जीवनव्रती प्रचारक हमारे रज्जू भैया

जीवनव्रती प्रचारक हमारे रज्जू भैया

वीरेंद्र पान्डेय

जीवनव्रती प्रचारक हमारे रज्जू भैया

सन 1966 की बात है। प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) ने प्रयाग विश्वविद्यालय के भौतिक शास्त्र के विभागाध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। तत्पश्चात् वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनव्रती प्रचारक के रूप में उस पथ के पथिक बनकर संघ कार्य में अहर्निश सक्रिय हो गए, जहां सुख-सुविधा, ऐहिक सुख-ऐश्वर्य-भोग का कोई प्रश्न ही नहीं वरन जहां इन लौकिक विषयों की कल्पना ही निःशेष हो जाती है। रज्जू भैया प्रयागराज विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर थे। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक बने। उनका संघ से संबंध अक्टूबर 1942 में आरंभ हुआ। उन्होंने एक शिक्षक, स्वयंसेवक, प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक की महती जिम्मेदारियों को बड़ी सहजता और सरलता के साथ निभाया।

1994 में संघ के तीसरे सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस ने अपने जीवन काल में ही रज्जू भैया का सरसंघचालक पद पर अभिषेक किया। तब यह घटना भारत के सार्वजनिक जीवन में बड़ा धमाका बन गई थी क्योंकि तब तक भारत के राजनीतिक क्षेत्रों एवं मीडिया जगत में यह धारणा गहरी जम गई थी कि पूरे भारत में व्याप्त संघ के विशाल संगठन पर मुट्ठी भर महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित है। इस भ्रामक प्रचार के प्रमाण स्वरूप संघ के पहले तीन सरसंघचालकों का नाम दिया जाता था। संघ की विकास-प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण वे इसकी सही मीमांसा नहीं कर पाते थे। किंतु यकायक सरसंघचालक पद पर रज्जू भैया के चयन से सिद्ध हो गया कि यह भ्रांतिपूर्ण अपप्रचार मात्र था।

सर सीवी रमण से भेंट:

एक वैज्ञानिक से लेकर संसार के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के शीर्ष मार्गदर्शक तक की उनकी यात्रा एक अविश्रांत साधना और अटूट ध्येय निष्ठा की डगर थी। उस संगठन के सरकार्यवाह और फिर सरसंघचालक के रूप में देश उन्हें जानता है। पर विज्ञान के विद्यार्थी और उस प्रयाग विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में उनके जीवन की भी बहुत सारी स्मृतियां हैं।

बात उन दिनों की है जब स्नातकोत्तर परीक्षा लेने प्रसिद्ध वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमण इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आए थे। परीक्षा में उनका ध्यान दो विद्यार्थियों की ओर आकर्षित हुआ। इन दोनों विद्यार्थियों की भौतिक प्रयोगशाला में एक ही अलमारी थी। वे मित्र वहां साथ-साथ प्रयोग करते थे। श्री रमण ने इस असाधारण जोड़ी को देखा जो कक्षा में सदा प्रथम द्वितीय आते थे। उनमें से एक प्रोफेसर हरीशचंद नाम से प्रसिद्ध हुए जो बाद में प्रिंस्टन के इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडीज में अल्बर्ट आइंस्टीन के गणित के अध्यापक के पद पर सुशोभित हुए। और दूसरे थे रज्जू भैया। सर सी वी रमन इन दोनों विद्यार्थियों से काफी प्रभावित हुए। वे रज्जू भैया को अपने साथ प्रयोग करने बेंगलुरु ले कर जाना चाहते थे। उनके गुरु डॉक्टर कृष्णन ने संघ के स्वयंसेवकों को उलाहना दिया, “संघ ने विज्ञान के संसार से हमारा भौतिकी में सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करने वाला विद्यार्थी छीन लिया यह विज्ञान की बहुत बड़ी क्षति है”। पर रज्जू भैया तो राष्ट्र सेवा का व्रत ले चुके थे।

आचार्य कृपलानी जी से वार्ता:

सन 1951 का एक प्रसंग है। उस वर्ष के अंत में आचार्य कृपलानी प्रयाग पधारे। वे प्रयाग विश्वविद्यालय के विधि विभाग के प्रोफेसर केके भट्टाचार्य के यहां ठहरे तो रज्जू भैया भी कृपलानी जी से मिलने गए। परिचय होने के बाद रज्जू भैया ने कृपलानी जी से पूछा, “आपको संघ के विषय में कौन सी बात अच्छी नहीं लगती?” तो कृपलानी जी ने संघ के स्वयंसेवकों की लगन, परिश्रमशीलता और मिलनसार स्वभाव की तो प्रशंसा की, किंतु साथ ही उन्होंने प्रश्न उठाया कि संघ भारत को हिंदू राष्ट्र क्यों कहता है, उसे भारतीय कहना चाहिए? रज्जू भैया ने उनसे पूछा, “आपकी दृष्टि में भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों से किन बातों में भिन्न है, जो भारत की विशेषता है?” उत्तर में कृपलानी जी ने कहा “जैसे यहां सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता भाव है या जीवन को केवल खाने और मौज उड़ाने की वस्तु न मानकर श्रेष्ठ कर्म करने की प्रवृत्ति हमारी, आध्यात्मिकता आदि।” रज्जू भैया ने उनके कथन से सहमति व्यक्त करते हुए पूछा, “परंतु यह सहिष्णुता किसकी देन है? मुसलमान और ईसाई की तो नहीं; वे अन्य देशों में रहते हैं, और वहां की स्थिति ऐसी नहीं है। वस्तुतः यह सहिष्णुता तो हिंदू धर्म के ही सभी संप्रदायों की विशेषता है। रहा आध्यात्मिक जीवन उसके लिए भी ईसाई मुसलमान का कोई योगदान नहीं। वह तो पुनर्जन्म के विचारों से आती है, जो हिंदू की ही विशेषता है।” फिर कृपलानी जी ने हँसते हुए कहा कि “मैं मानता हूं कि भारत की विशेषताएं यहां के हजारों वर्षों के परंपरागत जीवन की देन हैं पर उन्हें भारतीय कहना राजनीतिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त होगा। इस पर रज्जू भैया ने कहा, “हम लोग राजनीतिक नहीं हैं, इसलिए हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं, नहीं तो हमें डर है कि भारतीय कहते-कहते हम उन विशेषताओं को ही भूल जाएंगे और तब उन के अभाव में विश्व में हमारे जीवन जीने की कोई खास उपयोगिता नहीं रहेगी।

(लेखक: सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं )

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