भारतीय संत परंपरा में संत रविदास

भारतीय संत परंपरा में संत रविदास

डॉ. काना राम रैगर 

भारतीय संत परंपरा में संत रविदासभारतीय संत परंपरा में संत रविदास

15वीं सदी में भेदभाव, जातिगत ऊंच – नीच, अंधविश्वास जैसी सामाजिक विषमताएं पग- पग पर व्याप्त थीं। उस समय अध्यात्म और सनातन संस्कृति के संवाहक संतों ने अपनी वाणी द्वारा उनको दूर करने का कार्य किया। भारतीय संत परंपरा में संत कबीर का नाम प्रमुखता से आता है, तो उनके समकालीन ही संत रविदास, मलूकदास, दादू दयाल, संत पीपा, पलटूदास, सुंदरदास आदि का उल्लेख भी प्राप्त होता है। संत रविदास एक महान संत थे। मृदु –स्वभाव, महान – विचार, आत्मानुभव, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के कारण उनके अंदर एक ऐसी प्रतिभा जाग्रत हो चुकी थी कि जो भी उनके संपर्क में आता था, मंत्र मुग्ध हो जाता था। वे सादा जीवन व्यतीत करते थे। हाथ का कमाया खाना, थोड़े में संतुष्ट रहना, सुख दुःख में मन:स्थिति को समान रखना आदि उनके स्वभाव के अंग थे। वे चर्मकार समाज से थे। लेकिन भगवान में अटूट भक्ति और विश्वास के कारण उनमें हीन भावना लेश मात्र भी नहीं थी। वह अपना पैतृक काम करते हुए बेधड़क भजन कीर्तन भी करते थे।

संत रविदास कबीर के समकालीन थे। उनका जन्म सन् 1388 ई. में उत्तर प्रदेश के बनारस के मांडूर ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम रघु, माता का नाम कर्मा देवी था एवं विवाह लोना नामक महिला से हुआ था। गरीब परिवार में जन्मे रविदास विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे कवि होने के साथ – साथ क्रांतिकारी और मौलिक विचारक भी थे। उन्होंने लोक में जो कुछ परंपरागत रूप से प्रचलित देखा, उसको सत्य की कसौटी पर परिमार्जित किया। जो उन्हें ठीक लगा, उसका उन्होंने निर्भय होकर प्रचार किया। रविदास स्वभावत: मानवतावादी थे। इसलिए भक्ति के द्वारा प्रज्ञा और चेतना की पूर्ण अधिकारिता के प्राप्त होने के पश्चात् भी समाज की दीनहीन – अवस्था, दुर्दशा और भेद भाव उनकी आंखों से ओझल नहीं हो सके थे। बुराइयों पर सीधा कटाक्ष करने वाले संत रविदास के आज भी देश में लाखों अनुयाई हैं। गुरुग्रंथ साहिब की साखियां उनके द्वारा रचित हैं। कृष्ण भक्त मीरा ने उनसे दीक्षा ली थी। ईश्वर के प्रति उनकी आस्था, भक्ति, निश्छल प्रेम और समर्पण का भाव उनकी रचनाओं में परिलक्षित होता है – 

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,

जाकी अंग अंग बास समानी।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, 

ऐसी भगति करै रैदासा॥

जातिभेद पर संत रविदास कहते थे कि सभी का प्रभु एक है तो यह जातिभेद जन्म से क्यों आ गया? यह मिथ्या है –

जाति एक, जामें एकहि चिन्हा, 

देह अवयव, कोई नहीं भिन्ना॥ 

कर्म प्रधान ऋषि-मुनि गावें, 

यथा कर्म फल तैसहि पावें॥ 

जीव कै जाति बरन कुल नाहीं, जाति भेद है जग मूरखाईं॥

नीति-स्मृति-शास्त्र सब गावें, जाति भेद शठ मूढ़ बतावें॥

अर्थात् जीव की कोई जाति नहीं होती, न वर्ण, न कुल। ऋषि-मुनियों ने वर्ण को कर्म प्रधान बताया है, हमारे शास्त्र भी यही कहते हैं। जाति भेद की बात, मूढ़ और शठ करते हैं। वास्तव में सबकी जाति एक ही है।

कुछ लोगों ने उनका उपहास भी उड़ाया। लेकिन धैर्य, शालीनता, संयम जैसे गुणों से पूर्ण संत रविदास ने अपने आचरण , व्यवहार, विचारों की श्रेष्ठता और ईश्वर भक्ति से यह प्रतिस्थापित कर दिया कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान होता है। संत रविदास ने जन समुदाय की पीड़ा को समझा और उसे ही अपनी वाणी के द्वारा प्रस्तुत किया। उनके जीवन और काव्य का प्रमुख उद्देश्य जातिगत भेदभाव को मिटाकर सामाजिक समरसता, समता और बंधुत्व की भावना का संचार करना था। वह कहते थे, जाति तो कदली के पेड़ के समान है। जिस तरह केले के पेड़ में एक पत्ते के नीचे फिर पत्ता होता है, वही स्थिति जाति की होती है-

जाति – जाति में जाति है,

जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके,

जब तक जाति न जात॥

संत रविदास एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें कोई भेदभाव, ऊंच – नीच न हो, कोई दीन – हीन एवं दु:खी न हो। सबमें आपसी प्रेम भाव और बंधुता समाहित रहे। सब समान आदर भाव से मिलें- 

ऐसा चाहो राज में,

जहां मिले सबन को अन्न।

छोटो बड़ो सब सम बसे,

रैदास रहें प्रसन्न॥

संत रविदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। वह कहते थे, निर्गुण ब्रह्म ही इस संसार के पोषणकर्ता, आधार स्तंभ, करुणा के सागर एवं कृपालु हैं, जिनके दृष्टिपात से अष्टादश सिद्धियां स्वयं उत्पन्न होती हैं। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म का जो स्वरूप बताया है, उसके विवेचन में शिवरूप स्तुति तथा श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण का विराट स्वरूप दिखाई देता है। सनातन धर्म में उनकी अटूट आस्था थी। उनकी प्रतिष्ठा और बढ़ते प्रभाव को देखकर मुगल शासकों ने उन पर मुसलमान बनने का दबाव बनाया। लेकिन संत रविदास अपनी धार्मिक निष्ठा पर अडिग रहे और अपने अनुयायियों को भी सनातन धर्म और संस्कृति की महत्ता का संदेश दिया। उन्होंने कहा –

वेद वाक्य उत्तम धरम,

निर्मल बांका ज्ञान।

यह सच्चा मत छोड़कर,

मैं क्यों पढूं कुरान॥

मुसलमान बनने से मना करने पर सिकन्दर लोदी ने संत रविदास को कठोर दण्ड देने की धमकी दी तो उन्होंने निर्भीकता से उत्तर दिया –

मैं नहिं दब्बू बाल गँवारा,

गंग त्याग गहूँ ताल किनारा। 

प्राण तजूं पर धर्म न देऊँ, तुमसे शाह सत्य कह देऊँ॥

चोटी शिखा कबहुँ नहिं त्यागूं, 

वस्त्र समेत देह भल त्यागूं। 

कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, 

चाहें डुबावो सिन्धु मंझारा॥

वह कहते थे, सत्य एक है और वह सनातन है और वेदों में निहित है। संत रविदास वेदों में निहित ज्ञान के प्रबल समर्थक एवं प्रचारक थे। उन्होंने कहा कि-

सत्य सनातन वेद है,

ज्ञान धर्म मर्याद।

जो न जाने वेद को,

व्यर्थ करें बकवाद॥

संत रविदास कहते थे, यह शाश्वत सत्य है कि अपनी जाति के कारण किसी व्यक्ति ने इतिहास में अपना स्थान नहीं बनाया। स्वामी रामानन्द ने धन्ना (जाट), सेना (नाई), रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा) को शिष्य क्यों बनाया? मेवाड़ के राणा परिवार की वैभव सम्पन्न कुलवधू मीरा, काशी नरेश तथा झाली रानी ने संत रैदास को क्यों अपना गुरु बनाया? व्यक्ति को बड़ा बनाने का कार्य उसकी ईश्वर-भक्ति, विद्या, कर्मठता, चरित्र, श्रद्धा, उदारता, कर्तव्यपरायणता तथा मानवीय पहलू ही करते हैं, उसकी जाति नहीं।

(सहायक क्षेत्रीय निदेशक, इग्नू)

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