पूर्वोत्तर की समृद्ध साहित्य परंपरा

पूर्वोत्तर की समृद्ध साहित्य परंपरा

प्रशांत पोळ

पूर्वोत्तर की समृद्ध साहित्य परंपरा

हमारे देश के पूर्वोत्तर का क्षेत्र यानि देवी अष्टभुजा के आठ शक्तिशाली हाथ। आठ राज्य- आसाम, मणिपुर, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश। ये सभी राज्य, सभी प्रकार से समृद्ध हैं, संपन्न हैं। प्रकृति ने इन पर विशेष कृपा की है। इनकी संस्कृति भी परिपक्व / समृद्ध हैं और इनका साहित्य भी..!

पूर्वोत्तर के आठो राज्यों में अनेक बोली व भाषाएं हैं। अकेले आसाम में 200 से ज्यादा बोलियां बोली जाती हैं। इन सभी में समृद्ध साहित्य है। किन्तु इन अनेक भाषाओं की आज भी लिपि नहीं है। मौखिक परंपरा से ही ये भाषाएं आज इक्कीसवीं सदी में भी जीवित हैं। इस समृद्ध मौखिक साहित्य को छपवाकर उसका अनुवाद बाकी भाषाओं में करने का काम ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा किया जा रहा है।

लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों को पूर्वांचल की इस वैभवशाली साहित्य परंपरा का अंदाज नहीं है। ‘सारा पूर्वांचल अविकसित है, वहां की भाषाएं अविकसित हैं, वहां की संस्कृति में आधुनिकता की गंध नहीं है . .’ ऐसी अनेक बातें हमारे दिमाग में भरी गयी हैं।

किंतु परिस्थिति ठीक इसके विपरीत है। पूर्वांचल को समृद्ध संस्कृति, परंपरा और भाषा विरासत में मिली है। समूचे पूर्वांचल में शिक्षा का प्रतिशत औसत से कही अधिक अच्छा है। वहां पर बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। वहां साहित्य को लेकर अनेक कार्यक्रम, अनेक अभियान चलते रहते हैं। अत्यंत प्रतिष्ठा का ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ वहां के साहित्यकारों को मिल चुका है।

असमिया भाषा की प्राचीनता

पूर्वांचल का सबसे बड़ा राज्य है, आसाम। यहां के लगभग तीन करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली असमी भाषा का अपना जलवा है, अपना महत्व है। असमिया भाषा का गौरवशाली इतिहास है।

असमिया लिपि यह भारत के प्राचीन ब्राम्ही लिपि का आधुनिक स्वरुप है। इस लिपि का सबसे प्राचीनतम स्वरुप भास्कर वर्मन का सन 610 में लिखा गया ताम्रपत्र है। बौद्ध महंतों के ‘चर्यापद’ में असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप दिखता है। यह कालखंड, सन 600 से 1000 के बीच में माना जाता हैं। असमी भाषा के पहले ज्ञात लेखक शंकरदेव (जन्म वर्ष 1449) यह प्रारंभिक असमिया कालखंड के लेखक माने जाते हैं। असम, अंग्रेजों के कब्जे में आने तक अजेय था। इसलिए उस कालखंड में असमिया भाषा की अच्छी उन्नति हुई थी। यह अहोम राजाओं के राजदरबार की भाषा थी। इन राज व्यवहारों के वर्णन को ‘बुरुंजी’ कहा जाता था। यह बुरुंजी, यानि मराठी में जिसे ‘बखर’ कहते हैं, उसका असमी रूप है। इस बुरुंजी साहित्य में आसाम के इतिहास का दर्शन होता है।

लेकिन अंग्रेजों के असम पर अधिकार जमाने के बाद, प्रारंभिक दिनों में असमिया भाषा की स्थिति खराब थी। उसका राजाश्रय छिन गया था। उसी समय, कन्वर्जन की संभावनाओं को देखते हुए, असम में पहुंचे ईसाई मिशनरियों ने असमिया भाषा का महत्व समझा। 1819 में अमरीकी बैप्टिस्ट चर्च के पादरियों द्वारा बाइबल को असमिया भाषा में प्रकाशित किया गया। यह असमिया भाषा की पहली छपी हुई पुस्तक थी। 1846 में ईसाई मिशनरियों द्वारा ‘अरुणोदय’ नाम का मासिक प्रकाशित किया गया।

असमिया भाषा पर बंगाल का तथा बंग्ला भाषा का प्रभाव होने से प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा इसे बंग्ला भाषा की उपभाषा ही माना गया। उन दिनों, प्रशासनिक रूप से भी असमिया भाषा का यही स्थान था।

असमिया भाषा की स्वतंत्र पहचान

ऐसे समय में, उन्नीसवीं शताब्दी में, चन्द्रकुमार अग्रवाल (1858 -1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ (1867 – 1938) तथा हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) जैसे साहित्यकारों ने असमिया भाषा की आवाज बुलंद की। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ का नाम असमिया काव्य में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। 1968 में उनकी जन्मशताब्दी धूमधाम से मनाई गयी। ‘कदमकली’ नाम का उनका काव्यसंग्रह प्रसिद्ध है। उन्हें असमिया भाषा का ‘रसराज’ कहा जाता है। उनका ‘‘कृपा बरबस काकतरटोपोला’’ यह हास्य-व्यंग का काव्यसंग्रह आज भी सराहा जाता है।

असमिया भाषा में छायावादी आन्दोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका ‘जोनाकी‘ इसी दौरान प्रारंभ हुई थी। इन सबका प्रयास यह सिद्ध करने का था कि असमिया भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व है। इसकी अपनी अलग विरासत है और यह भाषा बंग्ला भाषा से अलग है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में पद्मनाभ गोहेनबरुआ और रजनीकांत बारदोलाई ने असमिया भाषा में ऐतिहासिक उपन्यास लिखे, जो अत्यंत लोकप्रिय हुए। इसी समय देवचन्द्र तालुकदार और बिना बरुआ ने सामाजिक उपन्यासों के माध्यम से असमिया भाषा को मजबूत पहचान दी।

असमिया भाषा के इस प्रवास में 1917 में कोलकाता में असमिया भाषा के कुछ विद्यार्थी इकठ्ठा आये और उन्होंने ‘असम साहित्य सभा’ का गठन किया। इस संस्था ने असमिया भाषिकों का नेतृत्व भी किया। आज 98 वर्ष बाद यह संस्था मात्र संभ्रात असमिया कलमनवीसों की संस्था न रहकर, असमिया भाषिकों की संस्था बन गयी है। असम के सांस्कृतिक केंद्र, जोरहाट में इसका मुख्यालय है तथा भारत भर में इसकी एक हजार से भी अधिक शाखाएं हैं।

असम की साक्षरता, देश के औसत से भी अधिक, अर्थात 75% से ज्यादा है। सामान्य असमिया बोलने वाले की साहित्य में रुचि है। वहां समाज में साहित्यकारों को आदर और सम्मान दिया जाता हैं। 1955 से आजतक 51 असमिया साहित्यकारों को ‘साहित्य अकादमी’ का पुरस्कार मिल चुका है।

स्वतंत्र भारत में असमिया भाषा का विकास तेज गति से हुआ। अनेक विविध प्रवाह असमिया भाषा में प्रदर्शित हुए। कुछ अंशों में असमिया काव्य रविंद्रनाथ ठाकुर जी के प्रभाव में था। विनचंद्र बरुआ, शैलधर खोवा, अतुलचंद्र हजारिका, प्रसन्नलाल चौधरी आदि कवियों की कृतियों में यह झलकता भी है। लेकिन अंबिका गिरी, रघुनाथ चौधरी, हितेश्वर बरुआ, देवकांत बरुआ, डिंबेश्वर नियोग आदि कवियों ने असम के मिट्टी की खुशबू अपने काव्य के माध्यम से लोगों के सामने रखी।

असमिया साहित्य में नव-विचार

काव्य और ललित कृतियों में असमिया भाषा ने निरंतरता के साथ नए विचारों का स्वागत किया है। असमिया भाषा की नव-काव्य परंपरा में वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं। वर्ष 1979 में बिरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य द्वारा लिखे गए ‘मृत्युंजय’ इस उपन्यास को ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार मिला। असमिया भाषा का यह पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार था। असमिया भाषा का दूसरा ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, सन 2000 में, इंदिरा गोस्वामी को। इन्हें 1983 में ‘साहित्य अकादमी’ का पुरस्कार भी मिला था।

इंदिरा गोस्वामी की साहित्यिक प्रतिभा का ही कमाल था की सामान्य असमिया नागरिक उन पर पूर्ण विश्वास करता था। इसलिए ‘उल्फा’ आन्दोलन के चरम काल में उल्फा और केंद्र सरकार के बीच समन्वय का काम इंदिरा गोस्वामी जी ने किया था। साहित्य जगत में वे ‘मामुनी रायसोम गोस्वामी’ नाम से जानी जाती थीं।

इंदिरा गोस्वामी का साहित्यिक अनुभूति क्षेत्र काफी विस्तृत रहा है। वृन्दावन की अभागी विधवाओं पर 1976 में लिखा उनका उपन्यास ‘नीलकंठी व्रजया’ चर्चित कलाकृतियों में गिना जाता है। 1980 में लिखे हुए ‘मामरा धारातारोवाल’ इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। एक बिलकुल अलग विषय को बिलकुल ही भिन्न पृष्ठभूमि पर उन्होंने लिखा, ‘अहिरान’ इस उपन्यास के माध्यम से। मध्यप्रदेश के अहिरान नदी पर बनने वाले बॉंध के काम पर काम करने वाले मजदूरों के दयनीय अवस्था पर 1988 में लिखे इस उपन्यास को खूब सराहा गया।

कहानी के क्षेत्र में भी असमिया साहित्य ने प्रगल्भता का परिचय दिया है। शरतचंद्र गोस्वामी की कहानियां असम में अत्यंत लोकप्रिय हैं। ऐतिहासिक नाटकों की असम में लम्बी चौड़ी परंपरा है। चंद्रधर बरुआ के ‘मेघनाथ बध’, ‘तिलोत्तमा संभव’, ‘भाग्यपरिक्षा’ आदि नाटक कालजयी रहे हैं। प्रसन्नलाल चौधरी का ‘नीलांबर’, राजखोवा की ‘स्वर्गदेव प्रतापसिंह’ आदि कला कृतियां भी उल्लेखनीय रही हैं। साहित्य की सारी विधाओं में असमिया भाषा ने अपनी पहचान बनायी है। किन्तु दुर्भाग्य से देश के अन्य भाषिक पाठकों को इसका आभास नहीं हैं..!

भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल एक और भाषा असम में बोली जाती है, वह है ‘बोडो’। देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली इस भाषा को 15 लाख से ज्यादा लोग बोलते हैं। लेकिन बोडो भाषा में साहित्य निर्माण की गति धीमी है।

विष्णुप्रिया मणिपुरी

पूर्वांचल में असम के साथ ही मणिपुरी साहित्य की भी अलग पहचान है। मात्र 27 लाख जनसंख्या के इस प्रदेश में साक्षरता 80% से भी ज्यादा है। बंगाली लिपि में लिखी जाने वाली मणिपुरी को ‘विष्णुप्रिया मणिपुरी’ भी कहा जाता है। पूर्वांचल के 25 लाख से भी ज्यादा लोग मणिपुरी बोलते / समझते हैं।

मणिपुरी भाषा का साहित्य भी समृद्ध है। 1973 से आज तक 39 मणिपुरी साहित्यकारों को ‘साहित्य अकादमी’ के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। मणिपुर भाषा में वैष्णव भक्ति तथा मणिपुर की कला / संस्कृति झलकती है। कहानी, उपन्यास, काव्य, प्रवास वर्णन, नाटक आदि सभी विधाओं में मणिपुरी भाषा ने अपनी पहचान बनाई है। मखोनमनी मोंड्साबा, जोड़ छी सनसम, क्षेत्री वीर, एम्नव किशोर सिंह आदि मणिपुरी के प्रसिद्ध लेखक हैं।

इन सभी भाषाओं ने, इन भाषाओं के साहित्य ने पूर्वांचल को गरिमामय स्वरुप दिया है। पूर्वांचल की संस्कृति की झलक देखने के लिए इन भाषाओं के साहित्य को देखना आवश्यक हो जाता है..!!

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