बदलते वैश्विक शक्ति समीकरण 

बदलते वैश्विक शक्ति समीकरण

बलबीर पुंज

बदलते वैश्विक शक्ति समीकरणबदलते वैश्विक शक्ति समीकरण 

क्या वैश्विक परिदृश्य और शक्ति समीकरणों में व्यापक फेरबदल होने वाला है? पहले विश्वयुद्ध (1914-18) के बाद अमेरिका दुनिया की बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति बनकर उभरा। यह तमगा पहले ब्रिटेन के पास था। कालांतर में इसी प्रतिस्पर्धा में साम्यवादी सोवियत संघ भी शामिल हो गया। एक समय ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद अमेरिका, सोवियत संघ से पिछड़ जाएगा। लेकिन यह नहीं हुआ। हिंसा-अमानवीय केंद्रित साम्यवाद की असलियत सामने आने के बाद और बड़ी सैन्य शक्ति होने के बावजूद सोवियत संघ दिसंबर 1991 आते-आते ढह गया। वह ऐसा बिखरा कि उसके 15 टुकड़े हो गए। शक्ति समीकरणों में वर्तमान रूस, सोवियत संघ की परछाईं मात्र है। कहते है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। वर्ष 2025 से इस वैश्विक शक्ति संतुलन में फिर से बदलाव आने की संभावना है। बीते कुछ वर्षों से आशंका व्यक्त की जा रही है कि साम्यवादी चीन वर्तमान प्रभुत्व के दौर में अमेरिका को पछाड़ देगा। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी कई अवसरों पर कह चुके हैं कि 21वीं सदी पर चीन का वर्चस्व होगा। क्या ऐसा है? 

चीन इस समय लगभग 18 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिकी है। अमेरिका 30 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ पहले, तो भारत चार ट्रिलियन डॉलर से अधिक की जीडीपी के साथ विश्व में पांचवें स्थान पर है। ऑस्ट्रेलियाई रणनीतिक नीति संस्थान (एएसपीआई) का अनुमान है कि चीन अब 44 में से 37 उच्च-तकनीकी रणनीतिक क्षेत्रों में अमेरिका से आगे निकल चुका है। हाल ही में चीन ने अपना आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपक्रम ‘डीपसीक’ विकसित किया, जोकि इसी क्षेत्र में पहले से स्थापित अमेरिकी उत्पाद ‘चैट-जीपीटी’ को चुनौती दे रहा है। यह अलग बात है कि सुरक्षा कारणों से अमेरिकी संसद और ताइवान ने ‘डीपसीक’ पर प्रतिबंध लगा दिया है। कुछ यूरोपीय देश भी इस पर कार्रवाई कर सकते हैं। हालिया रिपोर्टों से स्पष्ट है कि ‘डीपसीक’ तकनीकी क्रांति कम, साम्राज्यवादी चीन का भोंपू अधिक है। जो प्रश्न चीन के सामरिक-व्यापारिक हितों पर प्रहार करते हैं, उस पर ‘डीपसीक’ या तो मौन हो जाता है या फिर घोषित चीनी प्रोपागेंडा के अंतर्गत उत्तर देता है। यह सर्व विदित है कि इस्लामी आतंकवाद के बाद विस्तारवादी चीन की विकृत नीतियां (कर्ज मकड़जाल और भू-जल विवाद सहित) वैश्विक शांति के लिए खतरा बन रही हैं। 

वास्तव में, साम्यवादी चीन के वैश्विक उभार में अमेरिका का प्रत्यक्ष-परोक्ष योगदान है। लगभग 35 वर्ष पहले विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। एक ओर अमेरिका (1776 से अब तक) था, तो दूसरी तरफ साम्यवादी सोवियत संघ (1922-1991)। इन दोनों शक्तियों में टकराव इस चरम पर था कि जहां अमेरिका ने अप्रैल 1949 में सोवियत संघ विरोधी नाटो नामक सैन्य गठबंधन स्थापित कर दिया, वहीं तत्कालीन शीर्ष सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव (1894-1971) खुलेआम पश्चिमी देशों और अमेरिका को धमकाते हुए कहा करते थे— “हम तुम्हें दफना देंगे”। जब साम्यवादी सोवियत संघ ने वर्ष 1979 में अफगानिस्तान पर हमला किया, तब उसे पछाड़ने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की सहायता से अफगानिस्तान में ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा से प्रेरित मुजाहिद्दीनों को लामबंद किया। इस उपक्रम से तालिबान सहित कई इस्लामी आतंकवादी संगठनों का जन्म हुआ। 

एक समय अमेरिका के लिए सिर दर्द बने सोवियत संघ की आर्थिक प्रगति इसलिए भी धीमी हो गई, क्योंकि वह खाद्यान्न के लिए अमेरिका-यूरोपीय संघ पर निर्भर और सबसे बढ़कर उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में असफल रहा। इसका बड़ा कारण सोवियत संघ की योजनाओं में उत्पादकता बढ़ाने हेतु कोई व्यवस्था का भी नहीं होना था। बात केवल सोवियत संघ तक सीमित नहीं। दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) में पराजित होने के बाद अमेरिका का सहयोगी बना जापान भी एक आर्थिक परिवर्तन के दौर से गुजरा। जल्द ही उसने अमेरिका को ऑटोमोबाइल, स्टील और इलेक्ट्रॉनिक्स में कड़ी चुनौती दी। जापानी शेयर बाजार और रियल एस्टेट में भारी सट्टेबाजी से जापान के बैंक तकनीकी रूप से दिवालिया हो गए, लेकिन बैंक ऑफ जापान ने उन्हें वर्षों तक वेंटिलेटर पर जिंदा रखा। इसके परिणामस्वरूप, असाधारण उत्पादकता वाले जापान की अर्थव्यवस्था भी ठहर गई। 

सोवियत संघ के विघटन के बाद लगा कि अब दुनिया मुक्त-बाजार पूंजीवाद, पश्चिमी लोकतंत्र और उदारवाद के रास्ते चलेगी। अमेरिकी लेखक और राजनीतिक विश्लेषक फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी पुस्तक ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ में भी यही तर्क दिया। लेकिन उनका आंकलन गलत साबित हुआ, क्योंकि दुनिया किसी एक तयशुदा प्रणाली (वैश्वीकरण सहित) से नहीं चल सकती। अमेरिका ने साम्यवादी चीन (1949 से अब तक) को मुक्त-बाजार के माध्यम से अपना ‘दुमछल्ला’ बनाने का प्रयास किया। वर्ष 1978 से चीन ने मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ की आर्थिक नीतियों को छोड़कर अपनी अर्थव्यवस्था को उस पूंजीवाद से जोड़ा, जिसमें मानवता का कोई स्थान नहीं था। मानवाधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से मुक्त चीन की पूंजीवादी व्यवस्था और निरंकुश साम्यवादी शासन का मिश्रण, शीघ्र ही विकास-उद्योग के मामले में लोकतांत्रिक देशों से आगे निकल गया और वह एक बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति बन गया। वही चीन अब अमेरिका की जगह लेना चाहता है। क्या ऐसा संभव है? 

यह ठीक है कि चीनी कंपनियां आपस में कड़ी प्रतिस्पर्धा करती हैं, जिससे उनकी उत्पादकता बढ़ती है और विश्वस्तरीय कंपनियों का निर्माण होता हैं। आज वह सौर और पवन ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, बैटरियों आदि महत्वपूर्ण नए क्षेत्रों में अग्रणी है। अमेरिका और यूरोपीय देश मानते हैं कि चीन उन्हें उद्योगहीनता की ओर धकेल रहा है और इससे उनकी सुरक्षा गंभीर खतरे में आ गई है। इसलिए उन्होंने चीन पर भी व्यापारिक प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि चीनी अर्थव्यवस्था, जो पहले 10 प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ रही थी, अब वह 3-5 प्रतिशत पर अटक गई है। जो चीनी कंपनियां तेज़ी से विस्तार करके विश्व में अपनी जगह बनाती थीं— उनके दिन कोविड-19 के बाद लदने लगे है। आज अमेरिका राष्ट्रपति ट्रंप के नेतृत्व में कड़े तेवरों और नीतियों के साथ मैदान में है। चीन भी ताल ठोककर स्वयं को विश्व की अग्रणी आर्थिक-सामरिक शक्ति बनाने हेतु कटिबद्ध है। इसमें कौन जीतेगा या कौन नहीं— इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। परंतु यह तय है कि इससे वैश्विक परिदृश्य और शक्ति संतुलन में बदलाव आएगा। 

(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक हैं)

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