प्रवासी पलायन : एक बड़ी राजनीतिक साजिश

राजनीतिक साजिशों से अनजान इस जनसैलाब में कुछ भोले-भाले, अधीर लोग भी अपने-अपने गाँव महामारी के वाहक बनकर जाने को उद्धत हैं। इनमें से अधिकांश की स्थिति ऐसी होगी कि वे महीना-दो-महीना शहर में रुक सकते हैं। कोई उन्हें समझाए कि अपनी मूर्खता या अज्ञानता में ये अपने पड़ोसियों-परिजनों के लिए बीमारी की सौग़ात लेकर जाना चाहते हैं और राजनीतिक गिरोहों के कुछ गिद्ध/ महागिद्ध इन्हें अपना राजनीतिक ग्रास बना लेना चाहते हैं। इंसानों की मांस-मज्जा और रुधिरकणों से वे अपनी राजनीतिक क्षुधा को शांत करना और प्यास को बुझाना चाहते हैं।

प्रणय कुमार

पहले दिल्ली, अब मुंबई, फिर सूरत, उसके बाद ठाणे, इन सभी जगहों पर लगभग एक जैसे पैटर्न, एक जैसे प्रयोग, एक जैसी बातें, एक जैसी तस्वीरें। सवाल यह भी कि क्या भूख, बेरोजगारी या लाचारी का हौवा खड़ा कर रातों-रात ऐसी भीड़ एकत्रित की जा सकती है? स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी भीड़ के पीछे कुछ संगठनों और चेहरों की भूमिका की संभावनाओं को निराधार और निर्मूल नहीं सिद्ध किया जा सकता? नेपथ्य में दिखता परदे के पीछे का सच भी ऐसी ही किसी साज़िश की ओर इशारा करता है। कहते हैं कि दिल्ली में तो बक़ायदा घोषणा कर-करके, डीटीसी की बसें उपलब्ध करा-कराकर लोगों को एक निश्चित स्थल पर एकत्रित होने का निर्देश दिया गया। मुंबई में भी लॉकडाउन बढ़ाए जाने की घोषणा के चंद घण्टों बाद हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई। क्या यह केवल विनय दुबे जैसे महापंचायत चलाने वाले व्यक्ति के अकेले दम पर संभव था? क्या इसके पीछे निहित राजनीतिक एजेंडे की बू नहीं आती ? क्या यह भीड़ चंद घण्टों में एकत्रित की जा सकती थी? वहाँ एकत्रित भीड़ में से कुछ ने कहा कि उन्हें वहाँ से ट्रेन से उनके गाँव-घर भेजे जाने की ख़बर मिली थी। कुछ ने कहा कि उन्हें सूचना दी गई थी कि वहाँ राशन आदि ज़रूरी सामान मुहैय्या कराए जाएँगे। सवाल यह भी है कि जब बांद्रा से बिहार-उत्तरप्रदेश की ओर कोई ट्रेन जाती ही नहीं तो फिर किसने और क्यों यह अफ़वाह फैलाई और उस अफ़वाह पर आसानी से भरोसा कर लेने वाला जत्था कौन-सा था? लगभग ऐसे ही पैटर्न और प्रयोग ठाणे और सूरत में भी देखने को मिले।

यदि कोई इसमें राजनीतिक षड्यंत्र भाँप रहा है तो इसमें उसका क्या दोष? क्या जीवन से बढ़कर है भूख और बेरोजगारी? क्या बेरोजगारी कोई रातों-रात दूर होने वाली समस्या है? क्या सालों से दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में रहने वाले लोग इतना भी नहीं कमा और बचा पाते कि एक महीना धीरज और हिम्मत से वहीं रहकर अपना और अपने परिजनों के प्राणों की इस महामारी से रक्षा कर सकें? यदि वे इतना भी नहीं अर्जित कर पाते तो शायद अपना घर-परिवार छोड़कर शहरों का रुख ही नहीं करते, क्योंकि आज गाँवों में भी कृषि-कार्य एवं मवेशी-पालन आदि के लिए दिहाड़ी मजदूरों की माँग में पर्याप्त वृद्धि हुई है, उनकी दैनिक मज़दूरी भी कहीं-कहीं 400-400 रुपए तक पहुँच गई है।

मैं यह इस विश्वास के आधार पर भी कह रहा हूँ कि मैं स्वयं विशुद्ध गाँव से हूँ। गाँव की स्थिति-परिस्थिति से पूरी तरह परिचित हूँ। पलायन को केवल भूख और बेरोजगारी से जोड़ना एक सरलीकृत निष्कर्ष होगा। यहाँ पलायन के कारणों पर सविस्तार चर्चा करना विषयांतर होगा। इसलिए मैं केवल इतना कहूँगा कि यह अनियंत्रित ही नहीं, बल्कि कुछ सीमा तक अराजक भीड़ देश को विकास की पटरी से उतारने का कुचक्र है। समय-असमय का ध्यान किए बिना प्रधानमंत्री मोदी और उनके हर निर्णय को विफल करने का षड्यंत्र है? आप सोचिए जब केंद्र और तमाम राज्य सरकारें भोजन जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का न केवल बारंबार आश्वासन दे रही है, अपितु उस दिशा में लगातार सक्रिय और सचेष्ट भी दिखाई दे रही हैं, तब ऐसी भगदड़, ऐसी हाय-तौबा सचमुच समझ से परे है?

आइए इस पर कुछ अलग ढंग से विचार करें। बिहार से होने के कारण मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि बिहार का अभिशाप भी उससे कम हठी नहीं है। कभी बाढ़ तो कभी जनसैलाब इसका पीछा नहीं छोड़ता! संभव है कि राजनीतिक साजिशों से अनजान इस जनसैलाब में कुछ भोले-भाले, अधीर लोग भी अपने-अपने गाँव महामारी के वाहक बनकर जाने को उद्धत हैं। इनमें से अधिकांश की स्थिति ऐसी होगी कि वे महीना-दो-महीना शहर में रुक सकते हैं। कोई उन्हें समझाए कि अपनी मूर्खता या अज्ञानता में ये अपने पड़ोसियों-परिजनों के लिए बीमारी की सौग़ात लेकर जाना चाहते हैं और राजनीतिक गिरोहों के कुछ गिद्ध/ महागिद्ध इन्हें अपना राजनीतिक ग्रास बना लेना चाहते हैं। इंसानों की मांस-मज्जा और रुधिरकणों से वे अपनी राजनीतिक क्षुधा को शांत करना और प्यास को बुझाना चाहते हैं। अभी इन्हें समझाने-बुझाने, शांत करने और परिस्थितियों की भयावहता को समझाने का प्रयास चलना चाहिए, न कि राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का।

विडंबना यह है कि गगनचुंबी अट्टालिकाओं और वातानुकूलित कक्षों में बर्फ और सोडा मिलाकर शीतल-मादक तरल पदार्थों से अपना-अपना गला तर करते हुए गरीबों-मजलूमों की बात करना इस देश के कतिपय नेताओं-बुद्धिजीवियों का फैशनेबल चलन रहा है। सिगरेट के धुएँ के छल्लों और रंगीन-तरल-मादक घूँटों में जन्नत जैसी बेफ़िक्री तलाशने वाला और समय-असमय नक़ली क्रांति की राग अलापने वाला यह क्रांतिकारी वर्ग/क्लास शायर हो सकता है, लीडर हो सकता है, फिलॉस्फर हो सकता है, इंटलैक्चुअल भी हो सकता है….बल्कि और भी बहुत कुछ हो सकता है, पर गरीबों-मजलूमों का….. हमारा-आपका, सच्चा हितैषी, हमदर्द और हमसफ़र नहीं हो सकता। वह तो कोई जमीन से निकला, धरातलीय अनुभव, संघर्ष व संस्कारों की आँच में तपा- सच देखने, सच जानने, सच कहने का साहस रखने वाला परिव्राजक सदृश त्यागी व्यक्तित्व ही हो सकता है|

मुझे कहने दीजिए कि इस देश के बुद्धिजीवियों-पत्रकारों-सरकारों, विशिष्ट समझे जाने वाले स्वयंभू लोगों में भी कई बार गज़ब का दोगलापन देखने को मिलता है। परमुखापेक्षिता और परावलंबिता की संस्कृति ने भारत के गाँवों व आम लोगों को आत्मनिर्भर ही कहाँ रहने दिया और वोट-बैंक को ध्यान में रखकर दी जाने वाली अनुदानों की अनियंत्रित बाढ़ ने भी कोढ़ में खाज का ही काम किया। रोग की जड़ तक गए बिना तने-टहनियों-पत्तियों का उपचार करते रहने से कुछ भी हासिल नहीं होगा; जड़ों को खोखला करने वाले निर्णयों का परिणाम त्रासद ही होगा। इसलिए भारत सरकार को सोच-विचार कर दूरगामी एवं तात्कालिक हितों को साधने वाले निर्णय लेने चाहिए और हर्ष का विषय है कि सरकार कोरोना और उससे उत्पन्न भयावह स्थिति-परिस्थितियों पर पैनी निगाह रख रही है, तेजी से निर्णय ले रही है, उसकी समीक्षा कर रही है और आवश्यक प्रतीत होने पर संशोधन भी कर रही है। उसके द्वारा घोषित राहत पैकेजों में भी सचमुच बुनियादी ज़रूरतों का ही ध्यान रखा जा रहा है।

भयावह आडंबरों, भावुक अतिवादों और मिथ्या दर्पों से जकड़े हुए समाज के समान व्यवहार करने की बजाय आज आवश्यकता है एक परिपक्व और जिम्मेदार समाज के रूप में अपना दायित्व निभाने की……। भारत और भारतवंशियों ने सदैव ही संकट-काल में अपना सर्वोत्तम दिया है। चंद स्वार्थी ताक़तों एवं राजनीतिक पूर्वाग्रहों-षड्यंत्रों को पराजित कर निश्चय ही हम सामूहिक संकल्प, संयम, सहयोग से इस संकट पर भी विजय पाएँगें। कोरोना की इस महामारी से लड़ने में हौसले और धीरज से काम लेते हुए हम दुनिया के लिए एक मिसाल क़ायम करेंगे।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

1 thought on “प्रवासी पलायन : एक बड़ी राजनीतिक साजिश

  1. बहुत ही तथ्यात्मक, विचारणीय व चिंतनीय लेख । यह लेखक के गहन विश्लेषण को भी परिलक्षित करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *