आज बाबर और मीर बाकी क्या सोच रहे होंगे..?
विजय मनोहर तिवारी
आज बाबर और मीर बाकी क्या सोच रहे होंगे..?
लखनऊ में एक हार के बाद फिरदौस मकानी बाबर ने अपने गिरोह से मीर बाकी ताशकंदी को उसके लुटेरे हमलावरों की टुकड़ी के साथ अलग कर दिया था। कल्पना कीजिए, आज ताशकंदी और बाबर नाम का उसका सरदार अगर संपर्क में हों तो वे दिल्ली, लखनऊ और अयोध्या की क्या चर्चा कर रहे होंगे? वे सब क्या सोच रहे होंगे, जिनके सिलसिले जफर के साथ रंगून की कब्रों में फैले हैं?
एक वफादार गुर्गे के रूप में मीर बाकी ताशकंदी धूल में मिल चुकी अपनी किसी गुमनाम कब्र से काबुल के पास कहीं दफन बाबर को हॉटलाइन पर अपडेट देकर बेचैन कर रहा होगा। वह नहीं तो दिल्ली के लाल मकबरे से जन्नत आशियानी हुमायूं ने अपने अब्बू को भारत की आज की रौनकदार अपडेटें जरूर कलेजे पर पत्थर रखकर दी होंगी।
यह समाचार सुनकर बाबर अपनी अंधेरी कब्र में पड़ा करवट बदल रहा होगा, क्योंकि कयामत अभी आई नहीं है, जहाँ इनका हिसाब हो चुका हो और काफिरों पर जुल्म ढाकर उनके बुतखानों को जमींदोज करने के शबाब में ये हजरात गाजे-बाजे से 72 ब्रांड गारंटी वाली जन्नत जा चुके हों।
“न कयामत आई, न जन्नत मिली, कब्र में कीड़ों ने खा लिया और इधर कम्बख्त हिंदुस्तान में काफिर मोदी-योगी ने खेल कर दिया! या अल्लाह यह क्या तमाशा हुआ!! न खुदा ही मिला, न विसाले सनम टाइप की बात हो गई!! अरे कोई है? क्या, कोई नहीं है!’
आज के प्राइम टाइम शो में बड़ा प्रश्न-
क्या अयोध्या में मंदिर गिराकर उस पर मस्जिद बनाने का बाबर का शबाब आखिरत के दिन मुकम्मल नहीं माना जाएगा? अगर कब्र की मिट्टी में घुलकर-गलकर समाप्त होने के बावजूद वह कहीं बचा होगा तो क्या वह कयामत के दिन जन्नत जाने से रह जाएगा?
ताशकंदी या हुमायूं से हिंदुस्तान की ब्रेकिंग न्यूजें सुनकर उसने अवश्य ही अपनी औलादों पर दाँत पीसे होंगे, जो 330 वर्षों के कब्जे में हिंदुस्तान का हिसाब बराबर नहीं कर पाई थीं। आगरा से लेकर खुलताबाद तक न जाने कितनी कब्रों में कितनी रूहें तड़प रही होंगी!
किंतु यह समय अयोध्या के पुण्य स्मरण का है। अयोध्या का नाम लें तो दृष्टि पीछे जाए बिना रहती नहीं है। हमारे पुरखे हम पर हमेशा ही सवार रहते हैं। देह अग्नि में भस्म हो जाती है। वे सूक्ष्म शरीर में शिफ्ट होना जानते हैं। वे हमें जगाए रखते हैं। जगाए भी रखते हैं, भगाए भी रखते हैं। चैन से नहीं रहने देते। जब तक हिसाब पूरा न हो जाए वे किसी भी रूप में आते रहते हैं।
“पीढ़ियों में कोई एक ही जमाने को दिखा और सिखा सकता है। जहाँपनाह, एक ही काफी है!”
कौन भूल सकता है 1528 का वर्ष। वह हजारों वर्ष पुरानी अयोध्या पर भीषण वज्रपात का वर्ष था। जैसे किसी प्रतिष्ठित ऋषि के आश्रम में कोई दुर्दांत आतंकी आकर अपने गिरोह के साथ उनकी प्रतिष्ठा को पल भर में मिट्टी में मिला दे। उस वर्ष अयोध्या में एक नया धर्म द्वार नहीं खटखटा रहा था। आज्ञा लेकर आने की शिष्टता तो भूल ही जाइए। वह द्वार-दीवार तोड़कर घुसे और जैसे झपटकर गर्दन दबोच ली। सुरमे लगी और लालच से उबलती लाल आँखों ने घर की हर मूल्यवान चीज पर अपनी डरावनी दृष्टि दौड़ाई। हजारों हाथ हथौड़े लिए टूट पड़े। बारूद की गंध हवाओं में घुल गई। मंदिर मटियामेट कर दिए गए और आश्रम उजाड़ दिए गए। गलियों में लूटपाट और मारकाट का शोर मच गया। अयोध्या का वैभव धूल में मिल गया। अयोध्या अनादिकाल से भारत की माँग में भरा हुआ चमकता सिंदूर थी, जो पोंछ दिया गया था।
इतिहास ने उस वर्ष अयोध्या को पथराई आँखों वाली एक निरीह और निर्वस्त्र स्त्री की तरह सामने देखा था। आभूषणों से सुसज्जित सुगंधित देह पर खूनी खरोंचें थीं। केश धूल-धूसरित थे। मस्तिष्क सुन्न था। वह अवाक् थी। हजारों वर्षों की स्मृतियों में ऐसा पहली बार देखा और भोगा था। राक्षस कुल के विभीषण को रूपांतरित और अजेय रावण को मारने वाले राम सदा से स्मृतियों में जीवंत थे, लेकिन 1528 के उस वर्ष अयोध्या को लगा कि वे सारे राक्षस नाम और रूप बदलकर लौट आए हैं। अयोध्या ने पहली बार अल्लाहो-अकबर का हो-हल्ला और माले-गनीमत की वीभत्स घोषणाएँ सुनी थीं। संसार का हर काफिर आज ये महागर्जनाएँ धरती के हर हिस्से में सुन और समझ रहा है!
अयोध्या में कन्नौज के गहड़वाल वंश के राजाओं के बनवाए सदियों पुराने श्री विष्णु हरि के मंदिर से धूल का गुबार वायुमंडल में बिखर गया था। मलबे पर एक मस्जिद का ढाँचा उगाया गया! पीड़ित और प्रताड़ित अयोध्या देखती रही।
अयोध्या तब शून्य में ताक रही थी…
सदियों तक लोग लड़े और मरे। गुरु गोविंदसिंह और उनके वीर बालकों के बलिदान हमारी दृष्टि में पवित्र महान बलिदान थे। लेकिन महान मुगलों और उनके आलिमों की नजर में वे काफिर थे, जिन्हें मौत के घाट उतारने के यही तरीके उनके पास थे। संभाजी के अंत को सुनकर काँप जाएँगे और वे ऐसी क्रूरता के शिकार अकेले नहीं थे। हर सदी में संभाजी भरे पड़े हैं। नाम तक नहीं मालूम। अधूरी स्वतंत्रता के इन 70 वर्षों में सेक्युलर कीड़े-मकोड़े अतीत के घावों पर उड़ते रहे। पीड़ित अयोध्या अब मूक दर्शक बन गई।
क्या भाग्य लेकर आई थी अयोध्या?
उसने राम का युग ही नहीं देखा, इक्ष्वाकु वंश के महान् राजाओं के वैभवशाली कालखंड देखे। युग आए और गए। एक समय उसने दासता में आँखों के सामने अपना सब कुछ उजड़ते भी देखा, अपनों को लड़ते-मरते-कटते देखा। लाल किले पर शेरवानी में गुलाब खोंसकर आई स्वाधीनता के बाद शातिर सियासी ठगों के सेक्युलर गिरोह भी देखे।
अयोध्या ने धर्म को बीज से वृक्ष बनते हुए त्रेतायुग में देखा था और धर्म के नाम पर आतंक को जड़ें जमाते कलयुग में देखा। वह ढाँचा इन्हीं दुष्ट शक्तियों का प्रतीक बनकर खड़ा रहा था और अयोध्या देख रही थी कि भारत स्वाधीन हो चुका था!
अयोध्या ने विभाजन की महाविभीषिका किन नेत्रों से देखी होगी। बामियान, तक्षशिला, पुरुषपुर, हिंगलाज, कटासराज और शारदा की संतानों से अयोध्या के भी रिश्ते रहे होंगे। भगवान राम से लेकर कृष्ण और बुद्ध तक ये विशाल भूभाग सनातन के बीजों का हराभरा बाग था। आज हर तरफ बारूद महक रही है और चिंगारी के साथ दुआ यह है कि हवाएँ इधर तेज हों।
अयोध्या गहरे मौन में स्थिर थी। राम के भक्तों ने एक टेंट ही नहीं लगाया था। वह आगे का ऐलान था। वे चीथड़ों से चिंघाड़ रहे थे।
अयोध्या को अपने बच्चों पर पूरा विश्वास था। वे कभी चैन से नहीं बैठे थे। मैदान में भी लड़े थे, अदालतों में भी। धैर्य और संयम तो राम की प्राथमिक देशनाएँ थीं। राम की संतानों ने कभी धैर्य नहीं छोड़ा, कभी संयम नहीं तोड़ा, बस एक दिन एक सड़-गल चुका कलंकित ढाँचा तोड़ा। केवल एक ही दिन क्षण भर का आवेश आया और वे पुन: नवनिर्माण में लग गए। धैर्य और संयमपूर्वक। वे राम के अनुयायी हैं। केवल मूर्तियों में ही राम को नहीं गढ़ते। वे आचरण में भी झलकाते हैं! धैर्य और सहिष्णुता के साथ शर्तें लागू हैं। वह असीम नहीं हो सकती। कभी टूट भी जाती है। टूटनी भी चाहिए।
तो इस समय अयोध्या की हलचल के बीच ताशकंदी क्या तो बाबर के कानों में फूँक रहा होगा। बेबस बाबर क्या तो हुमायूं पर दाँत पीस रहा होगा। बदहवास हुमायूं अकबर को नंबर घुमा रहा होगा। ग्रेट अकबर यह जानकर माथा पीट रहा होगा कि सलीम अफीम की पिनक से बाहर नहीं आया है और मानबाई ने खुदकुशी कर ली है। अकबर के तीन नशेड़ी बेटों में से एक ये कम्बख्त अफीमची सलीम यह सुनकर फिर बेहोश हो गया होगा कि खुर्रम ने खुसरो का गला रेत दिया है। बदमाश और बूढ़ा खुर्रम आठ साल से आगरे की कैद में पड़ा-पड़ा औरंगजेब की माँ-बहन एक कर रहा होगा। शातिर औरंगजेब दक्खन में एक “पहाड़ी चूहे’ के शिकार को निकला हुआ था और वो खूसट खुलताबाद में खा-पछाड़ जा गिरा था। आखिर में बेइज्जत बहादुर शाह जफर, जो गंगा पर तैरते एक जहाज से रात के अँधेरे में दबे पाँव अपने दो दर्जन लोगों के साथ हिंदुस्तान से हमेशा के लिए रुखसती फरमा गए। वे रंगून के रास्ते लगे!
अयोध्या से आरंभ हुआ बाबर का क्रम रंगून की एक बेरौनक ढलान पर जाकर समाप्त हो गया था। गंगा-जमनी छाप भारत के गपोड़ी इतिहासकारों पर विश्वास करें तो वे सब मिलकर “महान मुगल’ थे, जिन्होंने भारत को एक देश बनाया! लाहौलविला कूवत!! आँखों में धूल झोंकते हुए शर्म भी नहीं आती। आधुनिक युग में दुष्टों की यह अत्यंत कठिन प्रजाति है। इनसे निपटना सरल नहीं है। इन्हें गंभीरतापूर्वक लिए जाने की आवश्यकता है। गंभीरतापूर्वक अर्थात् गंभीरतापूर्वक!
वे जो भी हों, सुलतान हों या बादशाह हों, निजाम हों या नवाब हों। वे सब अपने गुर्गों के साथ सब एक साथ मिलकर आज जहाँ भी होंगे दसों दिशाओं से सनातन की पुकार अवश्य उनके कानों और कब्रों में कंपित हो रही होगी। और उनके कानों में भी जो इनके डरावने गिरोहों के चक्कर में पड़कर अपनी पहचानें खो बैठे थे। वे बेचारे जाने कब से कब्रों में पड़े थे या कब्रों के आसपास खड़े थे! इतिहास एक बड़ा ठग है। किस किस तरह की ठगी का शिकार मनुष्य होता रहा है। ठगी के ऐसे इतिहास की जितनी निंदा की जाए कम है!
आखिर में अयोध्या के प्रश्न-
ये तूफानी और तलवारी ताकतें किसकी खिदमत में मरने-खपने को आई थीं? किसने उन्हें भेजा था? किसका आदेश था? कौन वे आदेश लाया था? और उसके कान किसने फूँके थे? किसने उन्हें जन्नत के यकीन दिलाए थे? किसकी गारंटी पर उन्होंने स्वयं को पीढ़ियों तक यूँ ही खपाया? कहाँ है वो जन्नत? वो तो कयामत के बाद मिलेगी, मिली तो। कयामत तो अभी आई नहीं है। फिर वे कहां गए, जो कब्रों में लिटाए गए थे?
“वे कहीं नहीं गए। कोई कहीं नहीं जाता। वे जहाँ भी होंगे, ख्वाबों की जन्नत के जाँबाज फरिश्ते उन्हें अवश्य ही अयोध्या की चमकती अपडेट दे रहे होंगे और तब सोचिए कि वे ऐसी अपडेट सुनकर सदियों के अपने-अपने किए कराए पर क्या तो कह रहे होंगे और क्या तो सुन रहे होंगे!’
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