संगठन निर्माण के महान शिल्पी थे दंत्तोपंत ठेंगड़ी

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी एक कुशल संगठक और विचारक थे।वर्ष 1999 से 2004 तक अधिवक्ता परिषद के राष्ट्रीय संगठन में कार्य करते हुए मुझे उनके निकट संपर्क में रहने के अनेक अवसर प्राप्त हुए भावी भारत को लेकर उनकी दृष्टि अद्भुत थी। देश के सांस्कृतिक विषयों पर उनकी समझ, उनका विश्लेषण और उनकी गहरी निष्ठा प्रभावित करने वाली रही। वे तात्कालिक विषयों का विश्लेषण भी अत्यंत बारीकी के साथ करते थे

 

दत्तोपंत जी मानते थे कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना में धार्मिक आडंबरों की कोई जगह नहीं है, बल्कि वे हमेशा ही अपने व्याख्यानों एवं चर्चाओं में भारत की मूलभूत मान्यताओं की बुनियाद पर एक आधुनिक भारत के निर्माण की दिशा दिखाते थे।उनके दृष्टिकोण में कभी जड़ता का भाव नहीं नजर आया।वे विविधताओं को गहनतापूर्वक समझने वाले ऐसे विचारक थे, जो पश्चिम और पूरब की सांस्कृतिक एवं सामाजिक मान्यताओं की समझ रखते थे पश्चिम और पूरब के दर्शन को रेखांकित करते हुए वे मानते हैं कि पश्चिम का दर्शन बुद्धिप्रधान है, जबकि पूरब का दर्शन आस्थाप्रधान है।दत्तोपंत जी की दृष्टि से अगर मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन करें तो पायेंगे कि मार्क्स के विचार बुद्धिप्रधान होने के साथ समता मूलकतो हैं, परंतु उनमें निष्ठुरता है। उनके मानवतावादी मूल्यों में संघर्ष को कहीं विराम नहीं है।‘थर्डवे’ पुस्तक में उन्होंने ऐसे अनेक विषयों पर विस्तार से अपनी बात रखी है। वहीं जब दत्तोपंत जी पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित अन्त्योदय की अवधारणा पर अपना मत जाहिर करते हैं, तो कहते हैं कि अन्त्योदय के लक्ष्यों को केवल राजनीतिक दलों के द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता, बल्कि उसके लिए समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में संगठन निर्माण को बल देना होगा।अन्त्योदय के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उनके विचार सिर्फ उनकी ‘कहन’ तक सीमित नहीं रहे बल्कि उनके जीवन व्यवहार में भी इसकी स्पष्ट छाप दिखाई दी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा लेकर दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ, किसान संघ, समरसता मंच, स्वदेशी जागरण मंच, ग्राम पंचायत और अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद जैसे संगठन खड़े किए।इन संगठनों के निर्माण के प्रति उनकी सोच अत्यंत व्यापक और बहुआयामी थी।ध्यान से देखा जाए तो दत्तोपंत जी की इस परिकल्पना में बड़े जनसंगठन भी हैं, स्वदेशी जागरण मंच जैसे आंदोलनात्मक संगठन भी हैं, समरसता मंच जैसे सांस्कृतिक मंच भी हैं, तो वहीं अधिवक्ता परिषद जैसे विशुद्ध वैचारिक संगठन भी हैं।दत्तोपंतजी की संगठन के विषय में स्पष्ट मान्यता थी कि संगठन का उद्देश्य जनता में समतामूलक विषयों को पहुंचाना होना चाहिए।समतामूलक विषयों का अर्थ है कि समाज में जहां-जहां भी विषमता के बिंदु हैं, उन्हें समाप्त करने के लिए काम करना होगा।ये विषमता केवल कथनी से समाप्त नहीं होगी, बल्कि इसके लिए हमें व्यावहारिक संगठन बनाकर संबंधित लक्ष्यों को प्राप्त करना होगा। वे अक्सर ही बातचीत में कहते थे, ‘संगठन, व्यक्ति और समाज के लक्ष्य क्षितिज की तरह होतेहैं।जब हम आगे बढ़ते हैं, तो लक्ष्य बदल जाते हैं।लेकिन सामाजिक जीवन के लक्ष्य का मूल उन विषमताओं को समाप्त करना होता है, जो विषमताएं शोषित और शोषण केआधार पर खड़ी होती हैं।’ इस दृष्टि से दत्तोपंत जी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से पुष्ट एक आधुनिक विचारक रूप में स्थापित होते हैं।उन्होंने आने वाले समय के लिए एक बड़े विचारदर्शन की नींव और भूमिका को गढ़ने का काम किया। दत्तोपंतजी के अपने राजनीतिक विचारों में भारत के संबन्ध में नैतिकता के मूल्यों को पर्याप्त महत्व देतेथे।गांधीजी और दीनदयालजी के विचारदर्शन में भी नैतिकता पर बल दिया गया है।
मुझे स्मरण आता है कि 1993 से वो लगातार अधिवक्ता परिषद में एक प्रमुख विषय पर भाषण देते थे और उस पर हम चर्चा करते थे।1999 में अधिवक्ता परिषद के राष्ट्रीय कार्यालय मंत्री के रूप में जब मैं उनके सम्पर्क में आया, तो उन्होंने कहा कि अधिवक्ता परिषद का संविधान बनना चाहिए। इस संबंध में जब चर्चा आगे बढ़ी तो अनेक विषय उभर कर आए।संविधान से सम्बंधित विभिन्न विषयों जैसे कि परिषद में महिला अधिवक्ताओं का कैसा योगदान हो, ग्रामीण क्षेत्रों में क्या भूमिका हो, परिषद में जवाबदेही किस प्रकार से सुनिश्चित हो आदि एक-एक चीज को उन्होंने बारीकी से समझाया।अधिवक्ता परिषद की राष्ट्रीय परिषद में हमने संविधान का प्रारूप निर्मित करने को कहा तो उन्होंने एक बहुत बड़ी बात कही, ‘सामान्यतः जब हम संगठन की स्थापना करते हैं, तो पहले उसका संविधान बनाते हैं।भाषण होते हैं, उद्देश्य तय किए जाते हैं, लेकिन बाद में वो संगठन समाप्त हो जाते हैं।परन्तु, संघ से निकले कार्यकर्ताओं की स्थिति भिन्न होतीहै।पहले वे कार्य की पृष्ठभूमि ढूंढते हैं, फिर उसमें काम करने वाले कार्यकर्ताओं को जोड़ते हैं और काम की व्यावहारिकताओं को समझते हुए उसके लिए एक मनोवृत्ति तय करते हैं । ये सब करते हुए जब पांच-छः साल में ध्यान आता है कि यह संगठन ठीक काम कर रहा है, तो ​तो फिर उसका संविधान बनाने की सोचते हैं।’ दत्तोपंत जी के कथनापुसार यह स्पष्ट है कि केवल संविधान बनाना किसी संगठन का मूल नहीं होता है। बल्कि उसको बनाने वाले लोगों को एक साथ लेकर चलना और फिर कार्य के लिए संगठनात्मक संरचना को खड़ा करना अधिक आवश्यक होता है।दत्तोपंत जी जानते थे कि कोई भी संस्था या संगठन केवल संविधान बना देने से नहीं चलते बल्कि उसके लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का होना जरूरी होता है। दत्तोपंत जी ने पर्यावरण, भारतीय संसदीय व्यवस्था, डब्लूटीओ जैसे जटिल विषयों पर अधिवक्ता परिषद में बहुत से विचार रखे। लेकिन इस बौद्धिक पक्ष के बादवजूद वो व्यवहार में उतने ही सरल थे। घर जाने वाले अतिथि के भोजन से लेकर उसकी छोटी—छोटी सुविधाओं की चिंता करना और उसे छोड़ने के लिए बाहर तक आना उनकी आदत थी। कितना ही छोटा कार्यकर्ता क्यों न हो, उसके प्रति भी उनका व्यवहार अत्यंत मधुर और सरल होता था।दत्तोपंत जी से मिलने जाने पर उनसे जो स्नेह और सम्मान मिलता था, उसे देखते हुए हमें समझ आ जाता था कि ये विनम्रता ही उनकी कार्यकर्ता बनाने की शक्ति है मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि दत्तोपंत जी जैसे संगठनकर्ता बहुत कम होते हैं और उनका व्यक्तित्व चिरकाल तक संगठन निर्माण में जुटे व्यक्तियों व कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणाका स्रोत बना रहेगा। वे एक महान संगठन शिल्पकार तो थे ही,साथ ही समाज और संस्कृति के विषयों पर दृष्टि देने वाले निपुण लेखक व विचारक के रूप में भी याद किए जातेहैं।
जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने दो महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की, जिनमें एक संगठन निर्माण से संबंधित ‘कार्यकर्ता’ पुस्तक और दूसरी देश के सामाजिक समता के मूल्यों को समझने के लिए बाबा साहेब आंबेडकर पर कें​द्रित पुस्तक थी। ये दोनों शोध परक पुस्तकें संगठन और वैचारिक क्षमता की दृष्टि से अभूतपूर्व कृति हैं। उनका जीवन एक संगठनसेवी महान विचारक का जीवन रहा। जिससे सार्वजनिक जीवन के हर व्यक्ति को प्रेरणा मिलती है।
 भूपेन्द्र यादव
राज्यसभा सांसद
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