महावीर के अक्स में आत्ममंथन के कुछ पहलू…!
डॉ. अजय खेमरिया
महावीर के अक्स में आत्ममंथन के कुछ पहलू…!
भगवान महावीर भारत की लोक कल्याण केंद्रित चिरकालिक मत परम्परा के सबसे सशक्त संचारक हैं। उनके जीवन दर्शन की उपयोगिता मानव जाति की आयु बढ़ने के समानांतर दुगने अनुपात में बढ़ रही है।भौतिकता के ताप से धधकते मानवजीवन के सामने महावीर का दर्शन ही आज कारगर समाधान नजर आता है। “अपरिग्रह”और “अहिंसा” के पथ पर अगर विकास को अवलंबित किया गया होता तो आज दुनिया के सामने वर्तमान समस्याओं का अंबार नहीं होता। प्रकृति के शोषण की जगह दोहन के जिस सिद्धान्त को भगवान महावीर ने “अपरिग्रह” का नाम दिया है असल में वह केवल आर्थिक या निजी आग्रह तक सीमित नहीं है। अपरिग्रह मानव जीवन का सार रूप है। इसकी व्याप्ति चराचर जगत तक है। आवश्यकता से अधिक का भोग और संग्रह बुनियादी रूप से ही प्रकृति के विरूद्ध है। वैश्विक बेरोजगारी, विषमता और भूख के संकट अपरिग्रह के अवलम्बन से ही दूर किये जा सकते हैं। दुनिया में चारों तरफ फैली हिंसा असल में अपरिग्रही लोकसमझ के अभाव का परिणाम है। व्यक्ति के रूप में हमारे अस्तित्व और समग्र उत्कर्ष के लिए जितने साधन अनिवार्य हैं, वे प्रकृति ने प्रावधित किये हैं, लेकिन मनुष्य ने अज्ञानता के वशीभूत इन्द्रिय सुख के लिए न केवल प्रकृति बल्कि अपने सहोदरों का शोषण करने के जिस रास्ते को पकड़ लिया है वही सारे क्लेश की बुनियादी जड़ है। सांगोपांग हिंसा के कुचक्र भी असल में इसी मानसिकता की उपज हैं।महावीर और जैन दो ऐसे शब्द हैं जिनकी वास्तविक समझ मानव ग्रहण कर ले तो यह धरती सभी कष्ट और क्लेशों से निर्मुक्त हो सकती है। जैन दर्शन आज एक वर्ग विशेष के उपनाम और जातीय पहचान तक सीमित कर दिया गया है। सियासी लालच ने इसे अल्पसंख्यक का तमगा दे डाला। सच्चाई यह है कि जैन शब्द भारत का दुनिया को एक दिग्दर्शन है, जो यह समझाने का प्रयास है कि इस सांसारिक जय विजय से परे भी एक जय है जो इन्द्रियातीत है। मनुष्यता का अंतिम पड़ाव जिस मंजिल पर जाकर स्थाई विराम पाता है वह जैन हो जाना ही है। यह तथ्य है कि आज जैन मत की पालना अगर ईमानदारी से की जाती तो धरती पर मानवता और प्रकृति के संकट खड़े ही नहीं होते।
जैन शब्द जिन से बना है जिसका अर्थ है विजेता। संसार रूपी मोहगढ़ पर विजय पाना। जो तपस्या और आत्मानुशासन से स्वयं की वासनाओं व इच्छाओं पर विजय पा लेता है, उसे जिन कहा गया। इस दर्शन का निष्ठापूर्वक अनुपलित करने वाले जैन कहलाये। जैन मत का सबसे प्रमुख आधार त्रिरत्न और कषाय है। दोनों का अनुपालन मानव समाज की सभी बुराइयों और कष्टों का समूल नाश कर सकता है। सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन सम्यक चरित्र से मिलकर त्रिरत्न बना। यह तथ्य है कि जैन मत का प्रसार उस गति से नहीं हुआ जितना यह प्राचीन और लोकोपयोगी है। बुद्ध बाद में आये लेकिन पूरी दुनिया में छा गए। श्रीलंका, जापान, चीन कोरिया, कम्बोडिया, ताईवान वर्मा, तक बुद्ध की शिक्षा और दर्शन का प्रसार हुआ। लेकिन जैन मत का प्रसार क्यों नहीं हुआ? इसका उत्तर राष्ट्रसंत रहे मुनि तरुणसागर जी स्वयं देते थे वो जीवन पर्यंत कहते रहे कि महावीर को मंदिरों से निकालो, सोने की मूर्तियों से मुक्त करो। महावीर को सड़क चौराहे जेल स्कूल पर लाओ। यानी जैन मत जिस आधार पर खड़ा हुआ था जातिवाद, कर्मकांड ,पुरोहित वाद की जटिलता के विरोध में जैनियों ने इसे बिसार ही दिया। आज महावीर के अनुयायियों में जातिवाद, छूआ छुत है। फिजूलख़र्च के आडम्बर है। जड़ता है और एक आवरण है जिसमें किसी गैर जैन की अघोषित मनाही सी है। कषाय इतना हावी है कि हमने त्रिरत्नों को भुला दिया। तरुण सागर जी जीवित रहने तक जिन क्रांतिकारी उपचारों की बात करते रहे वे आज भी समाज मे बहुत दूर नजर आते हैं।
सच तो यह है कि भारतीयता की पुण्यभूमि पर खड़े जैन मत को ही वैश्विक मत होने का अधिकार है। महावीर सा पैगम्बर इस सभ्यता में दूसरा नहीं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनके अनुयायी उतने सफल नहीं हुए जितना बुद्ध औऱ दूसरे मत सम्प्रदाय। यह बात कतिपय अप्रिय लग सकती है, लेकिन तथ्य यही है कि महावीर का दर्शन भारतीयता का मूल दर्शन है।महावीर का प्रसार भारत की सनातन सभ्यता का प्रसार है। वर्तमान सभी वैश्विक संकट के निदान महावीर में भी अंतर्निहित है। हिंसा और विषमताओं को जन्म देती आर्थिक नीतियां अहिंसा औऱ अपरिग्रह को भूला देने का परिणाम है। जनांकिकीय दृष्टि से आज भारत में यह वर्ग शून्यता की राह पर है क्योंकि जैन समाज अपनी आर्थिक सम्पन्नता का प्रयोग मंदिरों और पंचकल्याणक जैसे महंगे उपक्रमों में कर रहा है। आवश्यकता महावीर को ज्ञान जगत में स्थापित करने की है। मंदिरों के परकोटे से बाहर महावीर वाणी के स्वर ज्यादा आवश्यक हैं।मिशनरीज मोड और मॉडल से जैन मत के मैदानी प्रवर्तन की भी आज भारत को आवश्यकता है। इससे कौन इंकार कर सकता है कि जैन संस्कार विशुद्ध रूप से भारतीयता को संपुष्ट करते हैं। स्वयं को अलग अल्पसंख्यक मानने की बढ़ती समझ से महावीर वाणी कमजोर ही होगी क्योंकि यह तो सनातन पंथ की बाहरी बुराइयों के शमन की मानवीय धारा है।
आज दुनिया महाशक्तियों के पाप से कराह रही है।विस्तारवादी और साम्रज्यवादी मानसिकता ने पूरी मानवता के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। यहां महावीर की प्रासंगिकता पूरी प्रखरता से प्रदीप्ति पा रही है। महावीर का दिगंबर रूप वन्दनीय क्यों हो जाता है इसके उत्तर में हमें वीरता को भी समझने की जरूरत है। संसार में सब वीरता का वरण करना चाहते हैं, इसका हेतु स्वयं का प्रभुत्व और कतिपय वर्चस्व ही है।आज आर्थिकी में सबसे शिखर पर हथियारों का बाजार है और दूसरे पर दवाएं। दोनों प्रकृति के विरुद्ध हैं। वीरता की अधिमान्यता के लिए हथियारों की होड़ है लेकिन वीर होकर कोई महावीर नही बनना चाहता है क्योंकि महावीर होना यानि दिगम्बर हो जाना है। यहाँ दिगम्बर अवस्था को भाव रूप में समझने की आवश्यकता है।वीरता की यह हथियार केंद्रित होड़ न केवल खोखली है बल्कि अस्थायी भी है। जैन मत के सभी 24 तीर्थंकर क्षत्रिय बिरादरी से आये थे यानी वे वीरता से परे भी किसी अनन्त की खोज में थे। इस अर्थ में हमें दिगम्बर अवस्था और महावीर होने को विश्लेषित करने की आवश्यकता है। दुनिया की कराहती महाशक्तियों को आज भारत की महावीर वाणी ही बचा सकती है।