हिन्दुत्व : एक विमर्श

नीलू शेखावत

हिन्दुत्व : एक विमर्शहिन्दुत्व : एक विमर्श

पुस्तक : हिन्दुत्व : एक विमर्श

लेखक : इन्दुशेखर तत्पुरुष

पुस्तक का मूल्य : ₹225

 

कुछ समय पूर्व बीबीसी हिन्दी का एक आर्टिकल पढ़ने को मिला-

‘क्या भारत वाकई हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है?’ इसमें अस्फुट शब्दों में यह भय दिखाई दिया कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा।

लेखक और इतिहासकार पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य भी उद्धरित किया गया कि हिन्दू राष्ट्र की मांग नई नहीं है।

“1925 में संघ की स्थापना हुई। उस समय हिन्दुत्व के सबसे प्रभावशाली विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक “हिन्दुत्व : कौन है हिन्दू” में इस बारे में लिखा। अपनी इस पुस्तक में सावरकर ने हिन्दुत्व की विचारधारा को लेकर वैचारिक फ्रेमवर्क दिया था और इस विचारधारा के लोग आज सत्ता में हैं।”

सावरकर का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक से जोड़ते हुए उनकी प्रतिक्रियावादी हिन्दुत्व की अवधारणा पर भी चर्चा की गई।

किंतु हिन्दुत्व को क्या सचमुच प्रतिक्रिया की आवश्यकता है? क्या वह किसी की लकीर को छोटा करके बड़ा बना है? क्या हिन्दुत्व राज्य या राजनीति का विषय है? असंख्य नद, नदी और धाराओं को स्वयं में समाहित करने वाला सागर फिर इनसे प्रतिस्पर्धा भी करता है?

आज जब आधे अधूरे और एक तरफा तथ्यों के बल पर, हिन्दुत्व के नाम पर भय उत्पन्न किया जाता जाता है, उसे अन्य प्रतिक्रियावादी मत पंथ और मजहबों के समकक्ष रखकर स्थापना-पुनर्स्थापना की बात की जाती है, ऐसे समय में एक पुस्तक जिसे पढ़ने की आपको नितांत आवश्यकता है वह है- हिन्दुत्व: एक विमर्श।

हिन्दुत्व की अवधारणा पर बात करते हुए एक शीर्षक- “क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र है” से लेखक स्पष्ट करते हैं- “भारत में हिन्दू राष्ट्र को लेकर तीन प्रकार के मत देखने को मिलते हैं – एक वह जो यह मानकर चलते हैं कि भारत एक धर्म निरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश है..दूसरे वह जो मानते हैं कि हिन्दू धर्म की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी.. अतः भारत को हिन्दू राष्ट्र बनना ही चाहिए। एक तीसरा मत भी है जो यह कहता है कि भारत सनातन हिन्दू राष्ट्र है..राज्य के प्रचलित अर्थों में धर्म निरपेक्ष या धर्म विरोधी होने पर भी इसका हिन्दू राष्ट्र का स्वरूप तब तक अपरिवर्तित है, जब तक अधिसंख्यक समाज हिन्दू परंपरा के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर रहा है।”

स्पष्ट है भारतीय दृष्टि राष्ट्रीयता को राजनीतिक संदर्भ में नहीं देखती। फिर समाज में हिन्दुत्व को लेकर कैसा भय और क्योंकर भय? खैर यह तो बात हुई प्रसंगवश पढ़ने में आए किसी लेख की किंतु यदि बात की जाए उस पुस्तक की जिसमें हिन्दुत्व से जुड़ी प्रत्येक शंका का समाधान और दृष्टि का वितान मिलता है। भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। इसकी राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक सत्ता न होकर सांस्कृतिक है। लेखक ने इसे ‘राष्ट्रवाद’ के स्थान पर ‘राष्ट्रबोध’ कहना अधिक उचित माना है। “क्योंकि एक परंपरा, एक इतिहास बोध और एक समन्वयी संस्कृति पर आधारित यह राष्ट्रीय भावना कोई वाद नहीं है। इसका कोई प्रतिवाद भी नहीं होता। अन्य वादों की तरह यह किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रवर्तित नहीं है। यह तो एक वादातीत भाव होता है। अतः राष्ट्रवाद कहकर किसी वाद के सांचे में डालना इसे बहुत छोटा करके देखना है।” इसी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के बल पर आसेतु हिमालय सब एक सूत्र में बंध पाए। केरल का युवक बद्रीनाथ को तपस्थली चुनता है तो कश्मीर का साधक रामेश्वरम् के दर्शन पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझता है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता का अनुभव, ‘सियाराम मय सब जग जानि’ का भाव इस राष्ट्र के किसी भी भाग में आप सहज रूप में पा सकते हैं। वस्तुतः यही भाव तो अध्यात्म है। एक सर्वव्यापी सत्ता का स्वीकार आपके मन में परायेपन का भाव आने ही नहीं देता।

धर्मेतर अध्यात्म की चर्चा भी इन दिनों सुनाई दे रही है, जो धर्म और अध्यात्म को पृथक करने की हिमायती है। ऐसे विमर्शकारों का मानना है कि अध्यात्म के लिए धर्म गैर जरूरी है। भारत का एजेंडा लेखन जगजाहिर है। ऐसे एजेंडाधारियों को भी लेखक ने पुस्तक में उत्तर दिया है।

विकास के नाम पर परमाणु के पहाड़ पर बैठा व्यक्ति ‘Other is hell’  मानकर प्रकृति और प्राणिजगत का विनाश करके दर्पदीप्त आंखों से स्वयं को विजेता घोषित कर रहा है। ऐसे समय में भारतीय दृष्टि में विकास के क्या मानदंड हैं, उन पर भी पुस्तक के एक अध्याय में विस्तृत चर्चा की गई है।

भाषा, भक्ति, पर्व और अर्थायाम के अतिरिक्त विवेकानंद, निराला, गोलवलकर तथा दीनदयाल उपाध्याय से नई दृष्टि से साक्षात्कार करने का अवसर, जो यह पुस्तक अपने पाठकों को प्रदान करती है।

हिन्दुत्व, राष्ट्र, धर्म और संस्कृति इत्यादि अन्यान्य जटिल विषयों को बोधगम्य बनाकर पाठक वर्ग की अनेक दृढ़मूल भ्रांतियों का निवारण इस पुस्तक में किया गया है।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः को सार्थक करती हुई लेखक की भाषा का प्रवाह सामान्य तथा गहन अध्ययनशील दोनों प्रकार के अध्येताओं के लिए उपयोगी है। 

(लेखिका राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में रिसर्च स्कॉलर हैं)

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