भ्रमित और बिखरे हुए विपक्ष का हारा हुआ चुनाव

भ्रमित और बिखरे हुए विपक्ष का हारा हुआ चुनाव

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

भ्रमित और बिखरे हुए विपक्ष का हारा हुआ चुनावभ्रमित और बिखरे हुए विपक्ष का हारा हुआ चुनाव

2024 के आम चुनाव प्रारम्भ होने वाले हैं, पहले चरण का चुनाव 19 अप्रैल को होगा और अब जबकि मतदान होने में तीन दिन बाकी बचे हैं, भाजपा के विपक्षी दल मतदाताओं को यह बता पाने में विफल रहे हैं कि उन्हें वोट क्यों दिया जाए और भाजपा को क्यों नहीं? दस वर्ष सत्ता से बाहर रहने के बाद भी ये दल भाजपा के विरुद्ध एक वैकल्पिक नेतृत्व और कार्य योजना तक नहीं बना सके। इससे तो यही सिद्ध हो रहा है कि विपक्ष सिर्फ खानापूर्ति के लिए ही चुनाव मैदान में है।

इन चुनावों का सबसे मजेदार और रोचक तथ्य यह है कि कथित इंडी एलायंस में जितने भी दल हैं, सबके अपने अपने घोषणा पत्र हैं। सबकी अपनी अपनी दुनिया है, सबके अपने – अपने सपने और वादे हैं। ऐसा कहीं से नहीं लगता कि विपक्ष एकजुट है और वो भाजपा सरकार के कामकाज के विरोध में एक मजबूत कार्य योजना को मतदाता के सामने प्रस्तुत कर रहा है। वे केवल जातीय वैमनस्यतायुक्त समीकरण, मुस्लिम वोट बैंक के तुष्टिकरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना, विदेशों में बैठे भारत विरोधियों की सहायता और जांच एजेंसियों की भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध की जा रही कार्यवाही के विरोध में जनता से वोट मांग रहे हैं। इसमें एक रोचक तथ्य यह भी है कि इंडी एलाएंस अपनी कमजोरी, बौनेपन और नाकामी का श्रेय भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देते हुए आरोपित कर रहे हैं कि उनके कारण विपक्ष सशक्त नहीं हो पा रहा है।

हां, एक बात अवश्य है कि ये सभी दल भारत के मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर हैं, उनका यह मानना है कि भारत के मुस्लिम मतदाता किसी भी और कैसी भी हालत में भारतीय जनता पार्टी के विरोध में उनको ही अपना वोट देंगे। इसी लालच में इन दलों में ना केवल सनातन धर्म परम्परा का मजाक उड़ाया जा रहा है अपितु इन्होंने राम जन्मभूमि पर बने मंदिर के लोकार्पण में जाने से भी मना कर दिया।

मजे की बात यह है कि भाजपा के दस वर्षों के राज से सर्वाधिक दुखी और त्रस्त कांग्रेस जो स्वयंभू रूप से इस विपक्षी एकजुटता का नेतृत्व कर रही है, वो स्वयं भारत के इतिहास में सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है। भारत की संसद में बहुमत के लिए 272 का आंकड़ा आवश्यक है और कांग्रेस 278 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। केवल इसी एक तथ्य से समझा जा सकता है कि भाजपा को सत्ता से बाहर कर देने की विपक्ष की इच्छा कितनी बलवती और प्रभावी है? इसमें भी विचार करने लायक तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश (80), बिहार (40), पश्चिम बंगाल (42), तमिलनाडु (39) और महाराष्ट्र (48) की 249 सीटों पर कांग्रेस सिर्फ 65 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। तो क्या कांग्रेस की इस स्थिति को सहयोगी दलों के लिए उसका समर्पण माना जा सकता है? या यह स्थिति यह बता रही है कि कांग्रेस की राजनीतिक जमीन इन राज्यों में समाप्त होने की ओर है और यह संभव है कि अगले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस इस स्थिति में भी ना रहे कि उसे कोई अन्य राजनीतिक दल अपने बडे़ और प्रभावी राजनीतिक साझीदार के रूप में स्वीकार करे।

राजस्थान जैसे राज्य में जहां कांग्रेस चार महीने पहले तक सत्ता में थी, वहां उसने तीन सीटें सीकर, नागौर और बांसवाड़ा समझौते में अन्य दलों को दे दीं। इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस में वह नैतिक साहस भी नहीं बचा है कि जहां वह अपने बूते चुनाव लड़ सकती थी, वहां पूरी शक्ति के साथ चुनाव लड़ती। तो एक नैतिक रूप से पलायन कर चुके विपक्ष के सामने यदि भारतीय जनता पार्टी 370 और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 400 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखता है तो इसमें किसी आश्चर्य की बात करना राजनीतिक रूप से नासमझी ही कहा जाएगा।

समस्या यह है कि वर्तमान विपक्ष मोदी सरकार की सत्यनिष्ठा, प्रतिबद्धता और प्रमाणिकता की आलोचना भले ही कर ले, पर वो मोदी सरकार को दागदार बता पाने में विफल रहा है। राफेल से लेकर इलेक्टोरल बांड तक जितने भी मुद्दों को लेकर विपक्ष हमलावर हुआ है, वे सब विपक्ष के लिए ही नुकसानदेह साबित हुए हैं। इससे जनता में मोदी सरकार के प्रति ही विश्वास में बढ़ोतरी ही हुई है।

विपक्ष की यह स्थिति तब तक रहेगी, जब तक अन्य विपक्षी दल कांग्रेस से और कांग्रेस अंततः गांधी परिवार से अपने आपको मुक्त नहीं कर लेती। असल में गांधी परिवार युक्त कांग्रेस एक अघोषित राजवंश में चापलूसों, राग दरबारियों और षड्यंत्रकारियों का समूह भर है, जो बिना सत्ता के रह नहीं पा रहा और उसको किसी भी हालत में सत्ता में वापसी चाहिए। लेकिन उस राजवंश में उन लोगों का कोई स्थान नहीं है, जो राजनीतिक रूप से योग्य और समझदार हों। जो जनता की संवेदनाओं के साथ एकात्म हों।

भारतीय राजनीति का यह दौर नए और प्रभावी नेतृत्व के उभार का है। जनता हर उस नेता को मान सम्मान देने के लिए आतुर है, जो उनके बीच का है, उन जैसा है और उनको समझता है। चाहे वो रेवंत रेडडी हों, के अन्नामलाई हों, सचिन पायलेट हों या हेमंत विश्व सरमा ।

(सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट)

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