उदयपुर में बने देश का पहला आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लान

उदयपुर में बने देश का पहला आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लान

विजय मनोहर तिवारी

उदयपुर में बने देश का पहला आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लानउदयपुर में बने देश का पहला आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लान

होली के दिन मध्यप्रदेश में विदिशा जिले के उदयपुर में नंदी की एक दर्शनीय प्राचीन प्रतिमा मिट्‌टी और मलबे से बाहर आई। क्रिकेट खेलते हुए कुछ बच्चों की दृष्टि में आने के बाद उसे बाहर निकाला गया। वह स्पष्ट रूप से परमार राजाओं के समय के किसी शिव मंदिर का हिस्सा रही होगी, जिसे खंडित किए जाने के निशान साफ देखे जा सकते हैं। वह भूकंप में तबाह नहीं हुआ। वह हमलावरों के निशान हैं, जिससे उदयपुर लगातार घायल होकर भी बचा रह गया।

कुछ ही घंटों में शासन ने जानकारी मिलते ही उदयपुर के बारह खंभा स्मारक के पास नंदी की प्रतिमा को सुरक्षित निकाल लिया। प्रश्न यह है कि उदयपुर जैसे प्राचीन नगरों का अब क्या किया जाए, जो सदियों की समृद्ध विरासत को अपने भीतर संजोए हुए हैं और यहॉं यदाकदा नई मूर्तियों, शिलालेखों और मंदिरों के अवशेष सामने आते रहते हैं? क्या इन्हें ऐसे ही लावारिस पड़े रहने दिया जाए या इन्हें नए सिरे से सहेजने के योजनाबद्ध उपाय किए जाएँ?

ऐतिहासिक रूप से समृद्ध मध्यप्रदेश में उदयपुर जैसे बीस स्थान होंगे, जिनका ज्ञात इतिहास हजार-बारह सौ वर्षों का होगा। मध्यकाल के इस्लामी हमलावरों के सतत हमलों और लूटमारों के दौरान इन नगरों को बुरी तरह क्षत-विक्षत किया गया। भव्य मंदिरों और महलों को मिट्‌टी में मिलाकर खंडहरों की शक्ल में छोड़ दिया गया या उनके मलबे से अपने ढंग की बदशक्ल इमारतें खड़ी कर दी गईं। विदिशा के विजय मंदिर, धार की भोजशाला से लेकर उदयपुर के राजमहल, ग्यारसपुर और कटनी के पास बिलहरी में दूर तक फैले खंडहरों को देखिए। ग्वालियर के पास नरवर भी इन्हीं में से एक है। ये आतताइयों द्वारा सदियों तक सताए हुए नगर रहे हैं। पहचानें केवल स्मारकों की नहीं बदली गई थीं।

मुझे लगता है कि यह सही समय है जब हम ऐसे प्राचीन नगरों की सूची बनाएं और इनके विस्तृत आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लान बनाए जाएं। मध्यप्रदेश की सरकार के लिए यह सही अवसर है कि वह यह मौलिक पहल करे। उदयपुर इस महात्वाकांक्षी परियोजना का आरंभ बिंदु हो सकता है। यह पहल मध्यप्रदेश के लिए हर दृष्टि से स्कोरिंग होगी। मुझे आश्चर्य है कि चार वर्षों से चर्चा का केंद्र रहे उदयपुर की ओर अभी ठीक से देखा नहीं गया है। समाज सक्रिय हुआ है। कई प्रकार के अवैध कब्जे बिना विवाद के हटा दिए गए हैं। लेकिन सरकार के कदम उठने अभी भी शेष हैं।

दुर्भाग्य से आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) और अधिकतर राज्य सरकारों के पुरातत्व विभाग वेंटीलेटर पर हैं। केंद्र में जगमोहन अंतिम मंत्री हैं, जिनके रहते समय सीमा में कुछ उल्लेखनीय कार्य हुए और वे अटलबिहारी वाजपेयी के समय थे। वर्तमान में ये विभाग दक्ष स्टाफ, तकनीक, धन और साधनों की कमी से ज्यादा अंधत्व के शिकार हैं, जिनके पास अपनी महान विरासत को सहेजने की कोई दूरदृष्टि नहीं है। फंड की कमी का रोना बदकिस्मत रोते हैं।

सरकार चाहे तो ऐसे चुनिंदा शहरों का आर्कियोलॉजिकल मास्टर प्लान बनाने में एएसआई के दक्ष विशेषज्ञों, नेशनल मॉन्युमेंट अथॉरिटी और स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्ट के जानकारों को जोड़कर काम कर सकती है। पुरातत्व के क्षेत्र में संसार भर में उपयोग की जा रही आधुनिक तकनीकों में यहां के अमले को भी अपडेट करना अत्यंत आवश्यक है।

सबसे पहले अगले चार महीने में उदयपुर के आसपास बिखरी हुई विरासत का ही मास्टर प्लान बनाया जाए।

आठ हजार की जनसंख्या वाले उदयपुर के चप्पे-चप्पे में भूमि के भीतर एक प्राचीन और भव्य शहर सोया पड़ा है। आवश्यकता पड़ने पर जनसंख्या का पुनर्वास किया जाए और एक दीर्घकालीन परियोजना के समयबद्ध दायरे में इसे सामने लाया जाए। मेरा दावा है कि केवल धूल-मिट्‌टी की ऊपरी सफाई कर देने भर से एक नया उदयपुर देश को अपना परिचय दे रहा होगा। वह इस क्षेत्र की वर्तमान तस्वीर को बदलकर रख देने की क्षमता रखता है।

किसी भी सरकार के लिए यह बहुत कठिन काम नहीं है, सिर्फ सही विजन वालों की आवश्यकता है, जो समयबद्ध काम करने के निष्ठापूर्वक आदी भी हों और सभ्यता-संस्कृति पर केवल भाषण न करते हों। जहाँ तक फंड का प्रश्न है, सरकार कॉर्पोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी (सीएसआर) का फंड इधर उपयोग कर सकती हैं। हर क्षेत्र के स्थानीय उद्योग समुदाय से अपील की जानी चाहिए कि वे अपने क्षेत्र के कम से कम एक उदयपुर को चमकाने का जिम्मा ले लें। और यह शक्ति समाज के पास है, जिसे सही दिशा दी जा सकती है।

मध्यप्रदेश में ही बटेश्वर एक बड़ा उदाहरण है, जहां केके मोहम्मद नाम के एक धुनी और ईमानदार पुरातत्व विशेषज्ञ ने 80 बिखरे हुए मंदिरों को फिर से खड़ा कर दिया। इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने बटेसर के बारे में किसी अखबार में पढ़ा तो उन्होंने केके मोहम्मद से संपर्क किया था और चार दिन स्वयं आकर देखा। केके मोहम्मद ने दो करोड़ के भीतर वह काम कर दिखाया था, जिसमें सुधा मूर्ति ने भी प्रसन्नतापूर्वक हाथ बंटाया। देश में सुधा मूर्तियों की कोई कमी नहीं है, केके मोहम्मद जैसे संस्कृति के सच्चे पुरोहित चाहिए। दस से पांच की नौकरी बजाने वाले अकर्मण्य फाइलवीर रोबोट नहीं। और केके मोहम्मद जैसे कर्मवीरों की सच्ची पहचान करने वाले दृष्टिवान लीडर सबसे पहले चाहिए। मध्यप्रदेश शासन ने 2012 में एएसआई से सेवानिवृत्त हुए केके मोहम्मद को जोड़ा भी।

सारनाथ और दिल्ली में आर्कियोलॉजिकल पार्क यूपीए के समय बनाए गए थे। मुझे एक अधिकारी ने बताया कि दिल्ली में शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री रहते हुए स्कूल और कॉलेज की शिक्षा में विरासत से परिचय अनिवार्य किया गया था ताकि नई पीढ़ी अपने आसपास नष्ट हो रही धरोहरों में झांकने के लिए जाए। यह भी राज्य सरकारों को अनिवार्य करने की आवश्यकता है। आश्चर्य है कि अयोध्या और मथुरा के लिए संघर्ष करने वालों ने भारत की उपेक्षित धरोहरों पर कोई एक नीति बनाने की तरफ विचार तक नहीं किया। अगर किया होता तो पुरातत्व विभाग वेंटीलेटर पर न होते।

साभार

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