अब पटेल में अपनी राजनीतिक जड़ें ढूंढ रही कांग्रेस

अब पटेल में अपनी राजनीतिक जड़ें ढूंढ रही कांग्रेस

बलबीर पुंज

अब पटेल में अपनी राजनीतिक जड़ें ढूंढ रही कांग्रेसअब पटेल में अपनी राजनीतिक जड़ें ढूंढ रही कांग्रेस

गत 8-9 अप्रैल को कांग्रेस का अधिवेशन, गुजरात के अहमदाबाद में संपन्न हुआ। 1961 के बाद यह पहली बार है, जब पार्टी नेतृत्व ने गुजरात में कोई बड़ी बैठक की। इस आयोजन से कांग्रेस ने स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ‘लौहपुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल, जिनकी इस वर्ष 150वीं जयंती भी मनाई जाएगी— की विरासत भाजपा से वापस पाने की मुहिम छेड़ी है। प्रश्न उठता है कि सरदार पटेल, जो गुजरात कांग्रेस के 25 वर्षों तक अध्यक्ष रहे, 1931 में राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व किया और जिन्हें 1946 में देश के अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में अधिकांश कांग्रेस समितियों का समर्थन प्राप्त था— उनका नाम कैसे पिछले सात दशकों में कांग्रेस से हटकर भाजपा के साथ जुड़ गया?

वास्तव में, भाजपा से सरदार पटेल का व्यक्तित्व, राजनीतिक और वैचारिक जुड़ाव अपने भीतर उस यात्रा को समेटे हुए है, जिसमें कांग्रेस के पतन का कारण भी निहित है। स्वतंत्रता तक कांग्रेस सही मायनों में एक राष्ट्रीय दल था। विभिन्न राजनीतिज्ञों में मतभिन्नता होते हुए भी एक-दूसरे के प्रति सम्मान था और उनमें संवाद भी होता था। तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे ‘भारत-रत्न’ पंडित मदन मोहन मालवीय ने न केवल वर्ष 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना की, साथ ही कांग्रेस में सक्रिय रहते हुए हिंदू महासभा के पांच विशेष सत्रों की अध्यक्षता भी कर चुके थे। सरदार पटेल ने संघ को ‘देशभक्त’ और ‘मातृभूमि से प्रेम करने’ वाला संगठन कहकर संबोधित किया था। गांधीजी ने नेहरू को अपने पहले स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में तीन गैर-कांग्रेस नेताओं— डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सरदार बलदेव सिंह को शामिल करने के लिए राज़ी किया। हालांकि, यह जुड़ाव अधिक समय तक नहीं रहा। इसका कारण क्या था? 

स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा की, जिसे गांधीजी का समर्थन मिला। नेहरू इसके विरोध में थे, लेकिन वे गांधी-पटेल के रहते इसपर खुलकर बोलने का साहस नहीं कर पाए। गांधीजी के सुझाव पर मंदिर का पुनर्निर्माण चंदे से हुआ। गांधीजी की हत्या (1948) और पटेल के निधन (1950) के बाद नेहरू का असली रूप खुलकर सामने आ गया। उन्होंने अपने मंत्री और मंदिर का दायित्व संभाल रहे के.एम. मुंशी को फटकारा और 1951 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को इसके उद्घाटन में जाने से रोकना भी चाहा। इसी कालखंड से कांग्रेस के भीतर मूल भारतीयता का तत्व कम होने लगा, तो उसमें भारत-हिंदू विरोधी वामपंथ से निकटता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा बढ़ने लगी। गांधीजी और पटेल ने कभी भी परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया। परंतु नेहरू ने 1959 में अपनी सुपुत्री इंदिरा गांधी के हाथों में पार्टी की कमान सौंपकर इसका सूत्रपात कर दिया। 

सरदार पटेल कैसे कांग्रेस में किनारे होते गए और कैसे भारतीय जनसंघ (वर्तमान भाजपा) ने उन्हें अपनाया— इसके कई पड़ाव हैं। 1946 में गांधीजी ने अपने ‘निष्ठावान’ पटेल के पक्ष में आए बहुमत आधारित लोकतांत्रिक निर्णय को पलटकर पं.नेहरू के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया था। गांधीजी ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे नेहरू को ‘अंग्रेज’ मानते थे और जानते थे कि नेहरू किसी के अधीन काम नहीं करेंगे। गांधीजी-पटेल के बाद कांग्रेस कभी नेहरू-गांधी परिवार से ऊपर नहीं उठ पाई। जहां नेहरू ने जीवित रहते हुए स्वयं को 1955 और इंदिरा गांधी ने 1971 में स्वयं को ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया, वहीं सरदार पटेल को यही सम्मान (मरणोपरांत) गैर-नेहरू-गांधी परिवार से पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मोरारजी देसाई के साथ दिया। गत वर्ष ही देश में आर्थिक सुधार लाने वाले पीवी नरसिम्हा राव को मोदी सरकार ने ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया था। 

भारत के भौगोलिक-राजनीतिक एकीकरण में सबसे महत्वपूर्ण योगदान के चलते सरदार पटेल की जयंती (31 अक्टूबर) को देश में ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। इसकी शुरुआत मोदी सरकार ने 2014 में की थी। पाठक इस बात से अनजान होंगे कि 1960-70 के दशक में दिल्ली से भारतीय जनसंघ के नेता और पूर्व सांसद कंवरलाल गुप्ता ने एक नागरिक मंच के माध्यम से सरदार पटेल की जयंती मनाने की शुरुआत की थी, जिसका साक्षी मैं भी रहा हूं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, बतौर मुख्यमंत्री, गुजरात में केवड़िया स्थित सरदार पटेल के सम्मान में दुनिया की सबसे बड़ी लौह प्रतिमा को मूर्त रूप दिया। आज यह देश के प्रमुख पर्यटनस्थलों में सम्मिलित है। परंतु कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने आज तक, यहां तक कि हालिया अधिवेशन के दौरान भी इसका दौरा नहीं किया। श्रीराम मंदिर का पुनर्निर्माण, नया वक्फ कानून, 370-35ए का संवैधानिक क्षरण और ‘नागरिक संशोधन अधिनियम’, सरदार पटेल के चिंतन अनुरूप ही है। 

क्या विभाजन से पहले गांधी-पटेल-नेहरू युक्त कांग्रेस के मुस्लिम समाज से मधुर संबंध थे? वर्ष 1937-38 में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों में मुसलमानों पर अत्याचारों की जांच हेतु पीरपुर समिति का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट में कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ बताया था। इसी दौर में गुजरात स्थित भावनगर में सरदार पटेल पर मस्जिद में छिपे जिहादियों ने घातक हमला कर दिया था, जिसमें वे बाल-बाल बच गए। कालांतर में अंग्रेजों और वामपंथियों के समर्थन से इसी पीरपुर रिपोर्ट को भारत के मजहबी विभाजन का आधार बनाया गया। उस समय मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा वर्ग पाकिस्तान के लिए आंदोलित था, परंतु विभाजन के बाद उनमें से अधिकांश यही रह गए। ऐसे लोगों की नीयत पर सरदार पटेल ने कई बार सवाल उठाया था। यह दिलचस्प है कि जिन जुमलों के साथ आज कांग्रेस और उसकी प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोगियों द्वारा भाजपा-आरएसएस को ‘मुस्लिम विरोधी’ कहा जाता है, वही संज्ञाएं स्वाधीनता से पहले इकबाल-जिन्नाह की मुस्लिम लीग वामपंथियों-अंग्रेजों के सहयोग से कांग्रेस के लिए प्रयोग करती थी। 

यदि कांग्रेस को निराशाजनक वातावरण से बाहर निकलना है, तो उसे अपने मूल राष्ट्रवादी और सनातनी विचारों को पुन: अंगीकार करना होगा। चुनावी स्वार्थ हेतु शब्दजाल गढ़ने या फिर सरदार पटेल पर कोई प्रस्ताव पारित करने से कांग्रेस का चाल-चरित्र नहीं बदलेगा। यक्ष प्रश्न है कि क्या वर्तमान कांग्रेस इसके लिए तैयार है? 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *