कन्हैयालाल हत्या प्रकरण : जहरीली शिक्षा की जड़ों पर प्रहार कब?

कन्हैयालाल हत्या प्रकरण : जहरीली शिक्षा की जड़ों पर प्रहार कब?

 

कन्हैयालाल हत्या प्रकरण : जहरीली शिक्षा की जड़ों पर प्रहार कब?कन्हैयालाल हत्या प्रकरण : जहरीली शिक्षा की जड़ों पर प्रहार कब?

जयपुर। दीन और पैगम्बर मोहम्मद के नाम पर उदयपुर के कन्हैयालाल का सिर धड़ से अलग करने वालों को जब लोग अपने-अपने मोबाइल पर देख रहे थे तो शायद एक प्रश्न सबके मन में उठ रहा होगा कि आखिर दीन की यह कैसी रक्षा है जो किसी जीते-जागते व्यक्ति को इतनी आसानी से मारती है और इसके बाद बहुत गर्व से उसे प्रचारित भी करती है? आखिर यह कौन सा जहर है जो मस्तिष्क को इस सीमा तक कलुषित कर देता है कि इंसान और जानवर का अंतर तक मिट जाता है? और तभी यह प्रश्न भी उठता है कि स्वयं को सेक्युलर देश कहलाने वाले भारत में एक ही धर्म की शिक्षा देने वाले मदरसे आखिर कैसे चल सकते हैं और चल ही नहीं सकते, बल्कि सरकार के संरक्षण में सरकार की सहायता से चल सकते हैं। उदयपुर की घटना यह प्रश्न बहुत प्रमुखता से उठाती है कि दीनी तालीम देने के नाम पर दिमागों में जहर भर रहे इन मदरसों पर सरकार आखिर कब कार्रवाई करेगी? या यूं कहें कि समस्या की जड़ पर प्रहार आखिर कब होगा?

उदयपुर में जो कुछ हुआ, उस घटना के कारण बहुत से हैं। इनमें पुलिस तंत्र की जबरदस्त असफलता, सरकार के खुफिया तंत्र की पूर्ण विफलता, अप्रैल से लेकर जून तक के तीन महीनों में बार-बार साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं के बावजूद कड़ी कार्रवाई का संदेश ना देना जैसे कारण तो अपनी जगह हैं ही, लेकिन इन सब कारणों के साथ ही एक बड़ा कारण जो शायद ऐसी सभी घटनाओं की जड़ है, वे हैं मदरसे, जहॉं मजहब के नाम पर ऐसा ब्रेनवॉश किया जाता है कि इंसान इस लोक में जीने के बजाय परलोक में हूरों की कल्पना में खो जाता है। काफिर की हत्या में उसे जन्नत नजर आती है।

राजस्थान सरकार के अल्पसंख्यक विभाग की वेबसाइट के अनुसार प्रदेश में इस समय 3330 मदरसे चल रहे हैं। इनमें एक लाख 81 हजार 829 बच्चे पढ़ रहे हैं। ये सरकार में पंजीकृत मदरसे हैं, जिन्हें समय-समय पर सरकार से आर्थिक सहायता भी मिलती है और यह वेबसाइट इस बात का साफ उल्लेख करती है कि इन मदरसों में बच्चों को आधुनिक शिक्षा के साथ मजहबी शिक्षा भी दी जाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि एक सेक्युलर देश में आखिर कैसे किसी शिक्षण संस्थान में किसी एक धर्म की अलग से शिक्षा दी जा सकती है? लेकिन यह हो रहा है और यह भी एक वास्तविकता है कि सरकार के संरक्षण में जितने मदरसे चल रहे हैं, लगभग उतने ही या हो सकता है कि उससे ज्यादा भी निजी स्तर पर चल रहे हों, और ये ही वो मदरसे हैं जो मोहम्मद रियाज अंसारी और गौस मोहम्मद जैसे जहरीले दिमाग तैयार कर रहे हैं। सरकार का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है। सरकार के पास यह तक जांचने का मैकेनिज्म नहीं है कि आखिर ये मदरसे किस पैसे से चल रहे हैं या शायद मैकेनिज्म होने के बावजूद वोट बैंक की मजबूरियां सरकार को ऐसी किसी भी जांच को करने से रोकती हैं। कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन उदयपुर की घटना एक चेतावनी है कि समय रहते इन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इस तरह की तालिबानी घटनाएं रुकेंगी नहीं।

क्या पुलिस भी सरकार की तुष्टीकरण की नीति पर चल रही है?
उदयपुर की घटना सरकार के पुलिस तंत्र की जबर्दस्त नाकामी को भी उजागर करती है। पुलिस नुपुर शर्मा के समर्थन में पोस्ट करने के लिए कन्हैयालाल को तो तुरंत गिरफ्तार कर लेती है, लेकिन घटना से दस दिन पहले उसे मारने का वीडियो बनाने वालों और तथाकथित “समझौते“ के बावजूद उसे रोज धमकियां देने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं करती है। उल्टे शिकायत देने वाले को ही थोड़ा सम्भल कर रहने के लिए कह दिया जाता है। प्रश्न उठता है कि यदि हमें ही सम्भल कर रहना है तो पुलिस किसलिए है, सिर्फ नेताओं सुरक्षा के लिए?

पुलिस के अधिकारी कह रहे हैं कि हमने 15 जून को समझौता करा दिया था, लेकिन आखिर यह कैसा समझौता था कि इसके बाद भी कन्हैयालाल को लगातार धमकियां मिल रही थीं और अखिरकार उसे छह दिन तक अपनी दुकान बंद कर अपने गांव भागना पड़ा। अपनी लिखित शिकायत में उसने यहां तक कहा कि पांच लोग मेरी दुकान की रेकी कर रहे हैं, लेकिन पुलिस ने इसे भी गम्भीरता से नहीं लिया और उसे किसी भी तरह की सुरक्षा प्रदान नहीं की। आखिर वो कब तक अपनी दुकान से दूर रहता और जैसे ही वो दुकान पर आया उसे मौत के घाट उतार दिया गया। यानी पुख्ता शिकायत देने के बावजूद पुलिस तंत्र किसी नागरिक की सुरक्षा के लिए सक्रिय ना हो तो इसे क्या समझा जाए? और सबसे बडा सवाल यह कि पोस्ट करने का मामला दर्ज होने के बाद यदि कन्हैयालाल गिरफ्तार हो सकता है तो उसे धमकी देने वालों को गिरफ्तार करने के बजाए पुलिस समझौता क्यों करा रही थी? क्या पुलिस को इन्हें भी गिरफ्तार नहीं करना चाहिए था? यही वो सवाल है जो यह संकेत देता है कि पुलिस भी कहीं ना कहीं राज्य सरकार की तुष्टीकरण की नीति का अनुसरण कर रही है। यह इस बात से भी साबित होता है कि करौली में हुए दंगे का मुख्य आरोपी मकबूल अहमद आज तीन महीने बाद भी पुलिस की गिरफ्त से दूर है यह स्थिति तब है जबकि वह एक पार्षद है। जोधपुर में ईद पर हुए बवाल के आरोपियों पर भी किसी तरह की कड़ी कार्रवाई नहीं हुई है।

खुफिया तंत्र की विफलतता
यह पूरा मामला सरकार के खुफिया तंत्र की विफलता को भी दर्शाता है। उदयपुर में ही 20 जून को मुस्लिम संगठनों की ओर से नुपुर शर्मा के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन किया गया था। यह प्रदर्शन कन्हैयालाल द्वारा दी गई शिकायत के पांच दिन बाद हुआ था। यदि पुलिस का खुफिया तंत्र सक्रिय होता तो इस घटना को सूंघ सकता था।

वैसे खुफिया तंत्र की विफलता का यह पहला मामला नहीं है। प्रदेश दो अप्रैल को नवसंवत्सर के दिन करौली में, दो मई को ईद के दिन जोधपुर में, चार मई को भीलवाड़ा में और इसी दौरान कई अन्य जगहों पर साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएं देख चुका है और एक के बाद एक घटनाएं होना यही प्रश्न खड़े करता है कि आखिर पुलिस का खुफिया तंत्र किसकी जासूसी में लगा है, जनता को संकट में डालने वालों की या सरकार को संकट में डालने वालों की?

उदयपुर की यह घटना सामान्य नहीं है। यदि इसे सामान्य तरीके से लेने की भूल की गई तो परिणाम भयानक होंगे। प्रदेश की “धर्म-निरपेक्ष“ सरकार ऐसे मामलों को वास्तव में रोकना चाहती है तो उसे वास्तव में धर्म निरपेक्ष हो कर काम करना पड़ेगा और कानून व्यवस्था में सुधार ही नहीं निचले स्तर तक जा कर जहरीले दिमागों की पौध तैयार कर रही नर्सरियों को जड़ से उखाड़ना होगा। वरना ये तालिबानी हमले आसानी से रुकने वाले नहीं हैं।

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