नीमड़ा हत्याकांड: भारतीय ‘स्व’ के जागरण के दमन का षड्यंत्र

नीमड़ा हत्याकांड: भारतीय 'स्व' के जागरण के दमन का षड्यंत्र

   डॉ. अभिमन्यु

नीमड़ा हत्याकांड: भारतीय 'स्व' के जागरण के दमन का षड्यंत्रनीमड़ा हत्याकांड: भारतीय ‘स्व’ के जागरण के दमन का षड्यंत्र

नीमड़ा हत्याकांड राजस्थान के इतिहास की ऐसी घटना है, जिस पर इतिहासकारों ने ध्यान नहीं दिया या जानबूझकर इसकी उपेक्षा की। सरकार द्वारा प्रकाशित इतिहास की पुस्तकों में भी इस घटना के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती या कहीं मिलती भी है तो मात्र दो-तीन लाइनों में इसे समेट दिया जाता है।

नीमड़ा हत्याकांड के बारे में बात करें तो मोतीलाल तेजावत मार्च 1922 में गुजरात की ईडर रियासत में प्रवेश करते हैं। वे अपने 2 हजार भील अनुयायियों के साथ नीमड़ा गांव में रुके हुए थे। यहीं पर 7 मार्च, 1922 को अंग्रेज अधिकारी मेजर सटन के नेतृत्व में मेवाड़ भील कोर के सैनिकों ने उन्हें घेर लिया तथा उन पर अंधाधुंध गोलियों की बौछार शुरू कर दी। इस नृशंस हत्याकांड में 1200 भीलों ने अपने प्राणोत्सर्ग कर दिए। अंग्रेज सरकार एवं देशी रियासत ने इस घटना को दबाने का प्रयास किया एवं मात्र 22 अनुयायियों के मरने की जानकारी दी।

अब अगर हमें यह समझना है कि नीमड़ा हत्याकांड भीलों में जागृत हो रहे ‘स्व’ के भाव का दमन है, तो हमें थोड़ी चर्चा गोविंद गिरि के नेतृत्व में चले भील आंदोलन की भी करनी होगी। ऐतिहासिक स्रोतों से यह स्पष्ट है कि गोविंद गुरु पर दयानंद सरस्वती एवं 1857 ई. की क्रांति का प्रभाव था। हम यह भी जानते हैं कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने भारतीयों में स्वभाषा, वैदिक धर्म, स्वदेशी एवं स्वदेशाभिमान की भावना जागृत करने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। इन्हीं से प्रेरणा पाकर गोविंद गिरि ने ‘सम्प’ सभा की स्थापना की। इस सभा के द्वारा सामाजिक व राजनीतिक चेतना जागृत करने का प्रयास किया गया। संप सभा के कुछ मुख्य नियम जैसे शराब न पीना, नित्य स्नान, ईश्वर पूजा तथा हवन करना, स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग करना, आपसी विवादों के निर्णय पंचायत में करना, चोरी और लूटमार नहीं करना, डकैती नहीं करना, बेगार नहीं करना और अन्याय का विरोध करना आदि थे।इससे स्पष्ट है कि भीलों में स्व के भाव का जागरण हो रहा था। यह बात तब और स्पष्ट हो जाती है, जब गोविंद गुरु के नेतृत्व में 1913 के भीलों के विद्रोह का तात्कालिक कारण उनके समाज व धर्म सुधार आंदोलन के प्रति सरकार के व्यवहार को माना गया। इस बात का विश्लेषण दक्षिणी राजपूताना राज्यों के पॉलिटिकल एजेंट द्वारा मेवाड़ प्रेसिडेंट को लिखे पत्र से भी हो जाता है, जिसमें वह पुलिस द्वारा उनके धर्म एवं पूजा स्थलों के अपमान की चर्चा करता है।

गोविंद गिरि की गिरफ्तारी के बाद १९१३ से १९२१ के मध्य भील आंदोलन के नेतृत्व में तब तक खालीपन रहा, जब तक 1921 में मोतीलाल तेजावत ने एकी आंदोलन की शुरुआत नहीं कर दी थी। वैसे सीधे तौर पर गोविंद गिरि एवं मोतीलाल तेजावत के मध्य सीधा सम्बन्ध नहीं था, किंतु यह बात स्पष्ट है कि मोतीलाल तेजावत का आंदोलन गोविंद गिरि द्वारा प्रतिपादित विचारों का विस्तार था।

मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में चला भील आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत व देशी रियासतों के विरुद्ध राजनीतिक आर्थिक विद्रोह के साथ-साथ सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन भी था। जहां एक और एकी आंदोलन के उद्देश्यों में शामिल थे अत्यधिक लगान को कम करवाना, अन्यायपूर्ण लागतों को समाप्त करवाना, बेगार से किसानों को मुक्ति दिलवाना, आदिवासियों को वन संपदा का प्रयोग करने का अधिकार दिलवाना, राज्य कर्मचारी एवं जागीरदारों के अत्याचारों पर रोक लगाना, वहीं दूसरी ओर जनजातियों में व्याप्त बुराइयों एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन चलाना। मोतीलाल तेजावत ने भीलों में प्रचलित कुरीतियों, मद्यपान, गोवध, कन्या क्रय विक्रय आदि के विरुद्ध अभियान चलाया। साथ ही उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी प्रेरित किया।

अब तक के विश्लेषण में भील आंदोलन में हमें गोवध निषेध, वनवासियों द्वारा वन संपदा का प्रयोग करने का अधिकार मांगना, स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग, ईश्वर पूजा एवं हवन करना, आपसी विवादों को पंचायत द्वारा निपटाना, महिलाओं की स्थिति को सुधारने के प्रयास, अत्याचारों के विरोध करने जैसी मुख्य मुख्य बातों का उल्लेख मिलता है, साथ ही इस आंदोलन पर स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों का प्रभाव होना, इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि भीलों के अंदर स्व के भाव का जागरण हो रहा था, जो कि अंग्रेज सरकार एवं देसी रियासतों को स्पष्ट रूप से चुनौती दे रहा था।

भीलों के अंदर उत्पन्न इस भाव को अंग्रेज भलीभांति समझ रहे थे, लेकिन दुख की बात है, उस समय कांग्रेस एवं उसके नेताओं ने इस आंदोलन को कोई महत्व नहीं दिया। इसी प्रकार गांधीजी भीलों में सामाजिक सुधार के पक्षधर तो थे, किंतु उनके राजनीतिक आर्थिक संघर्ष की ना तो अनुशंसा करते थे, न ही समर्थन देते थे। एक प्रश्न यह भी उठता है, कि गांधी जी इस आंदोलन को सच्चा मानते थे तो इसका समर्थन क्यों नहीं किया। ऐसे प्रश्नों के उत्तर इतिहासकारों को ढूंढने चाहिए तथा इस बात पर भी विश्लेषण करना चाहिए कि इतने बड़े हत्याकांड को इतिहास में उचित स्थान क्यों नहीं मिला?

इस प्रकार नीमड़ा हत्याकांड अंग्रेजी शासन एवं देसी रियासतों की काली करतूतों का काला चिट्ठा तो है ही, साथ ही उस समय के तथाकथित देशभक्तों की उदासीनता का परिचायक भी है। लेकिन आम भारतीय इस नीमड़ा हत्याकांड में 1200 निर्दोष भीलों के बलिदान को भूला नहीं है, जिन्होंने अपने स्वधर्म एवं स्वदेशाभिमान के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया था।

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