भागवत के वक्तव्य को शब्दों में उलझाकर हिन्दू समाज में बिखराव पैदा करने का एक और षड्यंत्र

भागवत के वक्तव्य को शब्दों में उलझाकर हिन्दू समाज में बिखराव पैदा करने का एक और षड्यंत्र

रमेश शर्मा

भागवत के वक्तव्य को शब्दों में उलझाकर हिन्दू समाज में बिखराव पैदा करने का एक और षड्यंत्रभागवत के वक्तव्य को शब्दों में उलझाकर हिन्दू समाज में बिखराव पैदा करने का एक और षड्यंत्र

सत्यहीन और तथ्यहीन बातों में उलझाकर सनातन हिन्दू समाज में बिखराव पैदा करने के कुचक्र में एक अध्याय और जुड़ गया। यह अध्याय है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा दिये गये एक संबोधन को तोड़ने मरोड़ने का। सरसंघचालक के भाव को बिना समझे केवल एक शब्द को मुद्दा बनाकर तनाव पैदा करने का प्रयास हो रहा है। इस कुचक्र को वे राजनीतिक दल और उनके समर्थक मीडिया समूह हवा दे रहे हैं, जो अपने निहित उद्देश्य के लिये समाज को विभाजित करने का काम करते हैं।

मोहन भागवत पिछले दिनों संत रविदास महोत्सव में बोल रहे थे। उन्होंने अपने संबोधन में भारतीय समाज रचना की श्रेष्ठता और मानव मात्र में एकत्व की विशेषता समझाई। उन्होंने अपने उद्बोधन में प्रत्येक मनुष्य और प्राणी में ईश्वरीय अंश का एकत्व भाव समझाया। संबोधन मराठी में था। उन्होंने कहा- “सत्य यह है कि मैं सब प्राणियों में हूँ, इसलिए रूप नाम कुछ भी हो, लेकिन योग्यता एक है, मान सम्मान एक है, सबके बारे में अपनापन है। कोई भी ऊँचा या नीचा नहीं है। शास्त्रों का आधार लेकर पंडित लोग जो जाति आधारित ऊँच-नीच की बातें कहते हैं, वे झूठ हैं।” उनके इस कथ्य में पंडित शब्द है, ब्राह्मण शब्द है ही नहीं। उनका पूरा संबोधन साँस्कृतिक और सामाजिक एकत्व पर केन्द्रित था। उसमें न तो किसी वर्ग, वर्ण या जाति की प्रशंसा थी, न किसी की आलोचना। उन्होंने न किसी को श्रेष्ठ बताया और न किसी को नेष्ठ। उनके संबोधन में ब्राह्मण शब्द आया ही नहीं। हाँ “पंडित” शब्द आया। भारत में पंडित शब्द का आशय किसी वर्ण या वर्ग विशेष के लिये नहीं, अपितु विषय विशेषज्ञ के लिये प्रयोग होता है। संघ प्रमुख का संकेत उन कुछ लोगों के लिये था, जो स्वयं ऊंचा दिखाने के लिये शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करते हैं और अपनी निजी राय को शास्त्रों का बहाना बनाकर समाज में विभेद करना चाहते हैं। सरसंघचालक का भाव पूरे सनातन हिन्दू समाज में एकत्व की स्थापना करना था। किन्तु भाव को समझा ही नहीं गया और एक शब्द पकड़कर हमला बोल दिया गया। वस्तुतः इस सारी बहस के पीछे संघ के विरुद्ध सनातन हिन्दू विरोधी मानसिकता है, जो संघ पर हमला बोलने के अवसर और बहाने तलाशती है।

अपनी स्थापना के प्रथम दिन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अभियान संपूर्ण हिन्दू सनातन समाज को एक सूत्र में पिरोने का रहा है। संघ यात्रा का संकल्प उन लोगों के मार्ग में बाधा बना, जो भारतीय समाज जनों को विभाजित करके और भ्रमित करके अपने पंथ और सत्ता दोनों को बनाये रखना चाहते हैं। उनकी तो घोषित नीति रही “विभाजित करो और शासन करो।” वे जानते थे कि संसार भर में भारतीय गौरव संस्थापना का आधार सनातन हिन्दू समाज का अटूट ताना बाना रहा है, साँस्कृतिक परपराओं की गरिमा से रहा है और उनकी वैज्ञानिकता से रहा है। इसके विरुद्ध दो षड्यंत्र चले। एक षड्यंत्र भारतीय मान्यताओं और परंपराओं का उपहास बनाकर समाज को अपनी जड़ों से दूर करने का और दूसरा समाज को बाँटकर अपनी सत्ता स्थापित करने का। वे अपने षड्यंत्र में सफल हुए और भारत दासों का दास बना। लेकिन दासत्व के घोर अंधकार में भी कुछ व्यक्ति, समूह, वर्ग, वर्ण और संगठन साँस्कृतिक परंपराओं और स्वत्व बोध के जागरण के लिये समर्पित रहे। जो लोग षड्यंत्र करके भारत पर हावी हुए, उन लोगों के निशाने पर सदैव हर वह व्यक्ति, संस्था और संगठन रहा, जो भारत की मान्यताओं के पुनर्जागरण के लिये आगे आया। इतिहास के इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि विषम परिस्थियों में ब्राह्मणों और पुरोहित, पुजारियों ने भूखे रहकर, अपने प्राणों की बाजी लगाकर भारतीय अस्मिता की रक्षा का प्रयत्न किया। इसीलिए सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में योजना पूर्वक ब्राह्मणों के विरुद्ध अभियान चले। ब्राह्मणों पर कैसे अत्याचार किये गये, सामूहिक नरसंहार हुए इन घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। जो काम कभी ब्राह्मणों ने किया था, इसी काम को आगे बढ़ाने के लिये एक संगठनात्मक स्वरूप लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामने आया। इसीलिए इस पर सबसे अधिक हमले हुए। स्वतंत्रता से पूर्व मिशनरीज, मुस्लिम लीग और अंग्रेजी सत्ता ने संघ को अपना शत्रु नम्बर एक माना। स्वाधीनता आँदोलन में जंगल सत्याग्रह के बाद विभिन्न बहानों से संघ और संघ के पदाधिकारियों के विरुद्ध जो हमले आरंभ हुए, वे आज भी थमने का नाम नहीं ले रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के उन विरले संगठनों में से एक है, जो भारतीय मानबिन्दुओं, साँस्कृतिक गौरव के प्रतीकों के लिये पूर्ण समर्पित है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके एक एक स्वयंसेवक की जीवन यात्रा इसी दिशा में है। यह काम कभी ब्राह्मण समाज करता था। इसलिए विदेशी सत्ताओं के निशाने पर यह वर्ग रहा और जब संगठनात्मक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस काम को आगे बढ़ाया तो उनके निशाने पर संघ का आना भी स्वाभाविक था। वे अब तक संघ पर ब्राह्मणवाद का आरोप लगाकर समाज के अन्य वर्गों को, संघ से तोड़ने का प्रयास करते थे। संघ विरोधी लोग तर्क देते थे कि संघ के संस्थापक न केवल स्वयं ब्राह्मण थे, अपितु उसके अधिकांश सरसंघचालक ब्राह्मण ही रहे। यह कहकर वे समाज के अन्य वर्गों को संघ के विरुद्ध भड़काते रहे, पर भारतीय जन सत्य समझते हैं। वे हिन्दू समाज को विभाजित करने के कुचक्र से भी परिचित हैं। इसलिए संघ के विरुद्ध सतत दुष्प्रचार और हजार अवरोधों के बावजूद संघ शक्ति में निरंतर वृद्धि होती रही।

संघ विरोधी चेहरे बदले हैं, शब्द बदले हैं। समय के साथ विषय बदले, शैली बदली, तरीके भी बदले हैं। लेकिन संघ पर हमले करने का कुचक्र नहीं बदला। इस बार मुद्दा है संघ के विरुद्ध ब्राह्मणों को लामबंद करने का। इसी मानसिकता के चलते संघ और सरसंघचालक को निशाने पर लिया गया। उनके वक्तव्य को ब्राह्मण विरोधी बताकर उसका दुष्प्रचार किया गया, जबकि उनके वक्तव्य में ब्राह्मण शब्द था ही नहीं। समाज तोड़क शक्तियां भले ही कितनी शक्ति लगाएं, पर समाज संघ के सत्य से परिचित है। भारतीय समाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र और संस्कृति के प्रति समर्पण से अवगत है। स्वयं मोहन भागवत न केवल जन्म से ब्राह्मण हैं, वे आचरण से भी ब्राह्मण हैं। उनका जीवन ऋषि जीवन है। उनके वक्तव्य का मूल मराठी अंश और उसका हिन्दी अनुवाद सोशल मीडिया पर उपलब्ध है, उसे कोई भी पढ़ सकता है, उसमें ब्राह्मण शब्द है ही नहीं। उनका चिंतन ब्राह्मण विरोधी हो ही नहीं सकता, आज भारतीय जनमानस षड्यंत्रों को समझने लगा है। इसीलिए इस दुष्प्रचार का समाज पर कोई प्रभाव नहीं। यह दुष्प्रचार कुछ दिन चला अवश्य पर इसने शीघ्र ही दम तोड़ दिया।

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