स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान : घर वापसी अभियान से नाराज कट्टरपंथी ने ले ली जान

स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान : घर वापसी अभियान से नाराज कट्टरपंथी ने ले ली जान

रमेश शर्मा

स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान : घर वापसी अभियान से नाराज कट्टरपंथी ने ले ली जान   स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान : घर वापसी अभियान से नाराज कट्टरपंथी ने ले ली जान

वेदज्ञ, उच्चकोटि के अधिवक्ता, ओजस्वी वक्ता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्राँतिकारियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करने वाले स्वामी श्रद्धानंद की हत्या केवल एक इस्लामिक कट्टरपंथी द्वारा की गई हत्या भर नहीं थी, बल्कि वह भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता को बाधित करने और रिलीजियस कन्वर्जन के लिये विवश किये गये हिन्दुओं के घर वापसी अभियान को रोकने का षड्यंत्र था।

स्वामी श्रद्धानंद का पूरा जीवन भारत राष्ट्र के स्वत्व और स्वाभिमान की प्रतिष्ठापना के लिये समर्पित रहा। उनकी हिन्दू मुस्लिम एकता केवल नारों तक सीमित नहीं थी बल्कि उस सिद्धांत पर आधारित थी कि भारतवर्ष के समस्त मुसलमान कन्वर्टेड हैं, वे हिन्दू से मुसलमान बने हैं, सबके पूर्वज एक हैं। उनके तर्क कितने अकाट्य और संपर्क कितने व्यापक थे इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दिल्ली की जामा मस्जिद क्षेत्र में एक विशाल आमसभा को संबोधित किया, जिसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग थे। स्वामीजी ने अपना उद्बोधन वेद की ऋचा से आरंभ किया और ॐ शाँति से समाप्त किया। बीच बीच में ‘अल्लाह हो-अकबर’ का उद्घोष भी हुआ। यह सभा 1919 में हुई थी। उन्होंने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और बिहार में ऐसे असंख्य लोगों की घर वापसी कराई, जो कभी भय और विवशता के चलते मुसलमान बन गए गये थे। इसमें उत्तर प्रदेश के मलकान राजपूतों की घर वापसी की चर्चा पूरे देश में हुई। यह घटना 1920 की है। स्वामी जी के अभियान के अंतर्गत अनेक गाँवों के निवासी मलकान राजपूत वापस सनातन परंपरा में लौटे। उन्होंने 13 अप्रैल 1917 को सन्यास लिया, किन्तु सन्यासी बनकर भी स्वाधीनता संग्राम में अपनी सक्रियता बंद नहीं की। उन्होंने अमृतसर में आयोजित काँग्रेस अधिवेशन में स्वागत भाषण दिया और पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा जो पारित न हो सका। यह अधिवेशन दिसम्बर 1919 में आयोजित हुआ था।

उन्होंने कांग्रेस द्वारा आरंभ किये गये असहयोग आँदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, किन्तु असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन को जोड़ने के वे पक्षधर नहीं थे। उन्होंने इसे मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति बताया और गाँधी जी सहित अन्य नेताओं को चेताया कि इससे भारत राष्ट्र में वे कट्टरपंथी शक्तियाँ प्रबल होंगी जो छल बल से सनातन परंपराओं को नष्ट करना चाहती हैं। यह स्थिति भविष्य में भारत राष्ट्र के लिये एक बड़ा संकट खड़ा करेगी। पर उनकी बात नहीं मानी गई। इस पर उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया। उन्हें सत्ता से कोई लेना देना नहीं था। उनका समर्पण स्वराष्ट्र के लिये था। वे स्वदेश के लिये जिए, स्वभाषा के लिये जिए और स्वसंस्कृति के लिये बलिदान हो गए। स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का प्रत्येक पल भारत राष्ट्र, संस्कृति, स्वत्व और स्वाधीनता के लिये समर्पित रहा।

स्वामीजी का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के अंतर्गत ग्राम तालवान में हुआ था। उनके पिता नानकचंद विज ब्रिटिश सरकार में पुलिस अधिकारी थे। बचपन में उनका नाम बृहस्पति मुंशीराम विज रखा गया। लेकिन वे मुंशीराम नाम से ही प्रसिद्ध हुए। पिता की पदस्थापना अलग-अलग स्थानों पर होती रही, इस कारण उनकी शिक्षा घर पर ही हुई। उनका यज्ञोपवीत संस्कार दस वर्ष की आयु में हुआ। इसी के बाद उनका विद्यालय नियमित हो सका। उन्होंने बनारस के क्वींस कालेज और प्रयागराज के म्यो कालेज से भी पढ़ाई की, जबकि वकालत की परीक्षा लाहौर से उत्तीर्ण की। वे लाहौर में ही वकालत करने लगे। उनकी गणना अपने समय के श्रेष्ठतम वकीलों में होती थी। उनके जीवन में परिवर्तन के चार कारण प्रमुख बने। अपने समय पिता भले अंग्रेजों की पुलिस में नौकरी करते थे, पर घर का वातावरण भारतीय संस्कृति परंपराओं के अनुरूप था। यह परिवार की परंपराओं का ही कारण था कि उनका दस वर्ष की आयु में ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया था। पारिवारिक विशेषताओं के कारण ही बालक मुंशी ने भले विद्यालय में अंग्रेजी और उर्दू की पढ़ाई की, पर घर में संस्कृत और हिन्दी पढ़ी। इसी कारण बालक मुंशी राम को अंग्रेजी और उर्दू के साथ, हिन्दी, संस्कृत और गुरुमुखी भी बहुत अच्छा ज्ञान था। 1857 की क्रांति के समय पिता की पदस्थापना जालंधर में थी। अंग्रेजों के अत्याचार उनके पिता ने अपनी आँख से देखे थे। इसके साथ ही पुलिस बल के भीतर भारतीय जवानों के साथ अपमानजनक व्यवहार भी। क्रांति का भले दमन हो गया था फिर भी पुलिस बल के उन अधिकारियों के प्रति अंग्रेजों को सदैव अविश्वास रहा, जो घर के भीतर परंपराओं से जुड़े रहे। ऐसे अनेक प्रसंग बालक मुंशी राम ने अपने पिता से सुने थे। इस कारण स्वत्व का बोध उन्हें बचपन में ही हो गया था। वे बचपन में हनुमान चालीसा का पाठ करते और हनुमान जी से भारतीय समाज जीवन को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति की प्रार्थना करते थे। उनके जीवन में परिवर्तन का दूसरा कारण एक पादरी द्वारा एक बालिका के साथ दरिन्दगी की घटना भी बनी। उन दिनों अंग्रेजों द्वारा छोटी आयु की भारतीय लड़कियों के साथ दुराचार सामान्य बात थी, जिसकी कहीं कोई रिपोर्ट न होती थी और न ही किसी पर कोई कार्रवाई। भयभीत लोग ऐसे अत्याचार को चुपचाप सहन करने को विवश थे। उनके परिवर्तन का तीसरा निमित्त उनकी पत्नी बनी। उनका विवाह शिवा देवी से हुआ तब उनकी आयु 21 वर्ष थी। पत्नी विदुषी थीं, वैदिक थीं, पति पारायणा थीं। पत्नी के आग्रह पर घर में सत्यार्थ प्रकाश पत्रिका आना आरंभ हुई। यह पत्रिका स्वामी दयानंद सरस्वती के संपादन में प्रकाशित होती थी। पत्नी के समर्पण और पादरी के बलात्कार की घटना का उल्लेख स्वयं श्रद्धानंद जी ने अपनी आत्मकथा “कल्याण मार्ग का पथिक” में किया है। चौथी घटना स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन रहे। यह घटना उत्तर प्रदेश के बरेली में 1889 की है। तब उनकी आयु 23 वर्ष की थी। स्वामी दयानंद सरस्वती का आगमन बरेली में हुआ। सत्यार्थ प्रकाश के कारण उनका प्रभाव तो था ही। पत्नी के आग्रह पर मुंशी राम प्रवचन सुनने गये और आर्य समाज से जुड़ गये। लौटकर जालंधर आये एवं आर्य समाज के प्रचार प्रसार में लग गये। वे जालंधर आर्य समाज के अध्यक्ष भी बने।

उनके दो पुत्र हरीश चंद्र और इंद्र चंद्र, दो पुत्रियां अमृतकला और वेद कुमारी हुईं। वे आर्य समाज और वकालत के काम में पूरी तरह लगे थे, तभी उन्होंने अपनी पुत्री अमृतकला को एक गीत गाते सुना “ईसा ईसा बोल, तेरा क्या लागे मोल” वे चौंक गए और उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति के विद्यालय खोलने का निर्णय लिया। 1901 में उन्होंने देश का पहला गुरुकुल खोला। बच्चों से 1500 रुपये एकत्र कर दक्षिण अफ्रीका में भारतीय नागरिकों के अधिकारों का संघर्ष कर रहे गाँधी जी को भेजे। समय के साथ वे काँग्रेस के सदस्य बने तथा स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे। तभी पत्नी का निधन हो गया। तब पत्नी की आयु 35 वर्ष थी। पत्नी के निधन के बाद 24 अप्रैल 1917 में उन्होंने सन्यास ले लिया और विधिवत् स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती बने।

दिल्ली की जामा मस्जिद क्षेत्र में उनके भाषण और उनके द्वारा चलाए जा रहे घर वापसी अभियान की सफलता के कारण मिशनरी, मुस्लिम लीग तथा अन्य मुस्लिम संगठनों के लोग उनसे नाराज हो गये। दूसरा खिलाफत आँदोलन को असहयोग आँदोलन से जोड़ने का विरोध करने पर काँग्रेस और गाँधी जी से भी उनकी दूरियाँ बढ़ीं। तभी केरल के मालाबार से हिन्दुओं के सामूहिक नर संहार की खबर आई। स्वामी श्रद्धानंद जी, डॉ. मुँजे और डॉ. केशव हेडगेवार के साथ मालाबार गये। वे चाहते थे कि कांग्रेस इस हिंसा की निंदा करे पर काँग्रेस और गाँधी जी इसके लिये तैयार नहीं हुए। परिणामस्वरूप उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और राष्ट्र भाव के प्रचार में लग गये। वे कहते थे कि यदि राष्ट्र भाव प्रबल होगा तो लोग अपने पूर्वजों को पहचानेंगे, भले उनकी पूजा उपासना करने का तरीका अलग हो। इससे यह संघर्ष न होगा। उनके द्वारा बड़ी संख्या में मेवाती और मलकान राजपूतों की घर वापसी कराने से कुछ कट्टरपंथी लोग बुरी तरह चिढ़ गये और उनकी हत्या का षड्यंत्र करने लगे।

वह 23 दिसम्बर 1926 का दिन था। स्वामी जी दिल्ली में चाँदनी चौक में नया बाजार स्थित आवास में विश्राम की तैयारी कर रहे थे, तभी अब्दुल रशीद नामक एक युवक आया। उसने स्वामी जी से धर्म पर चर्चा की अनुमति मांगी और भीतर आ गया। वह पिस्तौल छिपाकर लाया था। भीतर आते ही उसने गोलियों की बौछार कर दी। स्वामी जी की आयु सत्तर वर्ष थी। वे अपनी निर्जीव देह को छोड़कर परम ज्योति में विलीन हो गये।

इस प्रकार युवक का आना और स्वामी जी की हत्या करना साधारण घटना नहीं हो सकती। किन्तु उस युवक के पीछे कौन कौन शक्तियाँ थीं। इसका पता किसी ने न लगाया। चूँकि स्वामी जी की हत्या से हिन्दुओं का कन्वर्जन अभियान चलाने वाली मिशनरी, मुस्लिम लीग और जमात शक्तियों को राहत मिली। वहीं घटना के दो दिन बाद कांग्रेस के अधिवेशन में गाँधी जी ने हत्यारे का खुलकर बचाव किया। चूँकि यह वह कालखंड था, जब मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता कांग्रेस पर हिन्दूवादी होने के आरोप लगा रहे थे और काँग्रेस के नेता मुस्लिम समाज का विश्वास जीतने का प्रयास कर रहे थे। इस कारण काँग्रेस इस घटना को उतनी गंभीरता से न ले सकी, जितनी गहरी यह घटना थी ।

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