संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के संकलित विचार : अपनी मातृभूमि की सीमाएँ

संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के संकलित विचार : अपनी मातृभूमि की सीमाएँ

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संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के संकलित विचार : अपनी मातृभूमि की सीमाएँ   हमारी मातृभूमि की सीमाएं

हिमालय उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम में फैली अपनी शाखा-प्रशाखाओं के साथ तथा इन महती शाखाओं के अंतर्गत प्रदेशों के साथ हमारा रहा है। धार्मिक एवं अन्य भावुकताओं को छोड़कर यह एक शुद्ध व्यावहारिक व सामान्य बुद्धि की बात है कि कोई भी शक्तिशाली और बुद्धिमान राष्ट्र पर्वतों की चोटियों को अपनी सीमा नहीं बनाएगा। यह तो आत्मघाती होगा। हमारे पूर्वजों ने हिमालय के उत्तरांचल में हमारी तीर्थयात्राओं के लिए अनेक स्थानों की स्थापना कर उन भू-भागों को जागृत सीमा का स्वरूप प्रदान किया था। तिब्बत या त्रिविष्टप, जिसे आज हमारे नेता चीन का तिब्बतीय प्रदेश कहते हैं, देवताओं का स्थान था। कैलाश पर तो परमेश्वर का निवास है। मानसरोवर तीर्थयात्रा के लिए एक अन्य पवित्र स्थान था, जो हमारी गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी पवित्र नदियों का उद्गम माना जाता है।

हमारे महान राष्ट्रकवि कालिदास ने हिमालय का वर्णन इस प्रकार किया है:
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्ड:।।
(कुमारसंभव प्रथम सर्ग – १)

(उत्तर दिशा में देवतात्मा हिमालय नाम का पर्वतराज है, जिसकी भुजाएँ पूर्व और पश्चिम में समुद्रपर्यंत फैली हुई हैं और जो पृथ्वी के मानदंड की तरह स्थित है।)

हमारे राजनीति शास्त्र में जिनका वचन आप्त प्रमाण है, उन चाणक्य का वक्तव्य है-

हिमवत्समुद्रान्तरमुदीचीनं योजनसहस्रपरिमाणम्।
(उत्तर में समुद्र से हिमालयपर्यंत इस देश की लंबाई एक सहस्र योजन है।)

इसका अर्थ यही है कि कवि कालिदास का वर्णन राजनीति-विशारद चाणक्य के वक्तव्य के अनुरूप है और हमारे लिए हमारी मातृभूमि की विशालता का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है।

किंतु वास्तविकता तो यह है कि पश्चिम ने जब कच्चे मांस के स्थान पर भुना मांस खाना सीखा था, उससे बहुत पूर्व हम एक राष्ट्र थे और थी हमारी एक मातृभूमि तथा समुद्रपर्यंत भूमि में परिव्याप्त था एक राष्ट्र। ‘पृथिव्याव्यैः समुद्रपर्यन्ताया एकराट्’- हमारे वेदों का वह एक प्रिय उद्घोष है, युगों से हमारे सामने इसका स्पष्ट स्वरूप रहा है- ‘आसेतुहिमालय’। हमारे पूर्वजों ने बहुत काल पूर्व कहा है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥
(विष्णु पुराण २-३-१, ब्रह्म पुराण १९-१ )

(पृथ्वी का वह भू-भाग, जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है, महान भारत कहलाता है तथा उसकी संतानों को भारती कहते हैं।)

सागर बसना पावन देवी, सरस सुहावन भारत माँ।
हिमगिरी पीन पयोधर वत्सल, जनमन भावन भारत माँ॥

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