इस्लामी ऊर्जा के प्रलयंकारी प्रवाह

इस्लामी ऊर्जा के प्रलयंकारी प्रवाह

विजय मनोहर तिवारी

इस्लामी ऊर्जा के प्रलयंकारी प्रवाहइस्लामी ऊर्जा के प्रलयंकारी प्रवाह

फ्रांस जल रहा है। भारत को यह संत्रास झेलने का अनुभव 13 सौ साल पुराना है। कल नालंदा राख हुआ था। आज पेरिस शोलों के हवाले है। विध्वंस की लपटें वही हैं। स्थापित धर्म, परंपराओं और सत्ताओं को उलटने के एकसूत्रीय कार्यक्रम में लगी विक्षिप्त ऊर्जा बिल्कुल वही है। सबके परचम जलाने हैं ताकि एक ही परचम धरती पर बाकी रहे। और वो है इस्लाम का परचम।

एक विचार के रूप में इस्लाम की ऊर्जा का उदय मनुष्य जाति के इतिहास में ध्यान देने योग्य महाघटना है। ढाई हजार वर्षों में धरती पर अनेक नए विचार आए, जिन्होंने बाद में अपने अलग आवरणों में विशाल जनसमुदाय को अपने पीछे खड़ा किया। इस्लाम उनमें सबसे नया है, जो 14 सौ साल पहले अरब के रेतीले भूभाग में आया। आज 50 से अधिक देश उसके हैं और कोई देश ऐसा नहीं हैं, जहाँ तेजी से फैलते-पसरते उसे न देखा जा रहा हो। इस्लाम जहाँ है, समाचारों में है। भारत में कश्मीर बंगाल होकर केरल तक समाचार माध्यमों में उसकी चर्चा अधिकतर नकारात्मक है और फ्रांस समेत ऐसा ही अन्य देशों में हैं।

इस्लाम की ऊर्जा किन कामों में बहते हुए संसार भर में ‘लोकप्रियता’ बटोर रही है? भारत को लें तो “द केरल स्टोरी’ में हजारों लड़कियों के कन्वर्जन के दुष्चक्र में वह काम आ रही है। दो साल पहले “कश्मीर फाइल्स’ में उसने कश्मीरी हिंदुओं के सफाए की झलक दिखाई थी। अजमेर की लड़कियों पर कोई फिल्म बनी तो दरगाह के दूसरे दर्शन हो जाएंगे। फिल्में छोड़िए, मीडिया में देखिए।

आतंकी और अलगाववादी संगठनों की ऐसी हरियाती फसल किसी और विचार परंपरा में नहीं हैं। कोई बौद्ध बम बाँधकर फटता नहीं मिलेगा, किसी जैन को एके-47 लहराते नहीं देखा, कोई पारसी पत्थरबाजी करते हुए नहीं देखा गया। दस हजार साल की लंबी यात्रा से गुजरकर आया कोई हिंदू दिन में पाँच बार लाउड स्पीकरों पर यह शोर करते हुए नहीं मिलेगा कि उसका विचार ही सर्वश्रेष्ठ है, इसके बराबर कोई नहीं है! वे सब शांतिपूर्वक अपनी उपासनाओं में लगे हैं। जीवनयापन के लिए दूसरे आवश्यक काम उन्हें दिन भर व्यस्त रखते हैं। आस्था के विचार चौबीस घंटे भीतर-बाहर जोर नहीं मारते रहते।

एक विचार के रूप में इस्लाम का डिजाइन धमाकेदार है। जैसे धम्म से आकर बीच सभा में कोई धमककर बैठ जाए! केवल बैठ ही नहीं जाए, सबका ध्यान इस विषय में भी चाहे कि सबके बीच उसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ की आदरपूर्ण दृष्टि से सिर झुकाकर ही देखा जाए। न केवल देखा जाए बल्कि माना भी जाए। बिना किसी प्रश्न या तर्क के। धम्म से आ टपकने को अशिष्टता मानने की सोचिए ही मत!

दावे स्वयंभू हैं, रोचक हैं, ध्यान देने योग्य हैं और निस्संदेह टकराव का प्रथम बिंदु भी। अंतिम होने का दावा सबसे ऊपर है। अंतिम पुस्तक, अंतिम पैगंबर। प्रलय तक अब कोई दूसरा संभव नहीं। एकमात्र सर्वश्रेष्ठ ईश्वर उनका है, जिसे अरबी में अल्लाह का संबोधन है। अरबी न आती हो तो उसे अपनी भाषा में भी कुछ और नहीं कह सकते। कलमा किसी ईश्वर या अल्लाह की स्तुति नहीं है। वह द्वार पर आकर सरेंडर की शपथ है कि अल्लाह सबसे महान है, सबसे बड़ा है और मोहम्मद उसके पैगंबर हैं!

करोड़ों लोगों द्वारा दिन में पाँच बार दोहराई जाने वाली इस्लाम के विचार की इस आधारभूत गलाफाड़ पंक्ति में शांति या करुणा, भक्ति या काव्य, अध्यात्म या अनुभूति का सौंदर्य खोजना रेत से पानी निकालना होगा। यह केवल एक दोहराई जाने वाली शपथ है, जिसमें अपना कोई अनुभव नहीं है। बुद्धि का उपयोग किए बिना केवल रटी हुई एक मशीनी प्रक्रिया।

अगर आप इसे नहीं मानते हैं तो दोजख की आग आपके लिए ही सुलगाई गई है। जिसने मान लिया वह दोजख से मुक्त और जन्नत का अधिकारी हो गया। जिसने नहीं माना या जिसने दूसरे ईश्वर या पुस्तक को माना, वह काफिर है, मुशरिक है। यानी अपराधी है। अपराध की सजा तय है। काफिर होने की सजा, संसार के सारे गैर मुस्लिमों के लिए है। इस्लाम के इस महादर्शन को भले ही वे जानते हों या नहीं। करोड़ों निर्दोष नागरिक अपराधी ठहरा दिए गए हैं। यह एक भयभीत करने वाला विचार है, जहाँ अल्लाह के खौफ का जिक्र, उसकी मोहब्बत से बहुत ज्यादा है!

दीन की दावत, मूर्तिपूजा या बहुदेववादी होने के गंभीर अपराध से मुक्त होने का एक आकर्षक प्रस्ताव है। एक दीनदार मुस्लिम धीमी या तीव्र गति से इस एकसूत्रीय एजेंडे पर है कि अधिक से अधिक लोगों को दीन के दायरे में लाकर इस बात का पुण्य कमाए कि उसने एक कम्बख्त काफिर को मुस्लिम बनाकर दोजख की आग से बचा लिया। एक सुनियोजित योजना के अंतर्गत पूर्णत: समर्पण के भाव से जो जहाँ है, दावत का गुलदस्ता लिए ही घूम रहा है। जैसे कोई मछलीमार जाल लेकर किनारे पर बैठा हो!

अपनी लंबी भारत यात्राओं के समय मेरे अनेक ट्रेवल एजेंट और ड्राइवर मुस्लिम थे। यूपी की एक यात्रा में मेरा ड्राइवर पटौदी का था, जो सैफ अली खान की एक छोटी पारिवारिक रियासत रही। पटौदी की प्रसिद्धि में मंसूर, शर्मिला और सैफ बड़े कारण हैं। क्रिकेट और सिनेमा के शिखर पुरुष और वैवाहिक संबंध। लगभग तीस साल आयु का वह ड्राइवर पटौदियों से बहुत असंतुष्ट था, जो केवल नाम के नवाब थे और जिन्होंने साधारण मुस्लिमों के लिए कभी कुछ नहीं किया। न अच्छे स्कूल बनवाए, न अस्पताल। विवश होकर उस जैसे अनेक युवा दिल्ली और यूपी में टैक्सियाँ चला रहे हैं।

उन दिनों मैं कुरान का अध्ययन कर रहा था। बातचीत के मेरे लहजे में उस ड्राइवर ने इस्लाम के प्रति मेरी जिज्ञासा और भारत में इस्लाम के प्रति मेरे किताबी ज्ञान की भनक पकड़ी। अब वह दीनहीन ड्राइवर पटौदी के मुस्लिमों की दुर्दशा और नवाब परिवार के प्रति क्रोध को छोड़कर दीन की दावत पर उतारू हो गया।

“गणेशजी में आदमी के शरीर पर हाथी का सिर, शिवलिंग की पूजा, बंदर तो बंदर है कैसे हनुमानजी, राम भगवान हैं तो उनकी पत्नी को कोई कैसे उठा ले गया, कृष्ण की रासलीलाएं, इतने सारे देवी-देवता, पत्थर में भगवान, पत्थर तो पत्थर है!’ उसकी आँखें चमक रही थीं। मैं मुस्कुराकर सुन रहा था।

मैंने कहा, एक हिंदू के जीवन में इन सब मान्यताओं का महत्व एक सीमा तक है। बहुत लोग नहीं भी मानते। बहुत आपकी तरह आलोचना में ही जीते हैं। कोई अंतर नहीं पड़ता। गणेशजी की रूप-आकृति या वानर हनुमान के कारण हमारी रोजमर्रा की जिंदगी तबाह नहीं होती। हमारे देवता हमारे मित्र हैं। हम उनके साथ बहुत खुश हैं, क्योंकि उन्होंने किसी के लिए डराने का टेंडर नहीं भरा और न ही किसी को नर्क की आग जलाकर बैठे हैं। आप अपने, अपनी कौम और अपने नवाब साहब के हाल देखिए! और अल्लाह को अपने हिसाब की दुनिया ही चाहिए तो वही एक झटके में सब वैसा ही क्यों नहीं कर देता?

एक अल्लाह और उसके एक पैगंबर का महान विचार लेकर कोई मुसलमान जीवन और अध्यात्म की किस ऊंचाई पर पहुंचा? कैसा जीवन उसे मिला? वह स्वयं कितना सुखी और संपन्न है? उसने कैसे कर्म किए, उसके क्या परिणाम हुए? उसे कैसा वर्तमान मिला और उसने कैसा भविष्य बनाया? अगर वह आज दुर्दशा में है तो क्यों है और उसी अनुपात में कोई हिंदू, जैन, बौद्ध, पारसी या सिख “मूर्ति, अग्नि या ग्रंथ पूजा का अक्षम्य अपराध’ करते हुए भी उससे अधिक सुखी और दानी समाज क्यों हैं? आपकी एक पुस्तक ने आपको कौन से मार्ग से किस मंजिल पर पहुंचाया और दूसरे अपनी कई पुस्तकों से कहाँ पहुँचे या भटके, यह कौन तय करेगा?

वह चकरा गया। गंतव्य तक आते-आते वह इस बात पर ठहर चुका था कि सारे धर्म एक जैसे हैं। कुछ लोग ही गफलत पैदा करते हैं। अब वह एक विचार के रूप में इस्लाम के पीछे पागल हुए अपने जैसे लोगों की हालत पर अधिक तटस्थ होकर गौर कर रहा था। उसे यह ठीक लगा कि अगर अल्लाह या ईश्वर जैसा कोई सर्वशक्तिमान कहीं भी है तो उसकी दृष्टि में तो सारे मनुष्य एक बराबर ही होने चाहिए। वह क्यों किसी को डराएगा या किसी के पीछे पड़ने के लिए अनंतकाल की मानसिक और हिंसक दासता में अपने अनुयायियों को धकेलेगा!

जिन मुस्लिम दानिशमंदों ने एक विचार के रूप में इस्लाम के प्रलयंकारी प्रभाव और स्वभाव को समझा, वे चतुराई से स्वयं को “एथीस्ट’ कहते हुए किनारे लगे। लेकिन हाल ही के वर्षों में बात बदली है। आज “छिटके हुए इस्लामी’ अपने चेहरे पर एथीस्ट की क्रीम नहीं पोतते, वे ‘एक्स-मुस्लिम’ का गाढ़ा लेप लगाकर खुलेआम सामने आए हैं। इनमें से कई अपनी मूल सनातन पहचान में भी लौटने का साहस कर रहे हैं। उन्हें उनके प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिले और वे नेत्रहीनों की तरह थोपी गई उधार मान्यताओं को ढोना मूर्खतापूर्ण मानते हैं। उनकी नजर में यह पीढ़ियों से भोगी जा रही घृणित गुलामी ही है।

दिल्ली प्रकाशन की पत्रिकाओं में दशकों तक विज्ञापन छपे-“वेदों में क्या है और हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास।’ प्रकाशक का नाम था-विश्वनाथ। शायद ही किसी हिंदू ने इसे सिर काटने लायक गुस्ताखी माना हो। क्या जावेद अख्तर जैसे स्वयंभू एथीस्ट कभी अपनी अगली नज्म का शीर्षक ऐसा कुछ रख सकते हैं-“कुरान में क्या है?’ आदिपुरुष के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने भी यही टिप्पणी की है। कम से कम भारत में वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। वे जानते हैं कि अगले ही दिन विचार की वह प्रलयंकारी ऊर्जा बांद्रा की किस बदबूदार गली से डरावने नारों का शोर लगाती हुई आकर क्या हाल कर डालेगी?

मजहबी आवरण में विचार का यह घातक वास्तु विचारणीय है। ध्यान देने योग्य यह भी है कि इस्लाम की महिमा दूसरों के गले उतारने पर हर समय उतारू कितने मुस्लिम संगठन आपको किसी नदी की सफाई, व्यापक वृक्षारोपण, भू-जल संरक्षण, ग्राम या नगर सुधार, पर्यावरण या ट्रैफिक सुधार, महिला शिक्षा, बाल विवाह, परदा प्रथा, प्राकृतिक आपदा, सामाजिक कुरीतियों, रोजगार के स्टार्ट अप या नवाचार जैसे मानव हितैषी रचनात्मक कामों में लगे दिखाई देते हैं?

इस्लाम का डिजाइन अपने अनुयायियों की पूरी ऊर्जा किसी मस्जिद, मदरसे, दरगाह, वक्फ, नमाज, हिजाब, किताब, कलमा, अल्लाह, रसूल, तौहीन, गुस्ताखी में ही लगाए रखता है। ओवरडोज हमेशा हानिकारक है। भले ही वह मजहब की ही क्यों न हो! और हानि सदा दूसरों की है! फिलहाल फ्रांस को ही देख लीजिए!!
#FranceHasFallen

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *