शस्त्र पूजा हमारे पुरुषार्थ और सामर्थ्य का प्रतीक है

शस्त्र पूजा हमारे पुरुषार्थ और सामर्थ्य का प्रतीक है

विजयादशमी पर शस्त्र पूजन

डॉ. भारत भूषण

शस्त्र पूजा हमारे पुरुषार्थ और सामर्थ्य का प्रतीक है

भारत में शस्त्रों की पूजा करने की परंपरा सनातन काल से रही है। लेकिन दुर्भाग्य से अहिंसा को सनातन परंपरा में इस तरह शामिल कर दिया गया कि सनातन समाज के अस्त्र शस्त्र चलाने को भी हिंसक समझा जाने लगा है। इसी का परिणाम है कि आज हिंदू  परिवारों में एक भी अस्त्र या शस्त्र मिलना कठिन है।

विजय के प्रतीक दशहरा वाले दिन देश भर में अस्त्र-शस्त्र की पूजा का विधान है।  भारतीय संस्कृति में विजयादशमी बड़ा पर्व है। इस दिन सरस्वती पूजन और शस्त्र पूजन करते हैं। सनातन परंपरा में शस्त्र और शास्त्र दोनों का बहुत महत्व है। शास्त्र की रक्षा और आत्मरक्षा के लिए धर्म सम्मत तरीके से शस्त्र का प्रयोग होता रहा है।

विजयादशमी पर अस्त्र-शस्त्र पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन उन चीजों की भी पूजा होती है, जिनसे इंसान बुद्धि और समृद्धि प्राप्त करता है। हथियार, पुस्तकें, गाड़ियां, घरेलू उपकरण आदि की पूजा प्राचीन काल से होती आ रही है। तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में इसे आयुध पूजा के नाम से जाना जाता है। यहॉं के अलावा यह त्योहार केरल, ओडिशा, कर्नाटक में भी मनाया जाता है। महाराष्ट्र में आयुध पूजा को खंडे नवमी के रूप में मनाया जाता है। दशहरे पर सेना भी अपने अस्त्र शस्त्र की तिलक लगाकर पूजा करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी विजयदशमी पर अस्त्र शस्त्र की पूजा अर्चना करता है। यह आत्म रक्षा के साथ दुश्मनों के प्रतिकार और अपने सामर्थ्य को प्रदर्शित करने का अवसर होता है।

 कहा जाता है कि कभी युद्ध अनिवार्य हो जाए तो शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा करने के बजाए उस पर हमला करना कुशल रणनीति है। इसी के अंतर्गत भगवान राम ने भी रावण से युद्ध के लिए लंका की ओर कूच कर विजयादशमी के दिन उसका वध किया था। शिवाजी ने अस्त्र-शस्त्र की पूजा कर इसी दिन औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध का उद्घोष किया था। राजा विक्रमादित्य भी इस दिन शस्त्रों की पूजा किया करते थे।

ऐतिहासिक रूप से आयुध पूजा हथियारों की पूजा करने के लिए थी, लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप में सभी प्रकार की मशीनों की पूजा भी इस दिन की जाती है। दक्षिण भारत में यह एक ऐसा दिन है, जब शिल्पकार या कारीगर भारत के अन्य हिस्सों में की जाने वाली विश्वकर्मा पूजा के समान अपने उपकरणों की पूजा करते हैं। उपकरणों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यही कारण है कि शस्त्र पूजा के दिन छोटी-छोटी चीजों जैसे पिन, सुई, चाकू, कैंची, हथौड़ों आदि की ही नहीं, बल्कि बड़ी मशीनों, गाड़ियों, बसों आदि की भी पूजा होती है।

विज्ञान तथा कलाओं की तरह युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’  धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है। सनातन ग्रंथों में अस्त्रों और शस्त्रों के संचालन को लेकर विस्तार से चिंतन और मनन किया गया है।

प्रथम शताब्दी में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में  कई युद्ध क्रीड़ाओं का उल्लेख किया गया है जिनमें धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छड़ियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से प्रशिक्षण दिया जाता था।

भारत मे अस्त्र शस्त्र की पूजा करने की परंपरा सनातन काल से रही है। लेकिन दुर्भाग्य से अहिंसा को सनातन परंपरा में इस तरह शामिल कर दिया गया कि सनातन समाज के अस्त्र शस्त्र चलाने को भी हिंसक समझा जाने लगा है। इसी का परिणाम है कि आज किसी भी सनातन परिवार में एक भी अस्त्र या शस्त्र मिलना कठिन है। उन्हें चलाना तो दूर की बात है, वे उन्हें घर मे रखना भी उचित नहीं समझते। लेकिन सभी समाज ऐसा नहीं करते, यह बात याद रखनी चाहिए। मुश्किल परिस्थितियों में अपने सम्मान की रक्षा करने का हमारे पास क्या उपाय है, इस पर विचार अवश्य करना चाहिए।

अत्यधिक अहिंसा का पुजारी होना रणनीतिक तौर पर खतरनाक साबित हो सकता है। एक समय ऐसा भी था जब अहिंसा भारत की विदेश और रक्षा नीति का हिस्सा हो गई थी जिसका परिणाम हमें 1962 में चीन से पराजय के रूप में देखने को मिला था। इसलिए शस्त्र पूजन की सनातन परंपरा को एक बार फिर से सनातन समाज के सभी पक्षों में मजबूती से प्रचलित करने और आत्मरक्षा में उसे व्यवहारिक रूप से अपनाने की आवश्यकता है।

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