घृणा से सराबोर विचारधारा

बलबीर पुंज
घृणा से सराबोर विचारधारा
गत दिनों ऑस्ट्रेलिया से एक अत्यंत भयावह वीडियो सामने आया। इसने एक ऐसे पेशे को कलंकित किया, जिस पर मानवीय जीवन की रक्षा का दायित्व होता है। इस वीडियो को न केवल कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने सत्यापित किया है, अपितु ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथोनी अल्बनीज ने ‘घिनौना और शर्मनाक’ भी बताया है। यह हृदय विदारक इसलिए भी है, क्योंकि इसमें चिकित्सा सेवा दे रहे दो नर्स न केवल मजहबी कारणों से एक वर्ग विशेष के रोगियों के साथ भेदभाव की बात गौरवान्वित होकर स्वीकार रहे हैं, बल्कि वे घृणा की धधकती आग में उपचाराधीन यहूदी रोगियों को जान से मारने का भी दावा कर रहे हैं। आखिर मजहब के नाम पर मानवों को प्रताड़ित करने के पीछे यह कौन-सा जहरीला दर्शन है?
बात ऑस्ट्रेलिया में सिडनी स्थित बैंक्सटाउन अस्पताल की है। यहां कार्यरत दो मुस्लिम नर्सों (महिला सहित) को 11 फरवरी को ढाई मिनट के वीडियो चैट में एक इजराइली व्यक्ति से संवाद करते हुए दिखाया गया। इसमें पुरुष चिकित्साकर्मी कहता है, “मैं इस बात से अत्यंत व्यथित हूं कि आप इजराइल से हैं, आपको मरना ही होगा।”
इसमें दोनों नर्स स्वीकार करते हैं कि उन्होंने उपचाराधीन कई यहूदी मरीजों को ‘जहन्नुम’ भेजा है अर्थात् मौत के घाट उतारा है। गत एक वर्ष से ऑस्ट्रेलिया में गैर-मुस्लिम विशेषकर यहूदी-विरोधी भावनाओं में एकाएक वृद्धि हुई है। समुदाय से जुड़े लोगों के घरों, कार्यालयों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में तोड़फोड़ की कई खबरें आई हैं। इसमें एक स्कूल और दो सिनेगॉग (यहूदी पूजास्थल) को आग के हवाले तक कर दिया गया था।
यहूदियों से घृणा केवल ऑस्ट्रेलिया तक सीमित नहीं। अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी कुछ समय से ऐसे मामलों में वृद्धि हुई है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में बीते 7 नवंबर को एक फुटबॉल मैच के दौरान यहूदियों को फिलीस्तीन समर्थकों द्वारा निशाना बनाया गया था। वर्ष 2022-23 के बीच नीदरलैंड में यहूदियों पर हमलों में 245 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसी अवधि में ब्रिटेन में 550 यहूदी-विरोधी घटनाएं दर्ज हुई थीं। फ्रांस भी इससे अछूता नहीं है।
अधिकतर तर्कवादी हालिया यहूदी-विरोधी घटनाओं को 7 अक्टूबर 2023 को फिलीस्तीन समर्थक आतंकवादी संगठन हमास द्वारा इजराइल पर घातक जिहादी हमले और प्रतिक्रियास्वरूप उस पर गाजा-पट्टी पर इजराइली सैन्य कार्रवाई, जिसमें विभिन्न एजेंसियों द्वारा 50 हजार से अधिक लोगों की मौत का दावा किया जा रहा है— उससे जोड़कर देखते हैं। अकाट्य सच तो यह है कि यहूदियों को किसी एक हालिया घटना से नहीं, बल्कि उन्हें मजहबी आधार पर चौथी शताब्दी से ईसाइयत और फिर आठवीं सदी में इस्लाम के उदय से सतत उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।
मध्यकालीन यूरोप में यहूदियों का मजहबी दमन और तीव्र हुआ। वर्ष 1466 में तत्कालीन पोप पॉल-2 के निर्देशानुसार, क्रिसमस के दिन रोम में यहूदियों को निर्वस्त्र कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। कालांतर में यहूदी पुजारियों (रब्बियों) को विदूषक के वस्त्र पहनाकर परेड कराई जाने लगी। 25 दिसंबर 1881 को पोलैंड के वारसॉ में 12 यहूदियों की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई। इस प्रकार के उत्पीड़न की अनगिनत घटनाएं प्रमाणित करती हैं कि यहूदी-विरोधी अभियानों ने सदियों तक यूरोप में उनके लिए एक असुरक्षित और हिंसक वातावरण बनाया, जिसे चर्च का समर्थन प्राप्त था।
गहरी जड़ें जमा चुकी इसी घृणा ने 20वीं शताब्दी में वर्ष 1933-45 के बीच एडोल्फ हिटलर के नेतृत्व में यहूदियों के व्यापक नरसंहार, ‘होलोकॉस्ट’ का रूप लिया। इस अभियान को चर्च का प्रारंभिक समर्थन प्राप्त था, जिसका बाद में चर्च ने विरोध शुरू कर दिया। विभिन्न दावों के अनुसार, इस अवधि में लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई, जिसमें 15 लाख बच्चे भी शामिल थे। यह विचारणीय है कि एक ईसाई परिवार में जन्मे हिटलर को यहूदी-विरोधी हिंसा की प्रेरणा कहां से मिली?
दुनिया में मजहबी घृणा का शिकार केवल यहूदी नहीं हैं। यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया के विलाच में बीते 15 फरवरी को एक सीरियाई शरणार्थी ने मजहबी उन्माद में छह लोगों पर चाकू से हमला कर दिया, जिसमें एक की मौत हो गई। ऑस्ट्रियाई गृहमंत्री इसे ‘इस्लामी आतंकवाद का उद्देश्य’ बताया है। इसी तरह फ्रांस के मुलहाउस में 22 फरवरी को 37 वर्षीय अल्जीरियाई नागरिक, जोकि फ्रांसीसी आतंकी निगरानी सूची में था— उसने “अल्लाहु अकबर” चिल्लाते हुए एक समूह पर हमला कर दिया, जिसमें एक की मौत हो गई, जबकि तीन घायल हो गए। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे ‘इस्लामी आतंकवाद’ बताया है। अमेरिका में न्यू ऑरलियन्स स्थित बोरबन स्ट्रीट्स में नववर्ष का जश्न मना रहे लोगों पर पूर्व अमेरिकी सैन्य अधिकारी शम्सुद्दीन जब्बार ने ट्रक चढ़ा दिया था। इसमें 15 लोग मारे गए। जांच में जब्बार के घर जो खुली हुई कुरान मिली, उसमें लिखा था, “…वे अल्लाह के लिए लड़ते हैं, और मारते हैं और खुद मारे जाते हैं…।”
बात यदि भारतीय उपमहाद्वीप की करें, तो यहां मजहब के नाम पर अत्याचार की शुरुआत 8वीं शताब्दी में अरब आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण के साथ हुई। इस्लामी आक्रांताओं की इसी मानसिकता से प्रेरित होकर गजनी, गौरी, खिलजी, तैमूर, तुगलक, बाबर, औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे शासकों ने भारत की मूल सनातन संस्कृति, मानबिंदुओं और परंपराओं को नष्ट करने का प्रयास किया। इन आक्रांताओं के वैचारिक उत्तराधिकारी आज भी भारतीय उपमहाद्वीप में इसी जहरीली चिंतन के साथ सक्रिय हैं। इसी जिहादी मानसिकता के कारण भारत का बड़ा भाग (वर्तमान अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) इस्लाम के नियंत्रण में चला गया, जहां हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन किसी शरीयत व्यवस्था के अनुरूप अनुयायी दोयम दर्जे के नागरिक है।
जब मध्यकाल में उत्तर-भारत इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त था, तब 16वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में जेसुइट मिशनरी फ्रांसिस ज़ेवियर ने ईसाइयत के प्रचार हेतु कदम रखा। उसने ‘गोवा इंक्विज़ीशन’ के अंतर्गत न केवल हिंदुओं, बल्कि उन ईसाइयों के विरुद्ध भी हिंसक मजहबी अभियान चलाया, जो रोमन कैथोलिक चर्च की मान्यताओं-परंपराओं का पालन नहीं कर रहे थे। इसकी भयावहता को संविधान-निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर ने अपनी रचनाओं में उकेरा था। विडंबना है कि यह रिलीजियस कन्वर्जन स्वतंत्रता के बाद सेकुलरवाद के नाम पर आज भी जारी है, जिसमें लालच, धोखाधड़ी और भय का सहारा लिया जाता है।
यह चिंतनीय है कि स्वयं को सभ्य कहने वाले लोग, घृणा फैलाने वालों को महिमामंडित करते हैं। अपने कर्मों के कारण ‘हिटलर’ और ‘गोडसे’ नामों को गाली का पर्याय माना जाता है। परंतु ‘स्टालिन-लेनिन’ जैसे तानाशाहों का वैसा तिरस्कार नहीं किया जाता, जिनके आदेश पर लाखों निर्दोष लोगों को केवल वैचारिक मतभेद-असहमति के कारण मौत के घाट उतार दिया गया था। भारत में एक विख्यात फिल्मी परिवार ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा, जो इस बात का प्रमाण है कि क्रूर आक्रांताओं को गौरवान्वित करने की मानसिकता आज भी जीवित है। वर्ष 1398 में तैमूर ने भारत पर आक्रमण केवल इसलिए किया था, क्योंकि वह मानता था कि तत्कालीन मुस्लिम शासक हिंदुओं के प्रति उतना क्रूर नहीं थे, जितना एक ‘काफिर’ के साथ होना चाहिए।
यह कटु सत्य है कि घृणा से घृणा का ही जन्म होता है। इससे प्रेरित हिंसा और उसके प्रतिरोध (इजराइली सैन्य कार्रवाई सहित) का चक्र तब तक नहीं रुकेगा, जब तक मानवता उस विचारधारा से मुक्ति न पा ले, जो अपने सिवा अन्य सभी को अस्वीकार करते हैं और उन्हें जान से मारने को अपना दैवीय कर्तव्य मानते हैं।
(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक हैं)