लॉकडाउनः सनातन संस्कृति का आंतरिक स्वरूप निखारने का समय

महाराणा प्रताप के साथी रहे गाड़िया लुहारों के पास भले ही खुद का घर न हो, लेकिन आज भी उसी आत्मसम्मान से जीते हैं। जब संघ के स्वयंसेवकों ने उन्हें भोजन और राशन सामग्री देने का आग्रह किया तो उन लोगों ने इस सहायता को लेने से मना कर दिया। साथ ही लोगों की सहायता के लिए उसी वक्त इक्यावन हजार रुपए एकत्र कर सौंप दिए।

मुरारी गुप्ता

भारतीय सनातन परंपरा में माना गया है कि मनुष्य की मनुष्यता की असल परीक्षा विपत्तिकाल में होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है – धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपद काल परखि आहिं चारी”। अर्थात कठिन समय में ही मनुष्य के धैर्य, उसके धर्म, मित्रों और स्त्री की परीक्षा होती है। यह समय भी ऐसा ही है। यह काल का वह खंड है जब हम भारतीय संस्कृति, हमारी परंपराओं में छिपे मनुष्यता के गुणों का सही विकास कर सकते हैं।

कोरोना जैसे अदृश्य चीनी वायरस के खतरे से मनुष्यता को बचाने के लिए देशभर में चालीस दिन की तालाबंदी यानी लॉकडाउन लगाया गया है। इस वायरस की संक्रामक प्रवृति को ध्यान में रखते हुए तत्काल प्रभाव से पहले इक्कीस दिन और बाद में उन्नीस दिन के लॉकडाउन की घोषणा की गई है। ऐसे में सामान्य जीवन जीने वाले लोगों, विशेषकर कारीगरों, श्रमिकों और छोटे मोटे अन्य काम धंधों के माध्यम से अपनी आजीविका चलाने वालों के जीवन में कठिनाई आना स्वभाविक भी था। इसका प्रभाव दिल्ली के अंतर्राज्यीय बस अड्डे और हाल ही में मुंबई के रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला।

हालांकि ये घटनाएं समाज और प्रशासन के सामूहिक उत्तरदायित्व पर गहरा सवाल खड़ा करती हैं। फिर भी इन घटनाओं का सामान्यीकरण पूरे देश पर नहीं किया जा सकता। भारतीय जनमानस में परोपकार और मनुष्यता के गुण हजारों वर्ष पुराने हैं। संभव है आधुनिक जीवन शैली की चमक में थोड़े बहुत फीके हो गए हों। लेकिन ईश्वर मनुष्यता के गुणों में आए पतन को ठीक करने के लिए कभी कभी ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देता है।

भारतीय सनातन संस्कृति में हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषियों ने लिखा है –
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चिद् दुःख भाग भवेत् । वृहदारण्यक उपनिषद् में लिखे इस श्लोक में भारतीयता के दर्शन होते हैं।

एक और श्लोक से हम इस दर्शन को समझ सकते हैं- अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्/ परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्। अर्थात् महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं। पहली – परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी – पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना। भारतीय जनमानस में ये गुण उसके डीएनए में व्याप्त हैं। इसके दर्शन भारतीय इतिहास के हर कालखंड में होते हैं।

भारत में पहली मस्जिद हिंदू राजा की अनुमति से केरल में बनी। इसी तरह भारत में पहली चर्च केरल में बनी। बहुत से विदेशी यहां आए। उन्हें शरण मिली। हमने निर्दोष आने वालों को शरण दी। उजड़कर आने वालों को वापस नहीं भेजा। भारत माता की गोद में उन्हें शरण मिली। जो अपना देश छोड़कर उत्पीड़न का शिकार होकर यहां आए, भारत ने उन्हें अपने आंचल में जगह दी। उदारता, परोपकार और सहिष्णुता हमारे रक्तकणों में है। यही कारण है कि लॉकडाउन के दौरान भी सामान्य परिवारों ने अपने आस-पास के उन लोगों के जीवन यापन की जिम्मेदारी भी उठा ली है, जिनका आधार दिन प्रतिदिन की मजदूरी पर निर्भर है। दोनों समय तैयार भोजन से लेकर सूखा राशन और दैनिक जीवन की अनिवार्य वस्तुओं को सामान्य परिवारों से एकत्र कर जरूरतमंद परिवारों को उपलब्ध करवाया जा रहा है। रेस्त्रां, होटल, ढाबा चलाने वालों ने अपने भंडार खोल दिए हैं। वे लोग दिन-रात लोगों को तैयार भोजन उपलब्ध करवा रहे हैं। गरीब, सामान्य परिवारों की महिलाएं चीनी वायरस से मुकाबले के लिए लोगों को मास्क उपलब्ध करवाने के लिए घरों में मास्क तैयार करने का काम कर रही हैं। आयुर्वेद से संबंधित लोग लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए जगह जगह बिना कोई राशि लिए काढ़ा बनाकर पिला रहे हैं। कई होटल मालिकों ने कोरोना बीमारी से ग्रसित लोगों का इलाज कर रहे चिकित्सकों के खाने-पीने और आवास के लिए अपने होटल खोल दिए हैं। मूक पशु पक्षियों के लोग दाना और चारे का प्रबंध कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इनके लिए हमें कहीं बाहर से प्रेरणा लेने की जरूरत है। यह हमारे भीतर ही निहित है। संभव है सुप्त अवस्था में हो, मगर समय आने पर पूरी तरह जाग्रत होकर सक्रिय हो जाती है।

अमरीका के कई राज्यों में लोग लॉकडाउन का विरोध करने सड़कों पर उतर रहे हैं। इधर भारत जैसे विशाल जनसंख्या और भूभाग वाले देश में लोग नेतृत्व की क्षमता पर विश्वास कर लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं, तो इसके पीछे हमारे सनातन संस्कृति के मूल तत्व ही हैं। यही वजह है कि देशभर में कहीं से भी किसी के भूख से मरने की घटना सुनने में नहीं आयी।

घोर व्यवसायीकरण के इस कालखंड में भारतीयता के ये मूल गुण राष्ट्र को एक नई आशा और उम्मीद देते हैं। एक अंतिम उदाहऱण से हम समाप्ति की ओर चलेंगे। भारत में परोपकार का चरम पुरुवंशी राजा शिबि थे। उन्होंने अपनी शरण में आए कबूतर की जान बचाने के लिए बाज को अपना मांस काटकर खिला दिया। ऐसा ही एक उदाहरण हाल ही में भीलवाड़ा में देखने को मिला। महाराणा प्रताप के साथी रहे गाड़िया लुहारों के पास भले ही खुद का घर न हो, लेकिन आज भी उसी आत्मसम्मान से जीते हैं। जब संघ के स्वयंसेवकों ने उन्हें भोजन और राशन सामग्री देने का आग्रह किया तो उन लोगों ने इस सहायता को लेने से मना कर दिया। साथ ही लोगों की सहायता के लिए उसी वक्त इक्यावन हजार रुपए एकत्र कर सौंप दिए।

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