ऊधमसिंह ने लंदन जाकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था
26 दिसंबर 1899 क्राँतिकारी ऊधमसिंह का जन्म
रमेश शर्मा
ऊधमसिंह ने लंदन जाकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था
हमारे देश का प्रत्येक दिन उन बलिदानियों और क्रातिकारियों की स्मृति से जुड़ा है, जिनके बलिदान से हम स्वतंत्रता की खुली हवा में श्वांस ले रहे हैं। 26 दिसम्बर की स्मृतियां सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी ऊधमसिंह से जुड़ी हैं। उन्होंने लंदन जाकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था।
क्रांतिकारी बलिदानी ऊधमसिंह का जन्म पंजाब में संगरूर जिले के गाँव सुनाम में हुआ था। उनके माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी। वे दो भाई थे। बड़े भाई का नाम मुक्ता सिंह था जबकि इनका नाम शेरसिंह रखा गया। माता पिता की मृत्यु के कारण दोनों भाइयों को अमृतसर खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। बड़े भाई मुक्तासिंह बहुत सरल और सीधी प्रकृति के थे जबकि बालक शेरसिंह बहुत चंचल और तेज स्वभाव के थे। इस कारण अनाथालय वालों ने दोनों भाइयों के नाम बदल दिये। बड़े मुक्ता सिंह जो सरल प्रवृत्ति के थे उनका नाम साधु सिंह और शेरसिंह तीक्ष्ण प्रवृत्ति के थे इस कारण इनका नाम ऊधमसिंह रख दिया। दोनों भाई आगे चलकर इन्ही नामों से प्रसिद्ध हुए। ऊधमसिंह थोड़े बड़े हुए तो अपनी आजीविका स्वयं कमाने लगे और पढ़ाई शुरू की। उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास कर ली और अपने जीवन की राह तलाशने लगे। उन्हें शासकीय सेवा के भी प्रस्ताव आने लगे। वे कुछ निर्णय लेते इसी बीच एक घटना ऐसी घटी जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। यह घटना थी वैशाखी के दिन जलियाँवाला बाग हत्याकांड। हालांकि उस काल-खंड में अंग्रेजों और अंग्रेजों से पोषित संरक्षित भारतीयों द्वारा अन्य भारतीय बंधुओं के साथ किया जाने वाला अपमानजनक व्यवहार और शोषण उन्हें खटकता था। वे देखकर और सुनकर मन मसोसकर रह जाते थे। लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा और घृणा भर दी। वे बदले की आग में जलने लगे। इसका कारण यह था कि शाँतिपूर्वक वैशाखी मना रहे परिवारों के बीच वहाँ ऊधमसिंह भी उपस्थित थे। वहाँ जो घटा उनकी आँखों के सामने घटा था। किसी का कोई अपराध नहीं था। लोग त्यौहार मना रहे थे। पुरुषों की तुलना में महिलाएं और बच्चे अधिक थे। तभी पुलिस आ धमकी और गोलियां चलाना शुरू कर दीं। लाशों के ढेर लगने लगे। कुछ लोग भागे तो वहां कुआँ था उसमें गिर गये। कुएं में पानी नहीं था। उसमें भी लोग गिरकर मरने लगे। किसी को यह समझ न आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। पुलिस की गोलियाँ तब तक चलीं जब तक एक भी खड़ा व्यक्ति वहां दिखा। अंग्रेजों के आकड़े के अनुसार वहां मरने वालों की संख्या तीन सौ और घायलों की संख्या बारह सौ थी। जबकि ऊधमसिंह का मानना था वहां लगभग ढाई हजार लोग एकत्रित थे। भरने वालों के आकड़े हजार से कम न थे । चूँकि वे घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे। जलियाँवाला बाग हत्याकांड की तिथि 14 अप्रैल 1919 थी। यही तिथि ऊधमसिंह के बदलाव की तिथि रही। यहीं वे अंग्रेजों के विरुद्ध क्रातिकारी आंदोलन से जुड़ गये।
वे गदर पार्टी के संपर्क में आये और गदर पार्टी की विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। पार्टी की ओर से उन्हें अखबार “गदर की गूँज” के प्रकाशन और लोगों तक पहुंचाने का काम मिला। वे करने लगे और गिरफ्तार हुए। उन्हे पाँच वर्षों की सजा हुई। उन्हें लाहौर जेल में रखा गया। पाँच वर्षों के बाद वे रिहा हुए। उन पर निगरानी रखनी शुरू हो गई। वे पंजाब से कश्मीर गये और वहाँ से गायब हो गये। वे वेष बदलकर काबुल पहुंचे और वहां से अफ्रीका, ब्राजील, अमेरिका और जिम्बाब्वे आदि अनेक दशों में गये। वे अंग्रेजी अच्छी जानते थे, इस कारण उन्हें नौकरी जल्दी मिल जाती थी। जब उन्हें लगा कि अंग्रेज उन्हें भूल चुके होंगे। वे 1934 में लंदन पहुंचे। उन्होंने स्वयं को ऐसा प्रस्तुत किया मानों वे अंग्रेज कौम के बड़े खिदमदगार हैं। उन्होंने जल्दी ही विश्वास अर्जित कर लिया, नौकरी भी मिल गई और 9 एल्डर स्ट्रीट में मकान लेकर रहने लगे। उन्होंने एक कार खरीदी और 6 कारतूस वाली रिवाल्वर भी। रिवाल्वर को छिपाने का भी प्रबंध कर लिया। उन्होंने एक मोटी पुस्तक खरीदी। उसके पन्नों को बीच से ऐसा काटा कि उसमें रिवाल्वर फंस जाये। वे अपनी रिवाल्वर उसी पुस्तक में रखते थे।
समय के साथ उन्होंने अपने संपर्क बढ़ाये और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की सदस्यता ले ली। यह संस्था अंग्रेजों के वफादार भारतीयों की थी। जल्दी ही ऊधमसिंह ने संस्था के पदाधिकारियों में अपना विश्वास बना लिया और उन सभी बैठकों में जाने लगे जो भारतीयों के बीच अंग्रेजों की विशेषता समझाने के लिये आयोजित होतीं थीं। इन बैठकों में यह भी समझाया जाता था कि भारत में अंग्रेजों का शासन भारतीय लोगों के हित में है। ऐसे अनेक आयोजनों में ऊधमसिंह वह पुस्तक अपने साथ जरूर ले जाते, जिसमें रिवाल्वर छुपा होता था। लगभग छै वर्ष की प्रतीक्षा के बाद उन्हें अपना उद्देश्य पूरा होता नजर आया। यह आयोजन 13 मार्च 1940 को आयोजित हुआ। लंदन के कैस्टन हॉल में आयोजित होने वाले इस समागम में जनरल डायर के पहुँचने की संभावना थी। यह आयोजन दो संस्थाओं ने मिलकर किया था। एक ईस्ट इंडिया एसोसिएशन जो लंदन में बसे अंग्रेजों के वफादार भारतीयों की थी और दूसरी रायल सेन्ट्रल एसोशियेशन। सभा की अध्यक्षता रिटायर जनरल माईकल ओ डायर करने वाले थे। नियत समय पर ऊधमसिंह कार्यक्रम में पहुंचे और दीवार के किनारे की कुर्सी पर बैठ गये। उन्होंने पूरा भाषण ध्यान से सुना। आयोजन पूरा हुआ और कुछ लोग डायर के पास अपना परिचय देने और अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी दिखाने जाने लगे। ऊधमसिंह भी अपनी कुर्सी से उठे और मंच के पास गये। पुस्तक से रिवाल्वर निकाली और फायर कर दिये। दो गोलियाँ डायर को लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। ऊधमसिंह ने भागने का प्रयास नहीं किया। गिरफ्तार हो गये। उन्हें 31 जुलाई 1940 को लंदन की पैरोविल जेल में फाँसी दे दी गई।