विरासत का संरक्षण देव पूजन के समान- छगनलाल बोहरा

विरासत का संरक्षण देव पूजन के समान- छगनलाल बोहरा

विरासत का संरक्षण देव पूजन के समान- छगनलाल बोहराविरासत का संरक्षण देव पूजन के समान- छगनलाल बोहरा

– विश्व धरोहर दिवस पर भारतीय इतिहास संकलन समिति उदयपुर और साहित्य संस्थान की गोष्ठी

उदयपुर। विश्व धरोहर दिवस-2025 के अवसर पर शुक्रवार को “आपदा में बावड़ियों का उपयोग” विषय पर उदयपुर में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। इस वर्ष विश्व धरोहर दिवस की थीम ‘आपदा और संघर्ष प्रतिरोधी विरासत’ है, इसी को ध्यान में रखते हुए इस विषय का चयन किया गया। भारतीय इतिहास संकलन समिति उदयपुर और साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस गोष्ठी में शहर के इतिहास के विद्यार्थियों और विद्वानों ने सहभागिता की और मेवाड़ की बावड़ियों के बारे में अपने विचार रखे।

इस अवसर पर इतिहास संकलन समिति के क्षेत्रीय संगठन मंत्री छगललाल बोहरा ने कहा कि जन सुविधा की दृष्टि से राजा-महाराजाओं ने कुओं, सरायों और बावड़ियों का निर्माण कराया। मेवाड़ बावड़ियों का गढ़ है। यहां मंदिर, महल, हवेलियां और धर्मशालाएं बिना बावड़ियों के बनाई ही नहीं जाती थीं। बावड़ियां आपदा में सुरक्षा के साथ पेयजल भी उपलब्ध कराती थीं। वे आज भी पानी का बड़ा स्रोत हैं। 

इतिहास संकलन समिति चित्तौड़ प्रांत के महामंत्री डॉ. विवेक भटनागर ने कहा कि शहर के निकट देबारी में स्थित त्रिमुखी बावड़ी 1675 ई. में बनाई गई थी। इस बावड़ी का निर्माण महाराणा राजसिंह की रानी रामरस दे ने जया बावड़ी के नाम से करवाया था। यह बावड़ी उदयपुर चित्तौड़ मार्ग पर स्थित है। इसका शिल्प अत्यन्त लुभावना है। तीन दिशाओं में प्रवेश द्वार होने से इसे त्रिमुखी बावड़ी भी कहा जाता है। यहां लगे एक प्रस्तर अभिलेख में राजस्थान के इतिहास की जानकारी दी गई है। इस प्रशस्ति लेख में बप्पा से लेकर राजसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। प्रशस्ति में राज्य के समय में सर्व ऋतु विलास नाम के बाग के बनाए जाने, मालपुरा की विजय और चारूमती के विवाह आदि का उल्लेख है। प्रशस्ति रणछोड़ भट्ट और मुख्य शिल्पी नाथू गौड़ द्वारा लिखित है।

साहित्य संस्थान के निदेशक डॉ. जीवन सिंह खरकवाल ने कहा कि बावड़ियों का निर्माण मध्यकालीन भारत में पेयजल स्रोत, सांस्कृतिक केन्द्र और धार्मिक अनुष्ठान स्थल के रूप किया गया। इन पर गांव और नगर के स्थानीय देवता, गणेश जी और भैरव की स्थापना की जाती थी, साथ ही पेयजल के लिए इन पर रहट भी लगती थी। इस कारण इनका सामाजिक उपयोग व्यापक था। बावड़ियों के निर्माताओं ने इन पर अभिलेख भी स्थापित करवाए, इसलिए ये ऐतिहासिक और विरासत स्थल के रूप में भी स्थापित हो गईं।

वहीं भारतीय इतिहास संकलन चित्तौड़ प्रांत की महिला मोर्चा प्रभारी डॉ. रेखा महात्मा ने कहा कि महाराणा प्रताप का राजतिलक स्थल नीलकण्ठ महादेव की बावड़ी (इसे छतरी वाली बावड़ी भी कहा गया है) आज संरक्षण के अभाव में जीर्ण शीर्ण है। यह बावड़ी अत्यंत सुन्दर होने के साथ ही महाराणा प्रताप का राजतिलक होने से इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती है।

संगोष्ठी का संचालन इतिहास संकलन समिति, उदयपुर के महामंत्री चैन शंकर दशोर ने किया।

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