पुस्तक समीक्षा – विषैला वामपंथ

यूँ तो वामपंथ के कुछ तथ्यों की कॉलेज के समय में मार्क्स, लेनिन के बारे में पढ़ कर जानकारी रही है, परंतु हाल के वर्षों में भारत में बंगाल और त्रिपुरा से सत्ता से वामपंथ की दूरी के साथ मैं यह मान बैठा था कि अब भारत में वामपंथ अपने अंत की ओर है। लेकिन जब प्रवासी भारतीय डॉ. राजीव मिश्रा की पुस्तक ‘विषैला वामपंथ’ मिली तो पहले यही सोचा कि इसकी वर्तमान भारतीय परिदृश्य में क्या प्रासंगिकता हो सकती है? फिर, लेखक भी लंदन निवासी हैं, तो मुझे पुस्तक से बौद्धिक जागरण की अधिक अपेक्षा न थी। किंतु पुस्तक के पन्नों को ज्यों ज्यों पलटता गया, मैं उसमें डूबता ही चला गया। लेखक ने बड़ी ही सरल भाषा में वामपंथ के गहराते खतरे से देश को आगाह किया है। लेखक ने प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर यह साबित किया है कि आज वामपंथ पहले से कहीं अधिक और कई गुना मजबूत हुआ है। पहले से अधिक खतरनाक और जहरीला हुआ है।
लेखक ने कई उद्धरणों के साथ यह साबित करने में सफलता प्राप्त की है कि भ्रम फैलाकर, सामाजिक मूल्यों को समाप्त कर, राष्ट्रीयता की भावना की हत्या करके आज के समय में वामपंथ भारत में भी किस तरह से वही विष घोल रहा है जो 1950 – 60 के दशक में अमेरिका, यूरोप तथा चीन में किया था।  वामपंथी पुस्तक के रूप में मैं सिर्फ ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ या ‘दास कैपिटल’ को ही जानता था, परन्तु वामपंथियों का असल ग्रन्थ तो ‘रूल्स फॉर रेडिकल्स’ है, यह इसी पुस्तक से जान पाया।
डॉ. राजीव मिश्रा अपनी इस पुस्तक में यह स्पष्ट कर सके हैं कि किस तरह स्वयं आर्थिक रूप से सम्पन्न वामपंथी नेता एक गरीब को मेहनत से आगे बढ़ने का मार्ग या परेशानी से निकलने का उपाय न बताकर, उनके मन में तुम शोषित हो का भाव पैदा कर बाकी समाज से उन्हें तोड़ने का काम करते हैं। उन्होंने भारत में फ्रीडम ऑफ़ स्पीच या इनटॉलेरेंस के विचारों को कलह के कारोबार के रूप में आजमाया है। रूल्स फॉर रेडिकल्स के प्रथम लिखित रूल में वामपंथी अपने विचारकों को यही बताते हैं कि ‘शक्ति सिर्फ वह नहीं जो आपके पास है, शक्ति वह भी है जो आपका शत्रु समझता है कि आपके पास है। वे यह भ्रम फैलाकर दीमक का काम करते हैं, जिससे ये लोकतंत्र में सत्ता में न होते हुए भी जनता इनके साथ है, ऐसा कन्फ्लिक्टिव नैरेटिव बनाते हैं। इन सभी दुष्ट प्रवृत्ति वाले वामपंथी विचारों से बचने हेतु लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से आह्वान किया है कि हमें इन वामपंथियों से इनकी शक्ति को छीनना है। शिक्षा, संस्कृति, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में इनके प्रभुत्व को न केवल कम करना है अपितु समाप्त करना है।
वामपंथियों के बौद्धिक आतंकवाद से लड़ने की प्रेरणा देने वाली इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने युवा पीढ़ी को उदाहरणों एवं वास्तविक प्रसंगों द्वारा सही व गलत को समझाने का सार्थक प्रयास किया है। पुस्तक का प्रत्येक अध्याय वामपंथी कुटिलता को प्रामाणिकता से प्रस्तुत करता है। पुस्तक एक बार अवश्य पढ़ने योग्य है। आपके आगे के समय को उपयोगी बनाने में यह अवश्य सार्थक होगी।
लोकेश शर्मा
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