। तभी मुझे वह मीम याद आ गया कि योगी सरकार किसी को कुम्भ में बिछुड़ने ही नहीं दे रही है। एक समय जब मेरी सहेली के पति शायद ज़रा आगे को निकल गए थे, और दिख नहीं रहे थे, तो मैंने उसे छेड़ा – कि संदीप जी बिछड़ गए हैं। क्या करें? तो तपाक से वो बोली – चिंता नहीं है, योगी सरकार मुझ तक उन्हें पहुंचा ही देगी।
बहुत भीड़ थी। इतनी भीड़ जीवन में कभी नहीं देखी थी। किन्तु फिर भी सब ओर स्वच्छता थी। प्लास्टिक का कचरा कहीं नहीं दिखा। सफाई कर्मचारी हर थोड़ी देर में सब साफ़ कर देते थे। लोग भी इधर उधर कचरा फेंकते कम ही दिखे। गंगा मैया तो एकदम स्वच्छ।
गंगा नदी के दोनों किनारों पर टेंट हाउसेस थे। अनेक आश्रम, अखाड़े आदि थे। नदी पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर पुल बनाये गए थे। ताकि यात्री किसी भी पार आसानी से जा सकें। त्रिवेणी संगम तक पहुँचते पहुँचते सूर्यास्त हो गया। हज़ारों बल्ब जगमगा उठे। संगम के आसपास नागा साधुओं के टेंट्स थे। मन हैरान रह गया कि इस ठण्ड में भी वे निर्वस्त्र कैसे रह लेते हैं। अनेक लोग उनके पास बैठ शायद अपना भविष्य पूछ रहे थे।
हम सब बहुत थक चुके थे – विशेष रूप से बच्चे। हमने लौटने का निश्चय किया, यह सोचते हुए कि कल फिर आएंगे। तभी महेश का फ़ोन आया कि आसमान में बहुत सुन्दर चित्रकारी दिख रही है, जो ड्रोन की सहायता से बनाई जा रही है। यह ड्रोन शो बहुत ही शानदार था। महेश आश्रम से वही देख रहे थे। इनका बुखार उतरा नहीं था। इनके लिए दूसरी दवाई लेते हुए आश्रम जाना था। अब दवाई कहाँ से लें? शहर के मेडिकल स्टोर तक जाना संभव नहीं था।
खैर, हमने आश्रम की ओर चलना प्रारम्भ किया। नज़रें लगातार मेडिकल स्टोर ढूंढ रही थीं। और ऑटो भी। कि शायद कोई ऑटो चलने को तैयार हो जाये। आधा रास्ता चलने के बाद एक ऑटो मिल गया, जिसने 1 -2 किमी की दूरी पार करा दी। तभी एक टेंट पर दृष्टि पड़ी। थोड़ी थोड़ी दूरी पर मेडिकल स्टोर्स और डॉक्टर्स की व्यवस्था की गई है। जो दवाई चाहिए थी, बिलकुल वही तो नहीं मिली, किन्तु कुछ दूसरी मिल गयीं।
रात होते होते बहुत ठंडा होने लगा था। दिन में धूप तेज़ थी, किन्तु रात ठंडी थी। गंगा के घाट का स्थान होने के कारण वहाँ चारों ओर रेत ही रेत थी। लाखों लोगों के चलने के कारण रेत उड़ भी रही थी। टेंट में आकर जब हाथ-पाँव-मुँह धोया तब बड़ा अच्छा लगा।
कुम्भ का पहला दिन बहुत रोचक रहा।
अगले दिन सुबह नाश्ता करके हम गंगा स्नान के लिए निकले। आश्रम से सवा किमी दूरी पर ही गंगा का घाट था। घाट पर अनेक लोग स्नान कर रहे थे। एक अलग ही भक्ति भरा वातावरण था। न जात-पात का भेद था, न स्त्री-पुरुष का, न आर्थिक स्तर का। सब एक साथ गंगा मैया में डुबकी लगा रहे थे। तभी लगा, न जाने लोग क्यों कहते हैं कि भारत में ऊँच-नीच है। वहाँ तो ऐसा कुछ नहीं था। समरसता का अद्वितीय उदाहरण था वो दृश्य।
हम सभी ने गंगा मैया में डुबकी लगाई। घाट पर ही कपड़े बदलने हेतु अनेक केबिन बने हुए थे। हर थोड़ी दूरी पर 4-4 केबिन का एक सेट था। इतने केबिन थे कि किसी को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ रही थी। कपड़े बदल कर हम गंगा किनारे रेत पर बैठ गए। तभी एक चाय वाले भैया आये। गंगा के ठन्डे ठन्डे पानी में स्नान के बाद और क्या चाहिए था। हमने उनसे चाय ली। तब कुछ ऐसा हुआ जो मेरे मन को अंदर तक छू गया।
उन चाय वाले भैया ने मुझ से कहा “दीदी, चाय का खाली कप गंगा में मत डालना। गंगा मैया मैली हो जाएँगी न। अभी सफाई वाले आएंगे, उन्हें दे देना।” मैं देखती रह गई। मन बहुत खुश भी था यह सुन कर और हैरान भी। एक समय था जब इस देश में लोग कचरा कहीं भी डाल देते थे, और आज एक चाय वाला भी समझ रहा है कि गंगा मैया को मैला नहीं करना है। भारत की प्राचीन दृष्टि लौट रही है।
आश्रम लौट कर दिन का भोजन किया। बहुत ही स्वादिष्ट भोजन था। उस दिन एकादशी थी, इसलिए साबूदाने की खीर भी बनी थी। थोड़ी देर आराम कर हम फिर निकल पड़े त्रिवेणी संगम की ओर। इस बार पता था कि ऑटो वगैरह कुछ नहीं मिलने वाला है। किन्तु हमारे जोश में कोई कमी नहीं थी।
रास्ते में आने वाले सभी आश्रमों, अखाड़ों, साधु-संतों, भक्तों की भीड़ सब देखते देखते हम चले जा रहे थे।
चाय, खाने पीने का सामान, पूजा का सामान, श्रृंगार का सामान, बच्चों केखिलौने आदि अनेकों दुकानें थीं। इस्कॉन का आश्रम स्थान, आर्ट ऑफ़ लिविंग, निरंजन अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा आदि देखे। तिरुपति बालाजी के मंदिर के भी दर्शन किये। बच्चों ने मैगी भी खाई।
त्रिवेणी तक तो पहुंचे किन्तु भीड़ के कारण गंगा यमुना का मिलान बहुत अच्छे से दिख न सका। पर वो दृश्य, वो स्थान मन में अंकित हो गया।
वापिस आश्रम आते समय बच्चे बहुत थक चुके थे। हम भी थक गए थे। तभी एक खाली मिनी ट्रक दिखा। मेरी सहेली ने उस से पूछा की वो बैठा लेंगे क्या? ट्रक वाले भैया ने तुरंत हाँ कर दी, और हम सब जैसे तैसे ट्रक के ऊपर चढ़ गए। पहिये पर पाँव रख कर ट्रक पर मैं पहली बार चढ़ी थी। ऐसा लग रहा था कि मानो सब लोग हमें ही देख रहे थे और हम एक राजा के सामान इठलाते हुई सवारी का आनंद ले रहे थे। कुछ दूरी के बाद ट्रक वाले को दूसरी दिशा में जाना था, उन्होंने वहां उतार दिया। हमने उन्हें पैसे देने चाहे किन्तु उन्होंने नहीं लिए। उन्हें बहुत धन्यवाद देकर हमने फिर आगे का रास्ता पैदल चलना प्रारम्भ किया। आश्रम पहुँचने तक काफी रात हो गई थी।
अगले दिन सुबह हमें निकलना था। आश्रम के आवास, भोजन आदि किसी का भी कोई शुल्क नहीं था। आपकी जितनी श्रद्धा हो आप दान दे सकते थे। 100 रुपए देने वाले और 10,000 देने वाले में कोई अंतर ही नहीं था। गंगा मैया की गोद में सब समान थे। हमने रात में ही सहयोग राशि दी, क्योंकि सुबह बहुत जल्दी हम निकल जाने वाले थे।
लौटने का मन नहीं कर रहा था। किन्तु लौटना तो था। महाकुम्भ का सुन्दर अनुभव अपने ह्रदय में संजोए हम अपने घर वापिस आ गए।