क्या बंगाल की हिंसा, हिंसा नहीं है?

क्या बंगाल की हिंसा, हिंसा नहीं है?

उमेश उपाध्याय

क्या बंगाल की हिंसा, हिंसा नहीं है?

कहते हैं कि अगर धृतराष्ट्र ने विदुर की सलाह पर ध्यान दिया होता तो महाभारत को टाला जा सकता था। लेकिन धृतराष्ट्र पुत्र मोह में इतने लीन थे कि उन्होंने विदुर की बातों को सुनकर भी अनसुना कर दिया। धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर की बात नहीं सुनी, इससे उन बातों का महत्व कम नहीं हो जाता है। महाभारत में तो  राजा को सही और गलत  बताने वाले विदुर थे। लोकतंत्र में प्रजा ही राजा होती है। उसे सही तस्वीर दिखाने की जिम्मेदारी मीडिया की है। लेकिन अगर मीडिया भय, लालच, स्वार्थ या मोह के कारण सच न दिखाए तो लोकतंत्र कैसे ज़िंदा रहेगा? क्या बंगाल को लेकर ऐसा ही नहीं हो रहा?

बंगाल में ममता बनर्जी की जीत के बाद हिंसा का खतरनाक दौर चल रहा है। 16 हत्याओं की बात तो खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कर चुकी हैं। लेकिन, अलग-अलग दावे बताते हैं कि यह संख्या इससे कहीं ज्यादा है। इनमें अधिकतर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता बताए जा रहे हैं। केंद्रीय मंत्रियों के काफिलों तक पर हमले हो रहे हैं। पर, मुख्यधारा का देशी और विदेशी मीडिया ऐसा लगता है कि चद्दर तान कर सो रहा है। कल्पना कीजिये कि यदि ऐसा योगी के राज में उत्तर प्रदेश में हुआ होता तो अब तक सारे अख़बारों के पहले पन्ने और टीवी चैनलों के बुलेटिन इन्हीं खबरों से भरे होते। वहां लोकतंत्र की मौत के मर्सिये पढ़े जा रहे होते, पर बंगाल को लेकर ऐसा क्यों नहीं हो रहा? ये चिंतित करने और चिंतन करने की बात है।

प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतने के बाद अगर जीतने वाली पार्टी विपक्ष के खिलाफ हिंसा करे, तो यह भारतीय प्रजातंत्र के लिए बेहद अफसोस जनक और शर्मनाक है। ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी के ऊपर पहले वामपंथी कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी हिंसा के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन इस बार हिंसा कहीं अधिक क्रूर और कहीं अधिक व्यापक है। बंगाल से जो खबरें और वीडियो आ रहे हैं, वे बेहद परेशान कर देने वाले हैं।

हो सकता है तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व ने धृतराष्ट्र की तरह अपनी आँखों के साथ कान भी बंद कर लिए हों, पर देश विदेश का मीडिया और कथित बुद्धिजीवी तो बंगाल में विदुर की भूमिका निभा ही सकते हैं। उनकी कलम और कैमरे को किसने रोका है?

देश के अंदर एक पूरी जमात है जो हिंसा की छोटी सी घटना को बड़ा रंग देती है। मानव अधिकार, मानवता,  सुप्रीम कोर्ट और संविधान – न जाने किस-किस की दुहाई दी जाती है। जब घोषित आतंकवादियों को छुड़ाने के लिए आधी रात में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा तक खटखटाया जा सकता है तो बंगाल की हिंसा को लेकर ऐसा क्यों नहीं हो रहा?

प्रश्न है कि बंगाल में पिछले दो-तीन दिन के अंदर जो हिंसा हुई है। महिलाओं के साथ कथित बलात्कार और अत्याचार के जो चित्र आ रहे हैं, उन पर इन कथित मानव अधिकार एक्टिविस्ट का दिल अभी तक क्यों नहीं डोला है? क्या भारतीय नागरिकों के मानव अधिकार की व्याख्या या जिंदा रहने का अधिकार उनकी राजनीतिक निष्ठा को देखकर किया जाएगा? इन बुद्धिजीवियों और देश विदेश के मुख्यधारा के मीडिया की भूमिका पर इसे लेकर भी कई सवाल बनते हैं।

दिल्ली के दंगे हों, अखलाक की हत्या या फिर अन्य ऐसे कई उदाहरण हैं जिनकी खबरों को मुख्यधारा का मीडिया सुर्खियां बनाता है। इससे देश की अदालतों, जनमानस और दुनिया का ध्यान इस तरफ जाता है। क्या बंगाल की हिंसा को देश और विदेश के अखबारों में वही स्थान मिल रहा है? क्या मुख्यधारा के अखबार/चैनल उसको उसी गंभीरता के साथ उठा रहे हैं जैसा कि अन्य मामलों में करते हैं?

कुछ अखबारों ने इन मामलों को उठाया है तो उसमें इतना किंतु परंतु लगाया है कि मालूम ही नहीं पड़ता कि वहां हो क्या रहा है। बंगाल में चुनाव बाद की राजनीतिक हिंसा की रिपोर्टिंग इतने किंतु/परंतु के साथ कुछ लोग कर रहे हैं, जिससे ये हिंसा ही जायज लगती है। आप पूछेंगे तो बताया जाएगा कि ख़बरों में संतुलन लाने के लिए ऐसा किया गया है। तो भाई, आप बाकी घटनाओं के समय ये ‘संतुलन’ क्यों नहीं बिठाते? तब आपकी हेडलाइन और रिपोर्टिंग तक निर्णयात्मक क्यों होती हैं?

देश विदेश के मीडिया का यह दायित्व बनता है कि वह बिना किसी राजनीतिक और मज़हबी भेदभाव के बंगाल की हिंसा की तस्वीर लोगों के सामने लाये। दंगा करने वालों का पर्दाफाश करे। उनको बेनकाब करे जो इस हिंसा के पीछे हैं और इसके लिए लोगों को उकसा रहे हैं। राजनीतिक दलों की तरह मीडिया राजनीतिक चश्मे से भारतीय नागरिकों के अधिकारों को नहीं देख सकता।

महाभारत में कम से कम कहने के लिए धृतराष्ट्र की तरफ कई लोग थे जो उन्हें समझाने की कोशिश करते थे। परंतु यहां बुद्धिजीवी और मीडिया रूपी विदुर ने भी धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर पट्टी बांध ली है और कानों में रुई डाल ली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक नाटक लिखा था। इस नाटक का शीर्षक था ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’। इस नाटक  में धूर्त पुरोहित, पाखंडी पंडित और लालची मंत्री राजा से कहते हैं कि जीव हिंसा शास्त्र-सम्मत है। परंतु अंत में सिद्ध होता है कि हिंसा सही नहीं है। वे सब नरक के भागी बनते हैं।

बंगाल का चुनाव जीतने वाली तृणमूल कांग्रेस राजमद में आंखों में पट्टी बांध सकती है। मगर मीडिया ऐसा नहीं कर सकता। उसे सोचना चाहिए कि बंगाल की हिंसा देश के लोकतंत्र और सौहार्द के लिए बेहद घातक है।

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