विनाशपर्व : 1857 के क्रांति युद्ध में अंग्रेजों की निर्दयता

विनाशपर्व : 1857 के क्रांति युद्ध में अंग्रेजों की निर्दयता

विनाशपर्व : अंग्रेजों का ‘न्यायपूर्ण’ शासन..? / 2

प्रशांत पोळ

विनाशपर्व : 1857 के क्रांति युद्ध में अंग्रेजों की निर्दयताअंग्रेजों की निर्दयता

एक ब्रिटिश आर्मी ऑफिसर ने ‘द टाइम्स’ में लिखा, “We have the power of life and death in our hands, and I assure you, we spare not. A very summary trial is all that takes place.” _(भारतीयों को जीवन या मृत्यु देने की ताकत हमारे हाथों में थी और मैं आपको आश्वस्त करता हूं, हमने किसी को नहीं बख्शा। हम तत्काल निर्णय लेते थे)

गंगा के मैदान में, क्रांति युद्ध में सम्मिलित सैनिकों को मारते हुए कमांडिंग ऑफिसर जेम्स नेल (James Neill) आगे बढ़ रहा था। उसकी आज्ञाएं अत्यंत साफ थीं। स्पष्ट थीं। ‘इलाहाबाद के आजूबाजू के संपूर्ण प्रदेश को ‘सेटल’ करने की उसकी आज्ञा थी। उसके शब्द थे, “All the men inhabiting them (certain named villages) were to be slaughtered”. _(अर्थात, ‘उन तमाम गावों के सभी पुरुषों को पूर्णतः खत्म करो, जिन गावों में ‘विद्रोह’ के सिपाही थे’)_

‘लंदन टाइम्स’ का पत्रकार विलियम हार्वर्ड रसेल, जो 1858 में भारत में था, वह जेम्स नेल की रेजीमेंट के साथ चल रहा था। उसने लिखा है, “जो भी भारतीय पुरुष सामने दिखता था, अंग्रेज़ उसे मार डालते थे। बाद में तो, ‘गोली व्यर्थ क्यों गंवाना’ ऐसा सोचकर अंग्रेज़ सिपाही रास्ते में पड़ने वाले सभी गावों के पुरुषों को पेड़ पर लटकाकर खत्म करते थे। रास्ते के सारे पेड़, झूलती हुई लाशों से पटे पड़े थे।”

जे डब्लू काये (J. W. Kaye) ने 1857 के स्वतंत्रता युद्ध का इतिहास, ‘सेपॉय वॉर’ (Sepoy War) नाम से लिखा है। इस में काये लिखते हैं, “अंग्रेजों ने अनेक गांव, उस में रह रहे लोगों के साथ, जलाकर राख़ कर दिये। अनेक स्थानों पर की गई यह क्रौर्य की पराकाष्ठा थी।”

इस स्वतंत्रता संग्राम को 150 वर्ष होने के उपलक्ष में, लंदन से प्रकाशित ‘द गार्जियन’ मे, उनके दिल्ली के प्रतिनिधि रणदीप रमेश का आलेख छपा है, ‘India’s secret history : A holocaust, one where millions disappeared..’ दिनांक 24 अगस्त 2007 को छपे इस आलेख में रणदीप रमेश ने लिखा है कि 1857 के क्रांति युद्ध से बौखलाए अंग्रेजों ने लगभग 10 वर्ष तक, क्रौर्य से भरा एक जबरदस्त अभियान छेड़ा, जिसका उद्देश्य था, कि किसी भी भारतीय व्यक्ति में यह हिम्मत ही ना रहे, की वो अंग्रेजों के विरोध में कुछ करने का सोच भी सके। इतनी भयंकर दहशत भारतीयों से मन-मश्तिष्क में भर देना।

मुंबई के इतिहासकार अमरेश मिश्रा को उद्धृत करते हुए रणदीप रमेश ने लिखा है कि 1857 के बाद, अगले दस वर्ष तक अंग्रेजों ने लगभग एक करोड़ भारतीयों की नृशंसतापूर्वक हत्या की। इतिहास में उन एक लाख सैनिकों का उल्लेख आता है, जिनको अंग्रेजों ने ‘विद्रोह की सजा’ के रूप में मृत्युदंड दिया। किन्तु उन सामान्य नागरिकों के बारे में इतिहास मौन है, जिन्हें बिना किसी कारण से, अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक मौत के घाट उतारा। यह अंग्रेजों ने, सामान्य भारतीयों का किया हुआ नरसंहार था, जो जनता के सामने आना चाहिए।

अमरेश मिश्रा ने अनेक संसाधनों का अध्ययन कर यह एक करोड़ की हत्याओं का आंकड़ा निकाला है। इन संसाधनों में ‘ब्रिटिश लेबर फोर्स रेकॉर्ड्स’ प्रमुखता से हं।

1857 के क्रांति युद्ध के लगभग 25 वर्ष बाद, मराठी में एक पुस्तक प्रकाशित हुई, ‘माझा प्रवास’। कोंकण क्षेत्र के गोडसे भटजी ने लिखा हुआ यह यात्रा वृत्तांत है। 1847 – 58 के बीच, यह गोडसे भटजी अपने चाचा के साथ झांसी – ग्वालियर क्षेत्र में थे। उन्होंने अंग्रेजों के भयानक अत्याचारों का प्रत्यक्ष अनुभव किया था। उनके अनुसार, झांसी के आसपास के प्रदेश के लगभग सभी कुएं, स्थानीय लोगों की लाशों से पटे पड़े थे। अंग्रेज़ गांव – गांव जाकर, 6 वर्ष के बालक से लेकर तो 60 वर्ष के बुजुर्ग आदमी तक, सभी को मार डालते, और उनके शव कुएं में फेंक कर चले जाते थे। भारतीयों में दहशत बिठाने का उनका अपना यह तरीका था। पूरे बुंदेलखंड में अंग्रेजों के इस नरसंहार को ‘बीज्जन’ कहा जाता था। अंग्रेजों ने ऐसे अनेक गांवों का ‘बीज्जन किया’ था।

जालियांवाला बाग का नरसंहार

कुछ गिने-चुने अंग्रेजों का अपवाद छोड़ दें, तो भारत पर राज करने आया हुआ हर एक अंग्रेज़, सत्ता के नशे में चूर रहता था। भारतीयों के प्रति कुत्ते – बिल्ली जैसा बर्ताव करना और जनता से कुछ भी वसूलना, यह उन्हे अपना अधिकार लगता था।

सन 1919 में, अमृतसर के जालियांवाला बाग में जो कुछ हुआ, वह इसी मानसिकता का परिणाम था। जनरल डायर ने वहां निहत्थे और निर्दोष भारतीयों को कीड़े-मकौड़ों जैसा मारा। यह एक भयानक पाशवी नरसंहार था, जिसे ब्रिटिश शासन की अधिमान्यता थी।

1919 की 13 अप्रैल को बैसाखी थी। रविवार का दिन था। रौलेट एक्ट के विरोध में सारे देश में प्रदर्शन हो रहे थे। उसी शृंखला में, जालियांवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई थी। बैसाखी और छुट्टी के कारण, अमृतसर के आजू-बाजू के लोग भी जालियांवाला बाग पहुंच रहे थे। धीरे – धीरे यह संख्या पांच हजार तक पहुंच गई। मैदान में भाषण चल रहे थे, और लोग शांति से बैठ कर उन्हे सुन रहे थे। लोगों में बच्चे, बूढ़े, महिलाएं… सभी थे। वातावरण में कही कोई उत्तेजना या असंतोष नहीं था।

तभी अचानक ब्रिटिश सेना का एक अधिकारी, ब्रिगेडियर जनरल एडवर्ड डायर (मूलतः वह कर्नल था, किन्तु अस्थायी रूप से उसे ब्रिगेडियर का पद दिया गया था), हथियारों से सुसज्जित अपनी फौज लेकर मैदान में घुस गया। उसने अपने साथ 2 तोपें भी लाई थी। किन्तु जालियांवाला बाग के आसपास की गलियां सकरी होने के कारण वे तोपें मैदान में नहीं आ सकी।

सारे सैनिक मैदान के अंदर आते ही, बिना किसी सूचना दिए, बिना चेतावनी के, जनरल डायर ने शांति से भाषण सुन रहे उन निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाने के आदेश दिये और सारा परिसर गोलियों की आवाज से, उन निरीह और मासूम नागरिकों की चीख – पुकार से थर्रा उठा..!

यह इतिहास का शायद सबसे बड़ा हत्याकांड था। सबसे नृशंस, सबसे जघन्य और सबसे बिभत्स भी! हाथों में आग निकलती बंदूकें लिए सैंकड़ों सैनिक और सामने निहत्थे, निरीह, निरपराध नागरिक। उन्हें गोलियों से निर्ममता पूर्वक भूना जा रहा था, मानो मच्छर – मख्खी मार रहे हों। मात्र १५० यार्ड से भी कम दूरी से, गोलियां खत्म होने तक गोलीबारी करने के आदेश थे। विश्व की सारी क्रूरता, सारी पाशवीकता, सारी नृशंसता यहां पर उतर आई थी।

शशि थरूर ने ‘An Era of Darkness’ में लिखा है, “इस गोलीबारी के संबंध में कोई पूर्वसूचना नहीं दी गई। जमा हुई भीड़ को ‘यह गैरकानूनी है’ ऐसा भी नहीं बताया गया। उस भीड़ को शांतिपूर्ण ढंग से मैदान खाली करने के लिए भी नहीं कहा गया। जनरल डायर ने अपने सैनिकों को हवा में गोली चलाने अथवा लोगों के पैरों पर गोली मारने के लिए भी नहीं कहा था। सैनिकों को मिले आदेशानुसार, उन्होने उन निहत्थे और असहाय लोगों के छाती पर, चेहरे पर दनादन गोलियां दागीं…!

जख्मी नागरिक तड़पते रहे। पर उन्हे कोई सहायता नहीं मिली। अमृतसर में 24 घंटों का कर्फ़्यू लगाया गया, ताकि कोई भी नागरिक इन जख्मी लोगों की सहायता के लिए आगे ना आ सके। इस कर्फ़्यू का कठोरता से पालन कराया गया। खून के तालाब में पड़े, कराहते जख्मी लोगों को तड़पने के लिए अंग्रेजों ने छोड़ दिया था..!

कुल 1650 राउंड की फायरिंग हुई। अधिकृत आंकड़े बताते हैं कि 379 लोगों की मौत हुई। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 हुतात्माओं की सूची है, किन्तु गैर सरकारी आकड़ों के अनुसार 1000 से भी ज्यादा लोग इस हत्याकांड में मारे गए। 2000 से भी ज्यादा लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए।

जिन्हें ‘न्यायप्रिय’ होने का तमगा दिया गया था, ऐसे अंग्रेजों ने इस जघन्य हत्याकांड का खुले आम समर्थन किया। जनरल डायर, रातोंरात इंग्लंड में हीरो बन गया।

जनरल डायर के इस करतूत पर इंग्लैंड के दोनों सदनों में चर्चा हुई। हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने उसे पूर्णतः दोषमुक्त करार दिया। हाउस ऑफ कॉमन्स ने बस एक छोटी सी टिप्पणी कर के इतिश्री कर दी। जनरल डायर को मोटी पेंशन मंजूर की गई। जिस ‘मोगली’ के जनक, नोबल पुरस्कार विजेता, रुडयार्ड किपलिंग को हम सर पर उठाएं रहते हैं, उस किपलिंग ने जनरल डायर का गौरव करते हुए उसे ‘भारत को बचाने वाला आदमी’ कहा !

मामला इतने पर नहीं रुका….

भारत में रह रहे अंग्रेज़ अधिकारियों को, जनरल डायर का यह गौरव पर्याप्त नहीं लगा। उन्होंने एक मुहिम छेड़कर, जनरल डायर की क्रूरता का सम्मान करने के लिए, निधि संकलन प्रारंभ किया। उन्होंने भारी सी रकम इकठ्ठा की – 261317 पाउंड, 1 शिलिंग, 10 पेन्स. यह रकम उन दिनों चौंकाने वाली थी। आज के हिसाब से वह ढाई लाख पाउंड (अर्थात ढाई करोड़ रुपये) होती है। इस मोटे रकम की थैली, बर्बरता के सरताज, जनरल डायर को, हीरे लगी हुई तलवार के साथ, ससम्मान भेंट की गई..!

और अनेकों महीनों की न्यायिक लड़ाई लड़ने के बाद, जालियांवाला बाग हत्याकांड के मृत लोगों के परिजनों को, अंग्रेज़ सरकार ने, बड़ी दरियादिली दिखाते हुए, हर एक मृत व्यक्ति के लिए 37 पाउंड दिये!

अंग्रेजों की क्रूरता के ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। काले पानी में भेजकर राजनीतिक बंदियों को भी अमानुष यातनाएं देना, अच्छे वस्त्र बुनने वाले बुनकरों के अंगूठे काट देना, राजनीतिक बंदियों को बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर उनको कोड़े मारना, 1857 के क्रांति युद्ध में, दिल्ली के दरियागंज के पास, ‘कूचा चालान’ में 1400 निहत्थे, निर्दोष नागरिकों की निर्मम हत्या करना… ऐसे अनगिनत प्रसंग बताते हैं, कि अंग्रेजों ने बड़ी बर्बरता के साथ भारत पर राज किया।

धर्मांतरण का लक्ष्य

भारत पर राज करने का अंग्रेजों का उद्देश्य मात्र व्यापार करना था या सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में लेना..?

यह तो था ही, किन्तु इसी के साथ, अंग्रेज़ भारत को पूर्णतः ईसाई बनाना चाहते थे। बिलकुल वैसे ही, जैसे स्पेन ने लगभग समूचे दक्षिण अमेरिका को ईसाई बना डाला था। अंग्रेजों की सोच कुछ ऐसी थी।

14 मई 2018 को केंब्रिज यूनिवर्सिटी ने स्टुअर्ट ब्राउन (Stewart J. Brown) का एक पेपर प्रकाशित किया हैं, जिसका शीर्षक है, ‘Providential Empire? The Established Church of England and the Nineteenth – Century British Empire in India’ _(‘दैवी साम्राज्य? इंग्लैंड के प्रस्थापित चर्च और उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश राज’)_

इस पेपर में स्पष्ट तौर पर लिखा हैं-
In the early nineteenth century, many in Britain believed that their conquests in India had a providential purpose, and that imperial Britain had been called by God to Christianize India through an alliance of Church and empire. In 1813, parliament not only opened India to missionary activity, but also provided India with an established Church, which was largely supported by Indian taxation and formed part of the established Church of England.
_(उन्नीसवी शताब्दी के प्रारंभ में, इंग्लैंड को यह विश्वास था की भारत पर उसकी सत्ता यह दैवी संकेत हैं और इसका ईश्वरी प्रयोजन है। ब्रिटन को ईश्वर ने आदेश दिया है, चर्च और साम्राज्य की सत्ता की मदद से, भारत का ईसाईकरण करने का। 1813 में इंग्लैंड की पार्लियामेंट ने भारत में मिशनरी गतिविधि बढ़ाने के लिए कहा है)_

आगे चलकर, 1857 के क्रांति युद्ध के आगे / पीछे विक्टोरिया रानी ने भारत से संबंधित अनेक पत्र लिखे हैं। युद्ध के बाद, रानी ने भारत का शासन, ईस्ट इंडिया कंपनी से निकालकर अपने हाथों में ले लिया। इस दौरान रानी ने, भारत को ईसाई बनाने के अपने उद्देश्य पर ज़ोर दिया। महाराजा दुलीप सिंह को लिखे एक पत्र में रानी ने यह मंशा स्पष्ट रूप से प्रकट की है। रानी के वाक्य हैं –
The progress of the railroad will make an immense difference in India and tend more than anything else to bring about civilization and will in the end facilitate to spread of Christianity, which hitherto has made but very slow progress.
_(रेल लाइन की प्रगति से भारत में जबरदस्त बदलाव आएगा। विशेषतः सभ्यता और संस्कृति में। अंततः इसका उपयोग होगा ईसाइयत के प्रसार में, जो हुआ तो है, पर बहुत धीमी गति से..!)_

इसलिए अंग्रेजों ने सारे बड़े / छोटे शहरों में, ईसाई मिशनरियों को चर्च के लिए और स्कूल / कॉलेज खोलने के लिए बड़े – बड़े भूभाग दिये। ये सारे व्यवहार फोकट में थे और ये सारी ज़मीनें, मौके के स्थान पर थीं।

अंग्रेजी शासन में पड़े प्रमुख अकाल

क्र. अकाल का वर्ष अकाल का क्षेत्र मारे गए लोग
१ १७६९ बंगाल और बिहार १ करोड़
२ १८३७ – ३८ आगरा ८ लाख
3 १८६० – ६१ आगरा, दिल्ली, पंजाब, हिसार २० लाख
4 १८६५ – ६७ उड़ीसा, बिहार ४५ लाख
5 १८७६ – ७८ मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी ५५ लाख
6 १८९६ – ९७ मद्रास, बॉम्बे, संयुक्त प्रांत, १० लाख
7 १८९९ – १९०० बॉम्बे प्रेसीडेंसी, सीपी एंड बेरार ४५ लाख
8 १९४३ बंगाल ३५ लाख

संदर्भ (References)
1. The Bengal Femine : How the British Engineered the Worst Genocide in Human History of Profit – Rakhi Chakraborty
2. Churchill’s Secret War : The British Empire and the Ravaging of India During World War II – Madhusree Mukerjee
3. The Forgotten Brutality of the 1857 Mutiny – Rudrangshu Mukherjee (August 14, 2017 rediff.com)
4. British Reaction to Sepoy Mutiny 1857 – 88 : (Thesis submitted to North Texas State University for MA by Samuel Shafeek. August 1970)
5. India’s Secret History : A ‘Holocaust’, one where millions disappear – Randeep Rana (Article published in ‘The Guardian’ on 24th August, 2007)
6. Late Victorian Holocaust – Mike Davis
7. Empire in Asia – William Torren
8. भारत में अंग्रेजी राज – पंडित सुंदरलाल
9. The History of British India – James Mills
10. Bengal : The British Bridgehead : Eastern India 1740 – 1828 – P. J. Marshall
11. Gorakhapur Civil Rebellion in Persian Historiography – Syed Najmul Raza Rizavi _(Paper published in India History Congress Jounal)_
12. Sepoy War – J. W. Kaye
13. माझा प्रवास – गोडसे भटजी
14. An Era of Darkness – Shashi Tharoor
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