भारतीय शिल्प का अद्भुत उदाहरण कोणार्क का सूर्य मंदिर

भारतीय शिल्प का अद्भुत उदाहरण कोणार्क का सूर्य मंदिर

डॉ. ओम प्रकाश भार्गव

भारतीय शिल्प का अद्भुत उदाहरण कोणार्क का सूर्य मंदिरभारतीय शिल्प का अद्भुत उदाहरण कोणार्क का सूर्य मंदिर

भारत में कुल 12 सूर्य मंदिर हैं, जिनमें से 9 तो बिहार के मगध क्षेत्र में ही हैं। अन्य तीन मंदिरों में एक राजस्थान के झालावाड़ में, दूसरा कश्मीर में (मार्तण्ड मंदिर) और तीसरा उड़ीसा के कोणार्क में स्थित है। यहॉं हम बात करेंगे उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर की। एक बार अखिल भारतीय साहित्य परिषद की ओर से मुझे राष्ट्रीय सर्वभाषा सम्मान व संवाद समारोह में भुवनेश्वर जाने का अवसर मिला। भुवनेश्वर से कोणार्क की दूरी लगभग 70 किमी है, सड़क मार्ग से महज दो घंटे दूर। ऐसे में कोणार्क जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। मंदिर देखा तो अपलक निहारता रह गया।  शिल्पकारों ने पत्थरों को ऐसे गढ़ा है कि लगता है बस उनमें जान डालनी शेष है। मंदिर का इंच इंच शिल्पकारों की विलक्षणता की कहानी कह रहा है। मंदिर के इसी विलक्षण शिल्प को देखकर डॉ. रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा था कि जितना अधिक यह मौन पत्थर बता सकते हैं, उतना एक मनुष्य भी अपनी वाणी से नहीं बता सकता। 

कोणार्क के इस भव्य, पावन व भारतीय शिल्प के सिरमौर सूर्य मंदिर को मैंने अभी तक पुस्तकों और 10 रुपए के नोट पर ही देखा था। साक्षात देखना काफी रोमांच पैदा करने वाला था।

जगन्नाथपुरी से 35 किलोमीटर उत्तर पूर्व में चंद्रभागा समुद्र तट पर स्थित यह मंदिर लाल रंग के बलुआ पत्थरों ओर काले रंग के ग्रेनाइट से बनाया गया है। काले रंग से निर्मित होने के कारण इसे “ब्लैक पैगोडा” भी कहा जाता है। सूर्य मंदिर कलिंग वास्तुकला का चरम बिंदु है। इस मंदिर की भव्य शिल्पकला को देखकर लगता है कि इस मंदिर के निर्माण से पूर्व जैसी कल्पना की गई होगी, उसकी रचना उससे भी सुंदर और भव्य है। जिस प्रकार साहित्यकार या कवि अपने भावों को मूर्त रूप देते समय कई बार कल्पना में बहुत आगे निकल जाता है तथा रचना उसकी कल्पना से कहीं अधिक प्रभावी हो जाती है, उसी प्रकार सूर्य देव को समर्पित यह मंदिर अपनी भव्यता, वास्तु एवं मूर्ति कला के समन्वय एवं शिल्प कौशल में अद्वितीय है। 

मंदिर का वास्तु और शिल्प देखन के पश्चात सामान्य सा व्यक्ति भी तत्कालीन भारत के वास्तुकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा के लिए बाध्य हो जाएगा।

कोणार्क शब्द “कोण” और”अर्क” शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से तात्पर्य कोने या किनारे से है। पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग का श्राप दिया था। साम्ब ने चंद्रभागा नदी के सागर संगम तट पर कोणार्क में 12 वर्ष तक सूर्य देव की तपस्या कर सूर्य देव को प्रसन्न कर लिया। रोगों के नाशक सूर्यदेव ने उसे रोग मुक्त कर दिया। रोग समाप्ति के पश्चात चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए उन्हें सूर्य देव की मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्य देव के भाग से ही देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनाई थी। साम्ब ने उस मूर्ति की स्थापना उसी स्थान पर करवा दी, जहां आज सूर्य मंदिर है। स्थानीय लोग इस मंदिर को बिरंची नारायण के नाम से भी जानते हैं।

13वीं सदी में गंग वंश के राजा नरसिंह देव के कोई संतान नहीं थी। सूर्य देव की आराधना करने पर उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। इसलिए राजा को चंद्रभागा नदी के तट पर विशाल सूर्य मंदिर बनाने की इच्छा हुई। उनकी इच्छा थी कि मंदिर इस प्रकार बने कि उगते हुए सूर्य की प्रथम किरण मंदिर के मुख्य द्वार पर पड़े। इसके लिए प्रसिद्ध शिल्पकार बिसु महाराणा को लाया गया। 1200 शिल्पकारों व कलाकारों ने मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ किया। सभी ने 12 वर्षों तक पूर्ण निष्ठा से कार्य किया, इस दौरान किसी को भी घर जाने की आज्ञा नहीं थी। मंदिर लगभग पूर्ण हो चुका था, लेकिन अथक प्रयासों के बावजूद शिल्पकार मंदिर के सिरे को व्यवस्थित नहीं कर पा रहे थे। राजा पूर्ण मंदिर देखने को बहुत उत्सुक था। राजा ने कड़ा आदेश दिया कि यदि 12 दिनों में मंदिर पूर्ण नही हुआ तो सभी शिल्पकारों को मृत्युदंड दिया जाएगा। बिसु महाराणा का पुत्र धर्मपाद भी 12 वर्ष का हो चुका था। उसने अपनी माता से अपने पिता के बारे में पूछा। माता ने उत्तर दिया कि बिसु महाराणा उसके पिता हैं और 12 वर्षों से सूर्य मंदिर निर्माण के लिए गए हुए हैं। धर्मपाद को पिता की चिंता हुई। वह उनसे मिलने के लिए निकल पड़ा। धर्मपाद बहुत बुद्धिमान था। मंदिर निर्माण की समय सीमा के अंतिम दिन वह अपने पिता के पास पहुंचा और अपना परिचय दिया। बिसु महाराणा उसे देखकर खुश नहीं हुए बल्कि रोने लगे।उन्होंने अपने पुत्र को बताया कि वे मंदिर के सिरे को ठीक करने में सफल नहीं हुए, इसलिए राजा सभी को मार डालेगा। धर्मपाद कुशल शिल्पी तो नहीं था, लेकिन उसने मंदिर शिल्प के ग्रंथों का अध्ययन किया था। वह मंदिर पर चढ़ गया और गणना के पश्चात आधी रात तक मंदिर के सिरे को ठीक कर दिया।लेकिन 1200 शिल्पकारों की खुशी फिर दुःख में बदल गई। वे आपस में बात करने लगे कि राजा को जब यह मालूम होगा कि जिस कार्य को 1200 शिल्पकार नहीं कर सके, उसे एक 12 वर्ष के बालक ने कर दिया तो वह सबको मरवा देगा। कहते हैं कि धर्मपाद ने उन सभी को बचाने के लिए मंदिर के शीर्ष पर जाकर चंद्रभागा में कूदकर अपना जीवन समर्पित कर दिया। उसके इस बलिदान को आज भी लोग याद करते हैं।

कोणार्क सूर्य मंदिर को रथ के आकार में बनाया गया है। इस मंदिर के आधार पर 12 जोड़ी पहिए हैं, जो 12 महीनों को परिभाषित करते हैं। प्रत्येक चक्र 8 अरों से मिलकर बना है जो दिन के 8 प्रहरों को दर्शाते हैं। इस मंदिर की विशेषता है कि यहां बिना किसी घड़ी के भी दिन में समय को जाना जा सकता है। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि सूर्य के रथ को 7 घोड़े खींचते हैं। यहां बनाए गए 7 घोड़े 7 दिनों के प्रतीक हैं। पत्थर के घोड़ों व पहियों पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है।

कोणार्क मंदिर के पहिए, समय बताते हैं, इसलिए इन्हें धूपघड़ी भी कहा जाता है

यह 239 फीट ऊंचा मंदिर 128 फिट ऊंची नाट्यशाला के साथ बना है। नाट्यशाला अभी बची हुई है। नट मंदिर व भोग मंडप के कुछ भाग ध्वस्त हो गए हैं। इस मंदिर में सूर्य भगवान की 3 प्रतिमाएं थीं। उदित सूर्य (बाल्यावस्था), मध्याह्न सूर्य (युवावस्था) और अपरान्ह सूर्य (प्रौढ़ावस्था)। मंदिर के दक्षिण भाग में दो घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने राजकीय चिन्ह के रूप में अंगीकार किया है। इसके प्रवेश द्वार पर नट मंदिर है। यहां सहस्त्रों शिल्प आकृतियों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यको और दरबार की छवियों के अतिरिक्त फूल, बेल व ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। हीरे जैसी गुणवत्ता संपूर्ण परिसर में दिखाई देती है। आकृतियां मूक भाषा में बहुत कुछ बोलती हुई प्रतीत होती हैं। यहां पत्थर का टुकड़ा टुकड़ा अपनी भाव भंगिमा के द्वारा बहुत कुछ बताने में समर्थ है।

मुस्लिम आक्रमणों के कारण जिस प्रकार जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों को मंदिर से हटाकर किसी गुप्त स्थान पर छुपाया गया था, उसी प्रकार सूर्य मंदिर के प्रधान देवता की मूर्ति को छुपाए रखा गया। बाद में यह मूर्ति पुरी भेज दी गई।अब यह जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित इंद्र मंदिर में रखी हुई है।

कोणार्क के इस सूर्य मंदिर का सबसे बड़ा रहस्य यहां की चुंबकीय शक्ति है।बताया जाता है कि इस मंदिर के ऊपर 51 मिट्रिक टन का एक चुंबकीय पत्थर लगा हुआ था। इसका प्रभाव इतना अधिक था कि गुजरने वाले जहाज इससे भटक जाया करते थे। ब्रिटिश नाविक इस चुंबकीय पत्थर को निकालकर ले गए। इस पत्थर के हटने से दीवारों ने अपना संतुलन खो दिया। दीवारें धीरे धीरे ध्वस्त होने लगीं। 1903 में सूर्य मंदिर के अग्रभाग की ओर उपरी भाग से पत्थर खिसकने के कारण ब्रिटिश सरकार ने गर्भगृह को रेत से भर दिया।इसके साथ ही सभी दरवाजे बंद कर दिए गए। 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी।

कोणार्क की भाव पूर्ण कला को देख कर मुझे इतना आश्चर्य हुआ कि आज विज्ञान इतना विकसित हो चुका है, लेकिन प्राचीन व मध्ययुगीन भारतीय हिन्दू स्थापत्य शैल कला के समक्ष आज का विज्ञान भी नतमस्तक है। यहां पास ही चंद्रभागा समुद्र तट पर उदय होते सूर्य की प्रथम किरण के दर्शन एवम जल अर्पण का पौराणिक महत्व बताया गया है। प्रात: 6 बजे जब उस स्थान पर हम गए तो सैकड़ों लोग सूर्य की प्रथम किरण की प्रतीक्षा करते समुद्र की मनभावन लहरों का आनंद ले रहे थे। चंद्रभागा समुद्र तट का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। कोणार्क में ओडिशा पर्यटन विभाग का सुव्यवस्थित व रमणीय आवास अपनी मेहमानी व व्यवस्थाओं के लिए धन्यवाद के योग्य है। कोणार्क परिक्षेत्र की प्राचीन उत्कृष्टता, सांस्कृतिक व धार्मिक वैभव को निहारने के लिए विश्वभर से लोग यहां आते हैं। धन्य है भारतीय संस्कृति और इसकी शिल्पकला।

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