सूखती नदियां, एक चेतावनी
प्रमोद भार्गव
जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती दुनिया के ऐसे देशों में है, जहां बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद उसी अनुपात में विपुल जल के भंडार अमूल्य धरोहर के रूप में उपलब्ध हैं। जल के जिन स्रोतों को हमारे पूर्वज मनीषियों ने पवित्रता और शुद्धता का पर्याय मानते हुए पूजनीय बनाकर सुरक्षित कर दिया था, आज वही जल स्रोत हमारे अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, आर्थिक दोहन की अति लालसा, औद्योगिक लापरवाही, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनैतिक अदूरदर्शिता के चलते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। इस क्रम में हाल ही में आया केंद्रीय जल आयोग का विश्लेषण हैरान करने वाला है। देश की 13 नदियों में पानी की कमी है। इनमें गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा, ताप्ती, साबरमती, गोदावरी, महानदी और कावेरी जैसी नदियां शामिल हैं। इन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व की नदियों की बात तो छोड़िये, प्रादेशिक स्तर की अधिकतर क्षेत्रीय नदियां या तो सूख रही हैं या फिर गंदे नालों में बदल रही हैं। ये तेरह नदियां 11 राज्यों के 2.86 लाख गांवों को पीने और सिंचाई के लिए पानी देती है। स्टील प्लांटों से निकले तेजाब ने मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की नदियों के जल को प्रदूषित कर अम्लीय बना दिया है। वहीं छत्तीसगढ़ की नदियों को खदानों से उगल रहे मलवे लील रहे हैं। उत्तर प्रदेश की गोमती का पानी जहरीला हो जाने के कारण उसकी कोख में मछलियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, इसी तरह भारत के 150 प्रमुख जलाशयों में पानी जमा करने की उनकी कुल क्षमता से 36 प्रतिशत कम पानी है। 86 जलाशयों में पानी 40 प्रतिशत या उससे कम है।
मौसम विभाग के अनुसार, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में 1 मार्च 2024 से बारिश की अत्यधिक कमी अनुभव की गई है। आंध्रप्रदेश में 65 और तेलंगाना में यह कमी 67 प्रतिशत है। हमारी नदियां सिंचाई और पीने के लिए तो पानी देती ही हैं, बिजली उत्पादन और यातायात संचालन में भी इनका प्रमुख योगदान है। नदियों के धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व के चलते ये करोड़ों लोगों की आर्थिकी चलाने में भी सहायता करती हैं। अधिकांश नदी घाटियों में जल ग्रहण की क्षमता 40 प्रतिशत रह गई है। 12 नदी घाटियों में जल पिछले साल की तुलना में कम है। कावेरी, पेन्नार और कन्याकुमारी के बीच पूर्व की ओर बहने वाली नदियां सबसे ज्यादा खराब स्थिति में हैं। इनमें जल ग्रहण क्षमता बहुत घट गई है। देश की सबसे बड़ी नदी घाटी गंगा की कुल जल ग्रहण क्षमता आधी से भी कम रह गई है, इसमें फिलहाल 41.2 प्रतिशत पानी ही उपलब्ध है। इसमें कम पानी होना खेती को प्रभावित कर रहा है। देश की 13 नदियां लगभग सूख चुकी हैं। ये महानदी और पेन्नार के बीच पूर्व की ओर बहने वाली रुषिकुल्या, वराह, बाहुदा, वंशधारा, नागावली, सारदा, तांडव, एलरु, गुंडलकम्मा, तम्मिलेरु, मुसी, पलेरु और मुनेरु हैं। ये नदियां आंध्र, तेलंगाना और उड़ीसा में बहती हैं।
गंगा, ब्रह्मपुत्र नदियों समेत एशिया की दस नदियों का उद्गम हिमालय की तलहटी से ही होता है। अन्य नदियां झेलम, चिनाब, ब्यास, रावी, सरस्वती और यमुना हैं। ये सभी नदियां सामूहिक रूप से 2250 किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र में बहती हैं। इन नदियों की औसत चौड़ाई 200 किमी है। ये अपने जलग्रहण क्षेत्र में 1.3 अरब लोगों को ताजा पानी उपलब्ध कराती हैं, जिनमें उत्तर भारत की बड़ी जनसंख्या शामिल है। पानी की समस्या से प्रभावित लोगों में से 80 प्रतिशत एशिया में हैं। यह समस्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में सबसे ज्यादा है। सीएसई की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार, देश में 2031 में पानी की प्रतिव्यक्ति वार्षिक औसत उपलब्धता 1367 क्यूबिक मीटर रह जाएगी। यह 1950 में 3000-4000 थी, जो लगातार घटती जा रही है। विडंबना है कि जहां पानी की उपलब्धता घट रही है, वहीं पानी की खपत बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पानी की आवश्यकता जहां 1100 अरब क्यूबिक थी, वह बढ़कर 2050 में 1447 क्यूबिक हो जाएगी। खेती के लिए 200 क्यूबिक अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होगी। सीएसई रिपोर्ट के अनुसार गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली का जलग्रहण क्षेत्र कुल नदी जलग्रहण क्षेत्र का 43 प्रतिशत है। तय है, इनमें पानी का कम होना देश में बड़ा जल संकट पैदा कर सकता है। क्योंकि भारत में दुनिया कि 17.74 प्रतिशत आबादी है, जबकि उसके पास ताजा पानी के स्रोत केवल 4.5 प्रतिशत ही हैं। अतएव कालांतर में नदियों सूखने का संकेत चिंताजनक है।
नदियों के सूखने की आशंकाएं काल्पनिक नहीं हैं। कुछ वर्ष पहले कनाडा की स्लिम्स नदी के महज चार दिन के भीतर विलुप्त हो जाने की खबर ने दुनिया को चौंका दिया था। भू-वैज्ञानिकों ने इसके गायब होने का कारण जलवायु परिवर्तन माना था। अधिक गर्मी के कारण जिस हिमनद से ये नदी निकलती थी, उसका प्रवाह एकाएक बहुत बढ़ गया। इस तेज बहाव के कारण स्लिम्स विपरीत दिशा में प्रवाह बदलकर अलास्का की खाड़ी की ओर बहने लगी। आधुनिक इतिहास में नदी के इस तरह से लुप्त होने और दिशा बदलने की कहानी पहली बार देखने व सुनने में आई थी। हालांकि भारत में सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। इस नदी के धार्मिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक साक्ष्य मौजूद होने के बावजूद तमाम इतिहास, भूगोल और साहित्य से जुड़े बुद्धिजीवी इसे एक काल्पनिक नदी मानते रहे हैं। लेकिन अब नए अनुसंधानों से स्पष्ट हो गया है कि ऋग्वेदकालीन यह नदी वास्तव में अस्तित्व में थी, जो पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव के चलते लुप्त हो गई। इसके लुप्त होने के कारण इसके किनारों पर जिस सारस्वत सभ्यता का चरम विकास हुआ था, वह नष्ट हो गई और लोग पलायन कर गए। साफ है, जलवायु परिवर्तन के चलते नदियां विलोपित हो जाती हैं और रास्ता भी बदल लेती हैं।
गंगोत्री जिस हिमखंड से निकलती है, उसके इस उद्गम स्रोत का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर था। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहां से भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा निकलती है। 2526 किमी लंबी गंगा नदी देश की सबसे प्रमुख और पवित्र नदियों में से एक है। अनेक राज्यों के लगभग 40 करोड़ लोग इस पर निर्भर हैं। इसे गंगोत्री हिमनद से पानी मिलता है। परंतु 87 वर्षों में 30 किमी लंबे हिमखंड का पौने दो किमी हिस्सा पिघल चुका है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में 9575 हिमनद हैं। जिनमें से 968 हिमनद सिर्फ उत्तराखंड में हैं। यदि ये हिमनद तेजी से पिघलते हैं तो भारत पाकिस्तान और चीन में भयावह बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है। अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि गंगोत्री हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नजर आ रहा था। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्श 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 किमी लंबा और 2 से 4 किमी चैड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति और बाईं और चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड है। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताजा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर गया है। इसके कारण गाय के मुख (गोमुख) की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। इसका बदलाव जलवायु परिवर्तन का कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते है। साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का क्रम बना रहता है तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा के विलुप्त होने का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा। केंद्रीय जल आयोग के अध्ययन ने तो गंगा नदी में घटते पानी की जानकारी दे ही दी है।
गंगा का संकट टूटते हिमखंड ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मजदूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए जलस्रोतों के दुरूपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी वोटलिंग प्लांट संकट बने हुए हैं। टिहरी बांध बना तो सिंचाई परियोजना के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचों-बीच पेप्सी व कोक जैसी निजी कंपनियां बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा लाभ कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल को सुखाने का काम कर रही हैं। यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर 97 लाख लीटर पानी प्रति घंटा खींच रहे हैं। इससे जहां दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेजी से छीज रहा है।