CAA : एक ऐतिहासिक देनदारी

CAA : एक ऐतिहासिक देनदारी

बलबीर पुंज

CAA : एक ऐतिहासिक देनदारी CAA : एक ऐतिहासिक देनदारी 

मोदी सरकार ने सोमवार (11 मार्च) को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019’ (CAA.) देशभर में लागू कर दिया। जैसे ही सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी की, वैसे ही अधिकांश विपक्षी दलों, विशेषकर मोदी विरोधियों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। उनके मुख्यत: दो आरोप हैं। पहला— भाजपा ने अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए सीएए को अधिसूचित किया है। दूसरा— यह कानून संविधान-सम्मत नहीं है और सेकुलरवाद-लोकतंत्र पर कुठाराघात है। फिलहाल पूरा मामला शीर्ष अदालत में लंबित है।

सच तो यह है कि सीएए को लागू करना और उसका विरोध, दोनों ही राजनीति से प्रेरित हैं। सीएए-विरोधी सेकुलरवाद के नाम पर मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण चाहते हैं। जहां तक प्रश्न है कि सीएए अभी क्यों? तो यह जब भी लागू होता, यह प्रश्न तो पूछा ही जाता। सीएए में तीन इस्लामी देशों— अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। इसका किसी वर्तमान भारतीय की नागरिकता से कोई संबंध नहीं है। सीएए सत्तारुढ़ भाजपा के 2019 के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा है और मोदी सरकार इस कानून को लाकर मिले हुए प्रचंड जनादेश का पालन कर रही है।

सीएए का विरोध करने वाले यह भी पूछ रहे हैं कि इन नए नागरिकों को नौकरी कौन देगा? परंतु दूसरी ओर यही लोग देश में अवैध रूप से बसे बांग्लादेशियों और रोहिंग्या मुसलमानों, जो राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा और अखंडता के लिए बड़ी चुनौती हैं— उन्हें मानवता के नाम पर नागरिकता और नौकरी सहित अन्य सुविधा देने का अभियान चलाते हैं। इस कानून का विरोध करने वाले यह भी पूछ रहे हैं कि सीएए के लाभ से अहमदिया मुसलमानों को क्यों वंचित रखा गया है? पहले यह समझने की आवश्यकता है कि सीएए उन लोगों को राहत देने हेतु लाया गया है, जो भारत के इस्लाम के नाम पर हुए विभाजन की विभिषिका का जाने-अनजाने में शिकार हुए थे। वास्तव में, अहमदिया मुस्लिमों की पाकिस्तान निर्माण में महती भूमिका थी। मार्च 1940 में मजहब के आधार पर पाकिस्तान के विचार को अहमदिया मुस्लिम मुहम्मद ज़फ़रुल्लाह ख़ान ने ही लेखबद्ध किया था। ज़फ़रुल्लाह न केवल पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री थे, साथ ही संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर भारत के विरुद्ध पैरवी भी करते थे। अहमदिया मुस्लिमों के खलीफा मिर्ज़ा बशीर-उद-दीन महमूद अहमद ने पाकिस्तान की मांग का पुरजोर समर्थन किया था। जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया, तब मिर्ज़ा बशीर ने भारतीय सेना के खिलाफ ‘फुरकान फोर्स’ नामक वर्दीधारी सैन्यबल का गठन किया था, जिसका वित्तपोषण अहमदिया मुस्लिम समाज द्वारा निजी रूप से किया जा रहा था। पाकिस्तान के निर्माण में अहमदिया मुसलमानों के योगदान का वर्णन अब्दुल वली खान ने ‘फैक्ट्स आर फैक्ट्स: द अन्टोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज पार्टिशन’ में किया है। पाकिस्तान तो अहमदिया मुसलमानों के सपनों देश था। अब जैसा उन्होंने बोया है, वैसा काट भी रहे हैं। यही नहीं, अहमदिया मुस्लिमों ने भारतीय पंजाब में गुरदासपुर स्थित अपने केंद्रीय स्थल कादियां को पाकिस्तान में मिलाने का भरसक प्रयास भी किया था।

सीएए में 31 दिसंबर 2014 से पहले अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से मजहबी कारणों प्रताड़ित होकर भारत आए अल्पसंख्यकों नागरिकता देने का प्रावधान है। वर्तमान अफगानिस्तान सहस्राब्दी पहले हिंदू-बौद्ध दर्शन का एक संपन्न केंद्र था। कालांतर में जबरन मतांतरण के कारण 1970 के दशक में यहां हिंदू-सिखों की संख्या घटकर लगभग सात लाख हो गई और अब तालिबानी राज में नगण्य है। वही विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) की कुल जनसंख्या में हिंदू-बौद्ध अनुपात 28-30 प्रतिशत और पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) की तत्कालीन जनसंख्या में हिंदू-सिखों का योग 15-16 प्रतिशत था। वे आज घटकर क्रमश: 8-9 प्रतिशत और दो प्रतिशत से भी कम रह गए हैं।

वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन आदि अल्पसंख्यक कौन हैं? यह वे दुर्भाग्यशाली लोग हैं, जिन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं पर विश्वास किया। गांधीजी अंतिम समय तक कहते रहे कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा, तो कांग्रेस नेता बार-बार घोषणा करते रहे कि पाकिस्तान बनने के बाद मजहब आधारित उत्पीड़न नहीं होगा। इसलिए उन्होंने बाबासाहेब भीमराव रामजी अंबेडकर की मजहब के आधार पर जनसंख्या की पूर्ण अदला-बदली को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग के शीर्ष नेताओं ने भी सब्जबाग दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्नाह ने 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तानी संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था— “पाकिस्तान में हर व्यक्ति मंदिर और मस्जिद या फिर अन्य किसी पूजास्थल में जाने के लिए स्वतंत्र होगा।”

वास्तव में, विभाजन के समय जन-साधारण को गुमराह करने वाले अधिकांश कांग्रेस के नेता स्वयं गलतफहमी के शिकार थे। इसकी बानगी पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के भाई सतीश गुजराल द्वारा लिखित आत्मकथा ‘ए ब्रश विद लाइफ’ में मिल जाती है। इसके अनुसार, जब विभाजन अपरिहार्य हो गया, तब इंद्रकुमार-सतीश के पिता और पंजाब कांग्रेस के बड़े नेता अवतार नारायण गुजराल ने पाकिस्तान में रहने का निर्णय लिया। वे पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य भी बने। अवतार स्थानीय हिंदुओं-सिखों को यही समझा रहे थे कि पाकिस्तान में वे सभी सुरक्षित रहेंगे। परंतु वे गलत साबित हुए। ‘काफिर-कुफ्र’ प्रेरित भयावह नरसंहार के बाद वे परिवार सहित खंडित भारत लौट आए। इसी तरह मनगढ़ंत ‘दलित-मुस्लिम बंधुत्व’ के पैरोकार, विभाजन के बाद पाकिस्तान को अपना मुल्क मानने वाले और वहां मंत्री बने दलित नेता योगेंद्रनाथ मंडल भी स्थानीय मुस्लिमों द्वारा ‘काफिर’ दलितों के बलात् मजहबी उत्पीड़न के बाद टूटे दिल के साथ भारत वापस आ गए थे।

अब जिन असंख्य हिंदुओं-सिखों ने भ्रम के शिकार मंडल-गुजराल रूपी नेताओं पर विश्वास किया और पाकिस्तान को अपना सुरक्षित घर माना, उनकी बची-कुची पीढ़ियां अपने पूर्वजों के ‘लम्हें की खता…’ की सजा दशकों से पा रही हैं। वास्तव में, सीएए अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के उन्हीं शेष हिंदू-सिख-बौद्ध-जैन आदि अल्पसंख्यकों के साथ हुई वादा खिलाफी और ऐतिहासिक भूल का परिमार्जन है।

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है) 

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