गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल (फ़िल्म समीक्षा)

गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल (फ़िल्म समीक्षा)

डॉ. अरुण सिंह

गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल (फ़िल्म समीक्षा)

एक महिला का सेना में भर्ती होना और देश सेवा हेतु अपना सामर्थ्य और अस्तित्व सिद्ध करना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। महिला केंद्रित फिल्मों की सूची में एक और नई फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित हुई है – गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल, वायु सेना में भर्ती होने वाली पहली महिला के जीवन पर आधारित है यह फ़िल्म। बचपन से संजोए गुंजन के स्वप्न को उसके पिता ही उड़ान देते हैं। वह उसके आत्मविश्वास को यह कहते हुए मजबूती प्रदान करते हैं कि प्लेन लड़का उड़ाए या लड़की, दोनों को पायलट ही बोलते हैं। पायलट बनना केवल एक महत्वाकांक्षा नहीं है, वरन् एक प्रतिभाशाली भारतीय महिला के स्वप्नों की उड़ान है, राष्ट्र के प्रति उसकी कर्तव्यपरायणता की पहचान है।

छुटपन की आँखें हवाई जहाज को उड़ते देख आशाओं का एक ताना बाना बुनती हैं। यही आशाएँ और लगन भविष्य के दृढ़ निश्चय और संकल्प की ओर ले जाती हैं। गुंजन को केवल स्वप्न बुनना ही नहीं आता, वह उन कठोर कंटकों को सहने के लिए भी स्वयं को सक्षम बनाती है, जो उसके मार्ग में आते हैं। शारीरिक दक्षता परीक्षा में असफल होने पर वह टूटती है, पर बिखरती नहीं है। वह हारने को होती है, पर पिता उसे फिर से खड़ा करते हैं। समय के साथ पुत्री की कर्मनिष्ठता और योग्यता को देखकर माँ भी अपना समर्थन देती हैं। परन्तु पिता उसकी सबसे बड़ी शक्ति और प्रेरणा हैं। वरिष्ठ अधिकारी गौरव सिन्हा के साथ चॉपर नियंत्रित करके वह अपनी प्रतिभा और निर्णय क्षमता का लोहा मनवाती है। भाई के ताने और कटाक्ष युद्धक्षेत्र में गुंजन की क्षमता और प्रतिभा को देखकर प्रशंसा में बदल जाते हैं। गुंजन के प्रति औरों के दृष्टिकोण को स्वयं गुंजन ही परिवर्तित करती है। वह उसी असली दुनिया का सामना करती है, जिससे उसका भाई बार-बार उसे पीछे हटने के लिए कहता है।

फ़िल्म में वायु सेना के पुरुष अधिकारियों का गुंजन के प्रति अत्यंत पक्षपातपूर्ण व्यवहार दिखाया गया है, वह बहुत ही आपत्तिजनक है। इस मुद्दे पर वायु सेना अधिकारियों ने कड़ी आपत्ति भी जताई है। गुंजन को उसके पिता द्वारा संबल प्रदान करना तथाकथित महिलावादियों को खलता है। फ़िल्म   गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल एक उत्कृष्ट फिल्म बन सकती थी लेकिन अनेक जगह यह भटकती प्रतीत होती है।  निर्माता और दर्शकों का अतिशयवादी व नकारात्मक दृष्टिकोण कला को वास्तविकता से बहुत दूर ले जाता है और समाज को भी अनुचित दिशा प्रदान करता है।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *