राम की जन्मभूमि (2019)

फिल्म समीक्षा — राम की जन्मभूमि (2019)

 

सनोज मिश्र द्वारा निर्देशित फिल्म “राम की जन्मभूमि” अयोध्या मामले में उपजे मुस्लिम राजनीति और हलाला जैसी घृणित, निंदनीय एवं अमानवीयइस्लामिक प्रथा पर कड़ा प्रहार करती है। सदानंद मिश्रा और वसीम रिज़वीयह मानते हैं कि’राम’ का अस्तित्व मानव सभ्यता हेतु अपरिहार्य है। वे राम को ‘मिथक’ नहीं मानते। ‘राम’जीवन संचार है, प्रेरणा है, अटल सत्य है। उनके लिए राम जन्मभूमि भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की मिसाल है। वसीम व सदानंद का ‘राम’में दृढ़ विश्वास ज़फर खान के आतंकऔर धूर्तता पर भारी पड़ता है।

रेहाना व भारती धार्मिक कट्टरवाद को नकार देती हैं तथा ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति जागरूक हैं। धर्म उनके लिए कठपुतली नहीं है,जिसे ज़फर खान जैसे आतंकवादीअपनी जागीर समझते हैं। हलाला की अमानवीय एवं निंदनीय प्रथा के माध्यम से रेहाना काअत्यंत दर्दनाकशारीरिक व मानसिक पीड़ा से गुजरनाहलाला में निहितधार्मिक अन्धता और पैशाचिक प्रवृति को दर्शाता है।तीनशब्दों के दोहराव से वैवाहिक संबंधों की समाप्ति होना हास्यास्पद प्रतीत होता है, परंतु का शरियत के नियमों का घनौनापन भी उजागर होता है।

‘बाबरी मस्जिद’ घोर अमानवीयताकेइतिहासको समेटे हुए है,जिसे दोनों समुदाय स्वीकार करते हैं। सांसद वसीम रिज़वी मुगल आक्रमणकारी बाबर को ‘लुटेरा’कहता है। ज़फर खान बाबरी मस्जिदकी आड़में अपना कारोबार चलाता है। आरिफ़ जैसेधर्मांध मुस्लिम इसी कारोबार के मोहरे हैं ।

यह ऐतिहासिक सत्य है कि मुगल आक्रमण काल के दौरान हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति को नष्ट करने के प्रयास हुए, परंतु हिंदूअस्तित्वबचा रहा। वामपंथी इतिहासकारों ने इस सत्य को छिपाने व नकारने का भरसक प्रयत्न किया है। यह फिल्म इसी ऐतिहासिक ‘सत्य’ को सामने लाने का एक प्रयास मात्र है।

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