डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि अतुलनीय थी

डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि अतुलनीय थी

प्रहलाद सबनानी

डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि अतुलनीय थीडॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि अतुलनीय थी

भारत का प्राचीन इतिहास अति वैभवशाली रहा है। पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 25 प्रतिशत से ऊपर था। खाद्य सामग्री, इस्पात, कपड़ा एवं चमड़ा आदि पदार्थ तो जैसे भारत ही पूरे विश्व को उपलब्ध कराता था। परंतु, 712 ईसवी में सिंध प्रांत के तत्कालीन राजा दाहिर सेन को कपटपूर्ण तरीके से मोहम्मद बिन कासिम द्वारा युद्ध में परास्त कर बलिदान करने के उपरांत आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने का अवसर मिल गया। हालांकि तब आक्रांताओं का मूल उद्देश्य भारत को लूटना भर था क्योंकि उस समय तक भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। दरअसल, उस खंडकाल तक भारत से वस्तुओं का निर्यात पूरे विश्व को बहुत अधिक मात्रा में होता था, जिसके बदले में भारत को सोने की मुद्राओं में भुगतान अन्य देशों द्वारा किया जाता था। इससे भारत में स्वर्ण मुद्रा के भंडार जमा हो गए थे, और भारत की पहचान सोने की चिड़िया के रूप में बन गई थी। लेकिन जब आक्रांताओं ने भारत में आकर देखा कि यहां के राजा तो एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं, तब उन्होंने इसका लाभ उठाया और धीरे धीरे अपनी सत्ता स्थापित करना शुरू कर दिया। वरना, आक्रांताओं ने भारत में प्रवेश तो मुट्ठी भर लोगों के साथ ही किया था, परंतु उन्हें कुछ राजाओं को अपने साथ मिलाने में सफलता मिली थी। कालांतर में इसी प्रकार की कार्यशैली अंग्रेजों ने भी अपनाई। अंग्रेज़ भी ईस्ट इंडिया कम्पनी नामक संस्था के माध्यम से व्यापार करने के उद्देश्य से भारत में आए। वे बांटो एवं राज करो की नीति का अनुपालन करते हुए भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे। अंग्रेजों ने अर्थव्यवस्था के साथ साथ भारतीय सनातन संस्कृति को भी तहस नहस करने का प्रयास किया। कुछ सीमा तक इसमें उन्हें सफलता भी मिली। 

इसी बीच नागपुर में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (1 अप्रैल 1889) को एक बालक केशव का जन्म हुआ, जो बचपन से ही देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत था। शायद ईश्वर ने ही उसे इस धरा पर विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु भेजा था। बड़े होकर केशव बलिराम हेडगेवार ने अपनी दूरदृष्टि के चलते वर्ष 1925 में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की ताकि देश के नागरिकों में देश प्रेम की भावना जागृत कर समाज में सामाजिक समरसता की स्थापना की जा सके। हेडगेवार वर्ष 1914 में एमबीबीएस की डिग्री कलकता में प्राप्त करने के उपरांत नागपुर वापिस आ गए।

उन्होंने कभी पेशेवर डॉक्टर के रूप में कार्य नहीं किया। वे देश की स्वतंत्रता और सेवा हित में चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से जुड़कर अध्ययन करते रहे। डॉ. हेडगेवार ने इन वर्षों में भारत के इतिहास, वर्तमान और भविष्य को जोड़कर राष्ट्रीयता के मूल प्रश्न पर विचार किया। जिसके निष्कर्ष में उन्होंने भाऊजी काबरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथराव केलकर, बाबूराव भेदी और बालाजी हुद्दार के साथ मिलकर 25 सितम्बर, 1925 (विजयादशमी) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत की। उस समय यह सिर्फ संघ के नाम से जाना जाता था। इसमें राष्ट्रीय और स्वयंसेवक शब्द छह महीने बाद यानि 17 अप्रैल, 1926 में जोड़े गए। वे कार्यकर्ताओं का कितना ध्यान रखते थे यह इस बात से स्पष्ट है कि 1935 में अपने एक भाषण के दौरान उन्होंने कहा, कोई स्वयंसेवक आज अच्छी तरह से काम कर रहा है, शाखा आ रहा है और कल वह न आए, तो तुरंत उसके घर पहुंचकर वह क्यों नहीं आया, इस बात की जानकारी लेनी चाहिए, दो तीन दिन निकल जाने पर हो सकता है उसे शाखा आने में संकोच हो, दो तीन और न आए तो हो सकता है यह संकोच बढ़ जाए। अतः किसी स्वयंसेवक की पूरी सार संभाल करनी चाहिए।

डॉ. हेडगेवार की भाषा और आचरण में सरलता एवं आत्मीयता थी। चूंकि संघ का कार्य राष्ट्र का कार्य है, इसलिए उन्होंने सभी को परिवार के सदस्य के रूप में माना। परस्पर घनिष्ठता और स्नेह-संबंधों के आधार पर उन्होंने स्वयंसेवकों को तैयार किया। उनका विचार था कि किसी भी कारण से संघ का कार्य अवरुद्ध न होने पाए। उनका उद्देश्य केवल संख्या बल बढ़ाना नहीं बल्कि वास्तव में हिन्दुओं को संगठित करना था। इसके लिए उन्होंने समझाया कि संघ का कार्य जीवनपर्यंत करना होगा। समाज में स्वाभाविक सामर्थ्य जगाना ही इसका अंतिम लक्ष्य होगा।

स्वयंसेवकों का मनोबल बनाये रखने में डॉ. साहब कोई कसर नहीं छोड़ते थे। वे उनके साथ पारस्परिक चर्चा करते रहते थे। संगठन की चर्चा करते हुए एक बार उन्होंने कहा, “जब संघ का निर्माण हुआ था उस समय परिस्थिति इतनी प्रतिकूल थी, कि कार्य करना असंभव सा प्रतीत होता था। जबकि इस प्रकार की अत्यंत कठिन परिस्थिति से न डरते हुए, निर्भीकता के साथ उसका हमने लगातार सामना किया और बराबर कार्य करते रहे, तब आज भी हमारे सामने परिस्थिति की कठिनता का प्रश्न क्यों उठाना चाहिए? आज तक हमारे कार्य करने की जो भी गति थी वह ठीक ही थी। किन्तु अब आगे कैसे होगा? क्या हमने आज तक जो कुछ कार्य किया; उसी को आप पर्याप्त समझते हैं? मैं निश्चय ही कह सकता हूँ कि प्रत्येक स्वयंसेवक कम-से-कम अपने मन में तो यही उत्तर देगा कि जितना कार्य हो जाना चाहिए था, नहीं हो पाया है।”  

डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के सरसंघचालक रहे। इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी। संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था। वे दावे के साथ आश्वासन देते थे कि अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिये, इस जाल को अधिकतम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय स्वतंत्रता से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जायेंगी। इन वर्षों में जिससे भी डॉ. साहब का संपर्क हुआ, उसने डॉ. साहब और उनके कार्यों की सदैव सराहना की। इनमें महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, बी.एस. मुंजे, बिट्ठलभाई पटेल, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के.एम. मुंशी जैसे नाम प्रमुख हैं।

डॉ. हेडगेवार के महाप्रयाण के तेरहवें दिन यानी 3 जुलाई 1940 को नागपुर में उनकी श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। सरसंघचालक के नाते श्री गुरुजी ने उन्हें याद करते हुए बताया कि डॉ. हेडगेवार के कार्य की परिणिति 15 वर्षों में एक लाख स्वयंसेवकों के संगठित होने में हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संदर्भ में दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण किसी भावना या उत्तेजना में आकर नहीं हुआ है। श्रेष्ठ पुरुष जन्मजात देशभक्त डॉ. जी जिन्होंने बचपन से ही देशभक्ति का परिचय दिया, सब प्रकार का अध्ययन किया और अपने समय चलाने वाले सभी आंदोलनों में, कार्यों में जिन्होंने हिस्सा लिया, कांग्रेस और हिन्दू सभा के आंदोलनों में भाग लिया, क्रांति कार्य का अनुभव लेने के लिए बंगाल में जो रहे, उन्होंने गहन चिंतन के पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन की योजना बनाई।” 

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक वटवृक्ष एवं विश्व के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के रूप में हमारे सामने खड़ा है। भारत में संघ की 73,000 से अधिक शाखाएं लग रही हैं। इन शाखाओं में स्वयंसेवकों में राष्ट्रीय भावना जागृत की जाती है ताकि ये समाज में जाकर सज्जन शक्ति के साथ मिलकर भारत को एक बार पुनः विश्व गुरु के रूप में स्थापित कर सकें, जिसका सपना डॉ. हेडगेवार ने भी देखा था।

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