समान नागरिक संहिता : एक देश, एक कानून

समान नागरिक संहिता : एक देश, एक कानून

समान नागरिक संहिता : एक देश, एक कानूनसमान नागरिक संहिता : एक देश, एक कानून

समान नागरिक संहिता लागू करने का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। संविधान के भाग 4 में अनु्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principal of State Policy) को शामिल किया गया है। इसी के अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का प्रावधान है। इसमें कहा गया हैराज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।

अब प्रश्न उठता है कि जब संविधान में इसका उल्लेख है, तो स्वाधीनता के दशकों बाद भी इस पर कोई कानून क्यों नहीं बना? दरअसल संविधान के भाग 3 में देश के हर नागरिक के लिए मूल अधिकारों की व्यवस्था की गई है, जिन्हें लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी है। वहीं संविधान के भाग 4 में जिन नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है, उन्हें लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है, वे जनहित में कानून बनाने की प्रेरणा देते हैं।

संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर व्यापक बहस हुई थी। कुछ सदस्य इसे मूल अधिकार में रखने के पक्ष में भी थे। 23 नवंबर, 1948 को को हुई बहस में मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम का कहना था कि सिविल मामलों में हर व्यक्ति को अपने पंथानुसार आचरण करने की छूट होनी चाहिए। वहीं संविधान सभा की तीन सदस्यों हंसा मेहता, राजकुमारी अमृत कौर एवं मीनू मसानी ने समान नागरिक संहिता को मूल अधिकारों की श्रेणी में रखने का पक्ष रखा था। तीनों ने एक संयुक्त बयान में कहा था किएक बात जिसने भारत को राष्ट्रत्व की ओर अग्रसर होने से रोक रखा है, वह यह है कि हमारे यहॉं पंथ आधारित निजी कानूनों की भरमार है, जिन्होंने राष्ट्र को विभिन्न रंगों अथवा रूपों में अलग अलग कर रखा है। हमारा मत है कि भारत के लोगों को संविधान लागू होने के 5-10 वर्षों की अवधि के अंदर समान नागरिक संहिता लागू करने की गारंटी दी जानी चाहिए।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था, “तुर्की या मिस्र आदि किसी भी उन्नत मुस्लिम देश में किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय को पृथक कानून का अधिकार प्राप्त नहीं है, जैसे अधिकार भारतीय अल्पसंख्यकों को प्राप्त हैं।

प्रख्यात कानूनविद एवं विद्वान श्री अल्लादिकृष्णास्वामी अय्यर का कहना था, “यह आशंका निराधार है कि समान नागरिक संहिता लागू की गई तो कोई पंथ खतरे में पड़ जाएगा।

संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में थे। अपने एक वक्तव्य में उन्होंने कहा था, “मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि किसी धर्म (मजहब) को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए। ऐसे में तो धर्म, जीवन के प्रत्येक पक्ष पर हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र में काम करने से रोकेगा। यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिये मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है। यह स्वतंत्रता हमें इसलिये मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में जहाँ हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है, वहाँ वहाँ सुधार कर सकें।

उनकी दृष्टि में स्वाधीन भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए समान नागरिक संहिता बेहद आवश्यक थी। लेकिन मुस्लिम नेताओं के भारी विरोध के चलते प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समान नागरिक संहिता पर आगे नहीं बढ़े। दूसरी ओर हिंदू विरोध को नजरअंदाज करते हुए हिंदू कोड बिल ले आए। इससे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिक्ख समाज पर हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरणपोषण कानून 1956 और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता कानून 1956 तो लागू हो गए। लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसियों को अपनेअपने मजहबी कानूनों के अनुसार शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मामलों को तय करने की छूट बरकरार रही। समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के अन्दर शामिल कर मामले को टाल दिया गया।

यूनिफॉर्म सिविल कोड क्यों जरूरी?

देश के लिए यूनीफॉर्म सिविल कोड आवश्यक है क्योंकि संविधान की प्रस्तावना में शामिल समानता और बंधुत्व का आदर्श तभी पाया जा सकता है, जब देश में हर नागरिक के लिए एक समान नागरिक संहिता हो। 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। जिसका अर्थ है सरकार किसी भी पंथ या मजहब का समर्थन नहीं करेगी।

रिलीजन के आधार पर पर्सनल लॉ होने के कारण संविधान की पंथनिरपेक्ष भावना का उल्लंघन होता है। हर नागरिक को अनुच्छेद 14 के अंतर्गत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है। यूनिफॉर्म सिविल कोड के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है। शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव हो रहा है। मुसलमान शरिया अनुसार पहली बीबी के रहते तीन निकाह और कर चार बीबियां रख सकते हैं, हिन्दू पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह नहीं कर सकते। मुसलमान पुरुष 12 वर्ष की लड़की से निकाह कर सकता है, जबकि हिंदू पुरुष 18 वर्ष से छोटी लड़की से विवाह करे, तो यह अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसी असमानताएं समाज के लिए हितकारी नहीं। लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए। धार्मिक अधिकारों की स्वतंत्रता के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) का दुरुपयोग तो धड़ल्ले से हो रहा है। बहुविवाह और हलाला जैसी कुप्रथाओं से उनका मानसिक शोषण भी हो रहा है। यह उनके प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अधिकार अनुच्छेद 21 का हनन है।  फिर अनुच्छेद 15 तो लिंग भेद की अनुमति भी नहीं देता।

अलगअलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से मुक्ति मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के निर्णय जल्द होंगे। सभी के लिए समान कानून से देश में एकता बढ़ेगी। राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति नहीं कर सकेंगे, देश विकास की ओर अग्रसर होगा। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद के माध्यम से पलट दिया था। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा।

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